नफरत और हिंसा से मुकाबला कैसे करें अल्पसंख्यक? – राम पुनियानी का विश्लेषण
अल्पसंख्यकों के खिलाफ बढ़ती हिंसा का मुकाबला आत्मरक्षा से नहीं, बल्कि नफरत की जड़ों को पहचानकर और शांति व समावेशी राष्ट्रवाद के संदेश को फैलाकर किया जा सकता है...;
नफरत और हिंसा से मुकाबला कैसे करें अल्पसंख्यक?
- धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ बढ़ती हिंसा का परिदृश्य
- जमीयत-ए-उलेमा-ए-हिन्द की आत्मरक्षा पहल और विवाद
- आरएसएस और हथियार प्रशिक्षण कार्यक्रमों पर सवाल
- मुस्लिम संगठनों की दुविधा और आलोचना
- न्याय व्यवस्था और साम्प्रदायिक हिंसा की जांच रिपोर्टें
- नफरत की जड़ों को समझना और तोड़ना क्यों ज़रूरी है
शांति, प्रेम और समावेशी राष्ट्रवाद से नफरत का मुकाबला
प्रोफेसर राम पुनियानी लिखते हैं कि अल्पसंख्यकों के खिलाफ बढ़ती हिंसा का मुकाबला आत्मरक्षा से नहीं, बल्कि नफरत की जड़ों को पहचानकर और शांति व समावेशी राष्ट्रवाद के संदेश को फैलाकर किया जा सकता है...
पिछले कुछ वर्षों में धार्मिक अल्पसंख्यकों के विरूद्ध हिंसा (Violence against religious minorities) में तेजी से वृद्धि हुई है। इस हिंसा का एक चिंताजनक पहलू यह है कि गौमाता और राष्ट्रवाद के नाम पर अल्पसंख्यकों को निशाना बनाया जा रहा है। इससे धार्मिक अल्पसंख्यकों में असुरक्षा का भाव (Feeling of insecurity among religious minorities) बढ़ा है और वे अपने मोहल्लों में सिमटने लगे हैं। यह सब देश के सामाजिक तानेबाने के लिए अशुभ है। जमीयत-ए-उलेमा-ए-हिन्द द्वारा युवाओं को आत्मरक्षा की तकनीक सिखाने के लिए क्लबों की स्थापना करने की घोषणा को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए।
जमीयत के मुखिया मौलाना महमूद मदनी ने अपने संगठन के संबंध में जानकारी देते हुए इस योजना के बारे में बताया। उनका कहना है कि इस पहल का, युद्देश्य युवाओं को मुश्किल हालात से निपटना सिखाना है। ये युवा देश पर किसी संकट की स्थिति में देश के काम आएंगे। उन्होंने कहा कि युवा क्लबों में स्काउट-गाईडस की तरह प्रशिक्षण दिया जाएगा। इस घोषणा पर प्रतिक्रिया देते हुए विनय कटियार और आरएसएस से संबद्ध संगठनों के प्रवक्ताओं ने कहा कि इससे हिंसा को बढ़ावा मिलेगा और यह भी कि यह आरएसएस मॉडल की नकल करने का एक प्रयास है, जो सफल नहीं हो सकेगा। उन्होंने कहा कि यद्यपि मदनी ने स्काउटस और गाईडस की तरह प्रशिक्षण देने की बात कही है परंतु आत्मरक्षा के लिए दिया गया प्रशिक्षण, हमले के लिए भी प्रयुक्त हो सकता है।
कई मुस्लिम संगठनों ने जमीयत के इस कदम का विरोध करते हुए कहा कि मुसलमानों को न्याय व्यवस्था में पूरा भरोसा है और नागरिकों को सुरक्षा प्रदान करना राज्य का कर्तव्य है।
आरएसएस वाले तो लाठी भारतीयों पर ही चलाते हैं
कहने की आवश्यकता नहीं कि मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद से मुसलमानों और ईसाईयों में असुरक्षा के भाव में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है। आरएसएस और उसकी संतानें, लाठी और बंदूकें चलाने का प्रशिक्षण लंबे समय से देती आ रही हैं। संघ की शाखाओं में लाठी, स्वयंसेवकों के गणवेश का आवश्यक हिस्सा है। जिस समय आरएसएस की स्थापना हुई थी, उस समय देश की सबसे बड़ी समस्या थी ब्रिटिश शासन। क्या आरएसएस के स्वयंसेवकों ने लाठी का इस्तेमाल अंग्रेजों को देश से भगाने के लिए किया? कतई नहीं। ये लाठी तो वे भारतीयों पर ही चलाते थे।
क्या कानून का राज नहीं है हमारे देश में?
पिछले कुछ दशकों से बजरंग दल और दुर्गा वाहिनी, बंदूक चलाने का प्रशिक्षण भी देती आ रही हैं। यह सब कुछ आत्मरक्षा के नाम पर किया जा रहा है। क्या हमारे देश में कानून का राज नहीं है? क्या भारतीय संविधान इस देश पर लागू नहीं होता? क्या हमें सुरक्षा देने और हमारे साथ न्याय करने के लिए पुलिस और अदालतें नहीं हैं? तब फिर संघ परिवार के अस्त्र प्रशिक्षण कार्यक्रमों का क्या औचित्य है (What is the justification behind the weapon training programs of the Sangh Parivar)? आरएसएस का हथियारों के प्रति अजीब सा आर्कषण है। हर दशहरे पर वे हथियारों का प्रदर्शन करते हैं और उनकी पूजा भी। मीडिया में इस आशय की रपटें छपती रहती हैं कि पुलिस को आरएसएस के पास ये हथियार होने के संबंध में जानकारी नहीं रहती। संघ, अहिंसा की बात करता है परंतु हथियारों का महिमामंडन करता है और युवा लड़कों और लड़कियों को उनका प्रयोग करना सिखाता है।
इसके अतिरिक्त, संघ से जुड़े संगठन, त्रिशूल वितरण कार्यक्रम भी आयोजित करते रहते हैं। त्रिशूल, भगवान शिव से जुड़ा है और भोथरा होता है। परंतु इन संगठनों द्वारा जो त्रिशूल बांटे जा रहे हैं वे चाकू की तरह नुकीले और तेज होते हैं। अगर हम कानून की बात न भी करें तो भी किसी भी समुदाय या समूह द्वारा हथियारों का इस्तेमाल कर अपनी रक्षा करने का प्रयास अच्छी बात नहीं कही जा सकती।
मुस्लिमों और जमीयत की दुविधा क्या है?
मुस्लिम समुदाय और जमीयत जैसे संगठनों की दुविधा समझी जा सकती है। आज जो हालात हैं, उनमें अल्पसंख्यकों के संगठनों की क्या भूमिका होनी चाहिए? कुछ मुस्लिम संगठनों ने जमीयत की पहल का विरोध किया है। उनका कहना है कि चन्द युवाओें को स्काउट-गाईड जैसा प्रशिक्षण देने या आरएसएस की नकल करने से मुस्लिम समुदाय की समस्याएं समाप्त होने वाली नहीं हैं। इसकी जगह जमीयत को यह मांग करनी चाहिए कि कानून ठीक ढंग से लागू किए जाएं और हिंसा के पीड़ितों के साथ न्याय हो।
साम्प्रदायिक हिंसा की जांच के लिए गठित अधिकांश आयोगों की रपटों से यह पता चलता है कि पुलिस का पक्षपातपूर्ण दृष्टिकोण और राजनैतिक दलों का साम्प्रदायिकता से लाभ उठाने का प्रयास, देश में हिंसा में बढ़ोत्तरी का कारण है। सन् 1984 के सिक्ख विरोधी दंगों के आरोपियों को आज तक सजा नहीं मिल सकी है। मुंबई दंगों पर श्रीकृष्ण आयोग की सिफारिशें लागू नहीं की गई हैं। जाहिर है कि इससे अपराधियों का हौसला बढ़ता है, निर्दोष कष्ट भोगते हैं और न्याय नहीं होता। गुजरात में गोधरा के बाद हुए दंगे, देश के सबसे कार्यकुशल मुख्यमंत्री की नाक के नीचे हुए थे। इनमें करीब दो हजार लोग मारे गए थे और राज्य हिंसा का प्रायोजक था। जमीयत के नेतृत्व को यह सोचना चाहिए कि वह जो कर रहा है क्या वह सही है? जमीयत का प्रयास यह होनी चाहिए कि हिंसा की जड़ का पता लगाया जाए। हिंसा की जड़ है समाज में फैलाई जा रही नफरत। इस नफरत के पीछे हैं अल्पसंख्यकों के बारे में कई तरह की गलत धारणाएं और पूर्वाग्रह। इस्लाम को हिंसक धर्म बताया जाता है और ईसाईयों को धर्मपरिवर्तन करने में सिद्धहस्त निरूपित किया जाता है। गुजरात में तीस्ता सीतलवाड जैसे लोगों के साथ जो हुआ, उससे पता चलता है कि इस देश में न्याय पाना बहुत कठिन काम है। कुछ टीवी चैनलों, मीडिया के एक हिस्से और सोशल मीडिया द्वारा किए जा रहे विघटनकारी प्रचार का मुकाबला किए जाने की जरूरत है। मध्यकाल व स्वाधीनता संग्राम के दौरान देश के असली चरित्र का प्रचार किया जाना जरूरी है। हमें लोगों को यह बताना होगा कि भारतीय राष्ट्रवाद समावेशी है और हमारी संस्कृति मिलजुलकर प्रेमपूर्वक रहने की है।
आज जरूरत इस बात की है कि जो लोग देश की सुरक्षा और लोगों के मानवाधिकारों के बारे में चिंतित हैं वे एक मंच पर आएं। जमीयत जैसे संगठनों के लिए बेहतर होगा कि वे युवाओं को इस बात का प्रशिक्षण दें कि मुसलमानों के खिलाफ फैलाई जा रही नफरत का मुकाबला कैसे किया जाए। वे युवाओं को यह बताएं कि शांति और प्रेम के संदेश से नफरत का मुकाबला किया जा सकता है। अगर जमीयत मुसलमानों के बारे में फैली गलत धारणाओं का थोड़ा सा भी हिस्सा समाप्त करने में सफल हो गई तो यह युवाओं को आत्मरक्षा का प्रशिक्षण देने से कहीं अधिक उपयोगी कार्य होगा।
(अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)
(लेखक आईआईटी, मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।)