इतिहास ने नेहरू को सही साबित किया, भविष्य सोनिया और खड़गे को सही साबित करेगा
1951-52 में नेहरू ने चुनावी नफ़ा-नुक़सान से ऊपर उठकर धर्मनिरपेक्ष मूल्यों को चुना। आज कांग्रेस का अयोध्या न जाने का निर्णय भी वैसा ही ऐतिहासिक कदम है, जो भविष्य में सही साबित होगा-शाहनवाज़ आलम का विश्लेषण;
History proved Nehru right, future will prove Sonia and Kharge right
शाहनवाज़ आलम
1951-52 में होने वाले पहले लोकसभा चुनाव के समय बंटवारे के कारण मुसलमानों के खिलाफ़ भावनाएं उफान पर थीं। तात्कालिक भावनाओं से प्रभावित एक तबका मानता था कि कांग्रेस ने सेक्युलर मुल्क बना कर ठीक नहीं किया। जब पाकिस्तान मुस्लिम राष्ट्र बन गया था तो भारत को भी हिन्दू राष्ट्र होना चाहिए था। ये भावनाएं बंटवारे में हिंसा झेलकर सरहद पार से पंजाब और दिल्ली में आ कर रह रहे शरणार्थियों में ज़्यादा थीं, जो तात्कालिक परिस्थितियों में स्वाभाविक था, भले न्यायोचित न हो।
चुनाव में कांग्रेस को जीतना ही था फ़िर भी कांग्रेस के अंदर एक ऐसा धड़ा था जिसका मत था कि नेहरू अपने भाषणों में धर्मनिरपेक्षता की बात न करें नहीं तो कुछ हिन्दू वोटर नाराज़ हो सकते हैं। लेकिन नेहरू ने उन मूल्यों से समझौता नहीं किया किया, जिनके लिए वो अंग्रेजों की जेल में 14 साल क़ैद रहे थे।
निर्भीक नेहरू ने अपने चुनाव प्रचार की शुरूआत पंजाब के लुधियाना से की जहां पाकिस्तान के मुसलमानों की हिंसा से पीड़ित हिन्दू और सिख शरणार्थी बड़ी तादाद में थे। दो बैलों की जोड़ी वाले चुनावी पोस्टर पर नेहरू के चेहरे के साथ सेक्यूलर और प्रगतिशील शासन के लिए कांग्रेस ने वोट मांगा।
जो लोग उस समय नेहरू को चुनावी लाभ-हानि देखकर धर्मनिरपेक्षता से बचने की सलाह दे रहे थे, वही आज सोनिया गांधी और मल्लिकार्जुन खड़गे के अयोध्या में आरएसएस भाजपा प्रायोजित कार्यक्रम में नहीं जाने को चुनावी तौर पर नुकसानदेह बता रहे हैं। लेकिन कांग्रेस ने न उस समय चुनावी लाभ-हानि देखी न अब देख रही है। यही सैद्धांतिक दृढ़ता उसकी ताक़त है और चुनावी आंकड़ों में अपने सबसे कमज़ोर स्थिति में होने पर भी संघ-भाजपा को इसीलिए उससे दिक्कत है।
दरअसल, कांग्रेस और अन्य सभी दलों के विपरीत भाजपा के साथ हमेशा से ऐतिहासिक और नैतिक वैधता का संकट रहा है। इस लिहाज़ से वो भले प्रचंड बहुमत की सरकार चला रही हो लेकिन उसे हमेशा यह सच्चाई डराती है कि भारतीय इतिहास और मूल्यों की वो वास्तविक प्रतिनिधि नहीं है। इसीलिए उसे ऐतिहासिक, नैतिक और सामाजिक स्वीकार्यता उसी कांग्रेस और नेहरू से लेनी पड़ती है जिनका वो विरोध करते हैं।
उसकी इस मजबूरी से निकलीं तीन अफवाहें देखिए -
पहला, संघ द्वारा राष्ट्रध्वज का विरोध करने के इतिहास पर सवाल का जवाब देते हुए एक इंटरव्यू में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने कहा है कि पूर्ण स्वराज की मांग के साथ 1929 में हुए कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में जब तिरंगा फहराया गया तो ऊपर जाकर वो खुला ही नहीं। तब संघ की शाखा का एक युवक गया और खम्भे पर चढ़कर झंडे की गांठ को खोला तब जाकर झंडा फहर पाया। इस अफ़वाह से संघ स्वतंत्रता आंदोलन में अपनी सकारात्मक भूमिका पर कांग्रेस की मुहर लगवाना चाहता है।
दूसरा, इसी तरह की एक अफ़वाह यह भी है कि 1963 के गणतंत्र दिवस परेड में नेहरू सरकार ने आरएसएस के स्वयंसेवकों को आमंत्रित किया था। जबकि सच्चाई यह है कि चीन से युद्ध होने के कारण राष्ट्रीय इमर्जेंसी की स्थिति थी और उस साल सैनिकों की एक छोटी सी टुकड़ी ही परेड में शामिल हुई और क़रीब एक लाख आम लोग उस peoples मार्च में शामिल हुए। नेहरू ने ख़ुद सांसदों के दल का नेतृत्व किया था। उस साल यह खुला हुआ मार्च था और किसी भी संगठन या समूह को अधिकृत तौर पर आमंत्रित नहीं किया गया था। संघ ने इसे अंग्रेजों के साथ खड़े होने के अपने बदनामी भरे इतिहास और गांधी जी के हत्यारों के संघ की विचारधारा से जुड़े होने के वर्तमान दबाव से छुटकारा पाने के अवसर के बतौर देखा। उसके कुछ लोग अपने गणवेश में इस मार्च में शामिल हो गए थे। लेकिन किसी अखबार ने इसका संज्ञान भी नहीं लिया।
अपनी वैधता का ही संकट है कि संघ को नेहरू जी से अपनी देशभक्ति का प्रशस्तिपत्र पाने के इस अफ़वाह का इस्तेमाल प्रचण्ड बहुमत के बाद भी करना पड़ता है। मसलन जब पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी संघ के हेड क्वार्टर पर भाषण देने गए तो उन पर उठने वाले सवालों के जवाब में संघ ने फिर इसी अफ़वाह की मदद ली थी।
नेहरू से प्रशस्ति पाने की तीसरी अफ़वाह तो जितनी हास्यास्पद है उतनी ही लोकप्रिय भी। वो है पंडित जवाहरलाल नेहरू का कथित तौर पर अटल बिहारी बाजपेई को यह कहना कि आप एक दिन प्रधानमंत्री बनेंगे। नेहरू की किसी भी जीवनी, उनके साथ रहने वाले लोगों के संस्मरणों, उनके अपने कलेक्टेड वर्क्स, उनके साथ काम करने वाले अफसरशाहों और पत्रकारों की सैकड़ों किताबों में कहीं भी यह बात नहीं लिखी है। अब नेहरू ने बाजपेई जी के कान में तो यह बात कही नहीं होगी कि कोई दूसरा सुन न ले। सबसे अहम नेहरू जनसंघ को फासीवादी संगठन मानते थे जिससे भारतीय लोकतंत्र को खतरा था। क्या नेहरू कभी भी एक फासीवादी दल के सांसद को देश का प्रधान मंत्री बनने की कामना कर सकते थे?
दरअसल, इस अफवाह की दो वजहें समझ में आती हैं। पहला, नेहरू जैसे शानदार वक्ता की श्रेणी में बाजपेयी जी को 'एड्जस्ट' करना और कांग्रेस विरोधी गैर भाजपाई वर्ग में बाजपेयी जी की 'गलत पार्टी में सही आदमी' की छवि बनाना। जब 1996 में पहली बार बाजपेयी प्रधानमंत्री बने तो उनके नेहरू जी से इस कुर्सी पर बैठने का 'आशीर्वाद प्राप्त' होने को काफी प्रचारित किया गया था ताकि उन्हें सामाजिक स्वीकृति मिल जाए।
दरअसल, संघ-भाजपा चाहे जितने मजबूत हो जाएं राष्ट्रीय जीवन में स्वीकृति के लिए कांग्रेस का सर्टिफिकेट अनिवार्य है। इसीलिए उनकी कोशिश थी कि किसी भी तरह कांग्रेस अध्यक्ष और नेहरू परिवार के वंशजों को 22 जनवरी को अपने मंच पर ला दिया जाए। इसके लिए कांग्रेस के अंदर चुनावी नफा नुकसान के तात्कालिक तर्क से इस देश के इतिहास को देखने वाले नेता और मीडिया का एक बड़ा तबका भी लग गया था। लेकिन 72 साल बाद कांग्रेस ने अयोध्या न जाकर वही स्टैंड लिया जो नेहरू ने लुधियाना जा कर लिया था। इतिहास ने नेहरू को सही साबित किया। भविष्य खड़गे और सोनिया गाँधी को सही साबित करेगा।
(लेखक यूपी अल्पसंख्यक कांग्रेस के अध्यक्ष हैं)