अक्टूबर क्रान्ति : एक नयी दुनिया का संकेत
1917 की अक्टूबर क्रांति मानव इतिहास की महान घटना थी जिसने पूंजीवाद से समाजवाद की राह खोली। जानें कैसे लेनिन के नेतृत्व में रूस ने नई दुनिया का संकेत दिया;
October Revolution: A Sign of a New World
अक्टूबर क्रांति 1917 मानव इतिहास की महान घटना थी जिसने पूंजीवाद से समाजवाद की राह खोली। माकपा नेता प्रकाश कारात के इस लेख से जानें कैसे लेनिन के नेतृत्व में रूस ने नई दुनिया का संकेत दिया.......
इसी 7 नवंबर से रूस की अक्टूबर क्रांति का (जो पुराने रूसी कलैंडर के अनुसार 25 अक्टूबर को हुई थी) शताब्दी वर्ष शुरू हो गया है।1917 का अक्टूबर मानव इतिहास के एक नये युग के आगमन का सूचक है-पूंजीवाद से समाजवाद में संक्रमण का युग। यह दुनिया की ऐसी पहली क्रांति थी जो मेहनतकश जनता ने की थी और जिसका नेतृत्व मजदूर वर्ग कर रहा था।
इससे पहले, 18 तथा 19वीं सदी में जितनी भी क्रांतियां हुई थीं, सामंती राजशाहियों को उखाड़ फेंकने के लिए हुई पूंजीवादी क्रांतियां थीं। 1789 की फ्रांसीसी क्रांति, शास्त्रीय तरीके से पूंजीवादी जनतांत्रिक क्रांति थी।
1971 का पेरिस कम्यून, अक्टूबर क्रांति का ऐतिहासिक पूर्वज था।
यह सर्वहारा की इसकी पहली कोशिश थी कि सत्ता हाथ में ले और एक समाजवादी राज्य का गठन करे, हालांकि यह प्रयास अल्पजीवी साबित हुआ। एक छोटे से जीवन काल में सोवियत संघ ने अनेक ऐतिहासिक उपलब्धियां दर्ज करायी थीं, जो समाजवादी व्यवस्था की जबर्दस्त संभावनाओं को दिखाता है। उसने औद्योगिक तथा कृषि क्षेत्रों के विकास में लंबी छलांगें लगायी थीं। उसने निरक्षरता को मिटाया था और सार्वभौम शिक्षा तथा मुफ्त स्वास्थ्य रक्षा का इंतजाम किया था। उसने बेरोजगारी को खत्म किया था। उसने महिलाओं को सभी क्षेत्रों में बराबर के अधिकार दिए थे और समाजवाद की स्थापना के दो दशक के अंदर-अंदर जनता के भौतिक व सांस्कृतिक जीवन के स्तर को बहुत ऊपर उठाया था और गृहयुद्ध के चार विनाशकारी वर्षों के बावजूद ऐसा किया था।
सोवियत संघ में खड़ी की गयी शक्तिशाली समाजवादी व्यवस्था ही थी जिसने नाजी हमले का मुकाबला किया था और फासीवाद के खिलाफ संघर्ष में दुनिया की सबसे ताकतवर सैन्य मशीन को हराया था।
अगर सोवियत संघ फासीवादी हमलावरों के खिलाफ एक रक्षा दीवार बनकर खड़ा नहीं हुआ होता, तो दुनिया को बर्बरता की खाई में ही धकेल दिया गया होता।
अक्टूबर क्रांति ने और सोवियत संघ की मौजूदगी ने दुनिया भर में उपनिवेशवाद तथा साम्राज्यवाद के खिलाफ राष्ट्रीय मुक्ति संघर्षों को जबर्दस्त गति दी थी।
इस क्रांति के पांच दशक के अंदर-अंदर, दुनिया के अधिकांश हिस्से को प्रत्यक्ष सामराजी दासता से मुक्त कराया जा चुका था।
बहरहाल, 1991 में सोवियत संघ का पराभव होने से साम्राज्यवाद तथा पूंजीपति वर्ग को इसका मौका मिल गया कि अक्टूबर क्रांति की सारवस्तु को ही नकारने की कोशिश करें, उसके अर्थ को तोड़ें-मरोड़ें और समाजवाद की विशालकाय उपलब्धियों को मिटाने की कोशिश करें।
इसलिए, यह जरूरी हो जाता है कि अक्टूबर क्रांति की क्रांतिकारी अंतर्वस्तु और इतिहास में उसकी मुक्तिदायी भूमिका को जोर देकर रेखांकित किया जाए।
यह जरूरी है कि अक्टूबर क्रांति, सोवियत संघ तथा कम्युनिज्म के संबंध में प्रचारित किए जा रहे झूठ को बेनकाब किया जाए।
सोवियत संघ के विघटन के बाद गुजरे 25 वर्षों में ऐसा काफी इतिहास लेखन हुआ है, जो यह साबित करने की कोशिश करता है कि 1917 के अक्टूबर की घटना, कोई जन-क्रांति नहीं थी बल्कि यह तो एक तख्तापलट भर था।तख्तापलट से आशय हिंसक तरीके से सरकार के पलटे जाने से होता है, जिसमें यह अर्थ अंतर्निहित होता है कि यह षडयंत्रकारियों के एक गुट का काम है।
तख्तापलट अक्सर सेना के जनरलों या अफसरों द्वारा किया जाता है।
पश्चिमी विद्वानों की इन प्रस्तुतियों के हिसाब से, लेनिन षडयंत्रकारियों के एक गुट का नेता था और उन्हें सैनिकों के एक हिस्से का समर्थन हासिल था और उन्होंने हथियारों की ताकत के बल पर 25 अक्टूबर 1917 को अस्थायी सरकार को पलट दिया था।
तख्तापलट की इस कहानी से आगे बढक़र, रूस को लेकर संशोधनवादी इतिहास लेखन इसका बखान करने में लग जाता है कि किस तरह बोल्शेविकों ने, अपने विरोधियों को दबाने के लिए और कम्युनिस्ट पार्टी का तनाशाहीपूर्ण शासन कायम करने के लिए ‘लाल आतंक’ का राज कायम किया था!
इस तरह की विचारधारात्मक इंजीनियरिंग का दूसरा करिश्मा, सोवियत राज्य को ही एक ‘सर्वसत्तावादी’ राज्य घोषित करना है।
सर्वसत्तावादी की संज्ञा से ऐसी व्यवस्था का बोध होता है, जिसमें पूंजीवादी जनतंत्र के लिए कोई जगह ही नहीं हो। इस तरह, यह दावा किया जाता है कि सोवियत संघ वैसे ही सर्वसत्तावादी राज्य था, जैसे जर्मनी में नाजी राज था। इस तरह, कम्युनिज्म और फासीवाद को, सर्वसत्तावाद के ही दो चेहरे बना दिया जाता है। इस बेतुकी थीसिस को वास्तव में अब योरप तथा अमरीका में आम धारणा में ही तब्दील कर दिया गया है।
फासीवाद और कम्युनिज्म को साथ-साथ रखने की यह भोंडी कोशिश वास्तव में पिछले दो दशकों में सामने आए उस कम्युनिस्टविरोधी हमले से निकली है, जिसका मकसद साम्राज्यवादी-नवउदारवादी पूंजीवादी व्यवस्था की विचारधारात्मक श्रेष्ठïता साबित करना है। पूर्वी-योरप में कम्युनिस्टविरोधी दक्षिणपंथी सरकारों की स्थापना और पूर्व की ओर नाटो के बढ़ाव के साथ-साथ यह कम्युनिस्टविरोधी विचारधारात्मक मुहिम जारी रही है।
इसी उद्देश्य से योरपीय संसद ने 2 अप्रैल 2009 को एक प्रस्ताव स्वीकार किया था, जिसमें सर्वसत्तावादी अपराधों की निंदा की गयी थी और इसकी पुकार लगायी गयी थी कि, ‘‘कम्युनिज्म, नाजीवाद तथा फासीवाद को एक साझा विरासत’’ के रूप में पहचाना जाए।योरपीय सुरक्षा तथा सहयोग संगठन (ओएससीई) ने इसका अनुसरण किया और एक प्रस्ताव स्वीकार कर 23 अगस्त को ‘‘स्टालिनवाद तथा नाजीवाद के शिकारों के स्मरण’’ के दिन के रूप में मनाने का आह्वान किया।
इस क्रांतिकारी आंदोलन में मुख्य ताकत मजदूरों, किसानों तथा सैनिकों की थी, जो आबादी का प्रचंड बहुमत हो जाता है।
देश भर में सोवियतें उभरकर सामने आयी थीं।
इस झूठ को बेनकाब करने और उनके विचारधारात्मक मंतव्यों को बेनकाब करने की जरूरत है।
अक्टूबर क्रांति एक जन क्रांति थी।
सोवियत, निर्वाचित निकाय का नाम था और ये निकाय जनता के किसी खास वर्ग का प्रतिनिधित्व करते थे।
मजदूरों की, किसानों की और सैनिकों की अलग-अलग सोवियतें थीं।
1917 के अक्टूबर में रूस में 1429 सोवियतें थीं, जिनमें किसान प्रतिनिधियों की 455 सोवियतें भी शामिल थीं। सोवियतों की अखिल रूस कांग्रेस, 2 करोड़ 3 लाख लोगों का प्रतिनिधित्व करती थी, जिनमें से करीब 60 लाख मजदूर थे, 50 लाख किसान थे और 90 लाख सैनिक थे (जिनमें दो-तिहाई किसान या खेतिहर मजदूर थे)।
अक्टूबर क्रांति के समय तक पैट्रोग्राड तथा मास्को में मजदूरों की सोवियतों का भारी बहुमत बोल्शेविकों के साथ आ चुका था।
यही बात विभिन्न गैरीसनों में तथा युद्ध के मोर्चे पर तैनात सैनिकों की सोवियतों के बारे में भी सच थी। अक्टूबर तक बोल्शेविक पार्टी के सदस्यों की संख्या बढ़कर 3 लाख 50 हजार हो चुकी थी, जबकि फरवरी क्रांति के समय तक यह संख्या 75 हजार ही थी। सोवियतों की अखिल रूस कांग्रेस में बोल्शेविकों तथा उनका साथ दे रहे लैफ्ट-सोशलिस्ट रिवोल्यूशनरीज़ को, स्पष्ट बहुमत हासिल था।
क्रांतिकारी सत्ता हस्तांतरण वास्तव में सोवियतों ने ही किया था। इसे तख्तापलट कहना, ऐतिहासिक तथ्यों को झूठलाना है।
यह कुप्रचार इसीलिए किया जा रहा है कि साम्राज्यवाद तथा पूंजीपति वर्ग इस सचाई को स्वीकार ही नहीं कर सकते हैं कि मजदूर वर्ग की पार्टी, किसान जनता को भी अपने साथ गोलबंद कर सकती है और मजदूर-किसान गठबंधन का निर्माण कर सकती है, जो जनता के बहुमत का प्रतिनिधित्व करता है।
इसी प्रकार, एक और फासीवाद, जो पूंजीपति वर्ग के सबसे प्रतिक्रियावादी हलकों के बीच से निकली परिघटना है और दूसरी ओर कम्युनिज्म, जो मार्क्सवादी विचारधारा पर आधरित है तथा पूंजीपति वर्ग के प्रतिक्रियावादी हलकों को फूट आंखों नहीं सुहाता है, उनके बीच कोई समानता ही नहीं है।
वास्तव में फासीवाद का तो जन्म ही, अक्टूबर क्रांति के बाद के हालात में और दो विश्व युद्धों के बीच के दौर में पूंजीवादी व्यवस्था के गहरे संकट के बीच से हुआ था।
फासीवादी, चाहे हिटलर हो सा मुसोलनी, सभी कम्यूनिज्म को अपना जानी दुश्मन मानते थे।
इसलिए, फासीवाद और समाजवाद, दोनों को सर्वसत्तावादी कहना, वास्तव में उन नव-नाजी रुझानों को ही वैधता देने का बहाना है, जो पिछले दो दशकों में योरप में उभरकर आए हैं।
हम देख ही रहे हैं कि किस तरह योरप के सत्ताधारी वर्ग तथा नाटो द्वारा यूक्रेन में और लिथुआनिया व ईस्टोनिया जैसे बाल्टिक राज्यों में, घोर दक्षिणपंथी तथा नव-नाजी ताकतों को समर्थन दिया जा रहा है।
क्या फासीवाद और कम्युनिज्म एक हैं? (Are Fascism and Communism the same?)
फासीवाद और कम्युनिज्म को एक ही पलड़े में रखना, इतिहास और विवेक पर ही हमला करना है क्योंकि इस तरह नाजी निजाम को ध्वस्त करने में सोवियत संघ तथा सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा अदा की गयी बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका को और फासीवाद के खिलाफ लड़ते हुए अपने प्राणों की आहुति देने वाले ढाई करोड़ सोवियत नागरिकों तथा सैनिकों की जबर्दस्त कुर्बानियों को ही नकारने की कोशिश की जा रही होती है। यह उन दसियों हजार कम्युनिस्ट पार्टिजानों तथा लड़ाकों का भी अपमान करना है जिन्होंने फ्रांस में, इटली में, बाल्कान देशों में तथा ग्रीस में, नाजी कब्जे तथा फासीवादी निजामों के खिलाफ संघर्ष में केंद्रीय भूमिका अदा की थी।
अक्टूबर क्रांति, समाजवाद और कम्युनिज्म को बदनाम करने की इन सभी कोशिशों का विफल होना तय है।
विश्व पूंजीवादी व्यवस्था, जिस ढांचागत संकट में फंसी हुई है, उससे निकल पाने में असमर्थ है। वह अब तक उस लंबे संकट से उबरने की कोशिश ही कर रही है, जिसकी शुरूआत 2008 के वित्तीय महासंकट से हुई थी। योरप इस संकट के बीचौबीच फंसा हुआ है और वहां अपनाए गए भीषण कमखर्ची के कदमों ने बढ़ती असमानताओं, बेरोजगारी, रंगभेद तथा नस्लवाद की समस्याओं को और उग्र बनाने का ही काम किया है। दक्षिणपंथी नवउदारवादी नीतियों के खिलाफ जनांदोलनों तथा नयी राजनीतिक ताकतों का उदय हो रहा है।
साम्राज्यवादी विश्वीकरण तथा नवउदारवादी निजामों के खिलाफ दुनिया भर में जनांदोलन तथा संघर्ष सामने आ रहे हैं।
लातिनी अमरीका में एक ओर पिछले ड़ेढ़ दशक के दौरान अपने पांव जमाने में कामयाब रहे वामपंथ और दूसरी ओर साम्राज्यवाद द्वारा समर्थित दक्षिणपंथी ताकतों के जवाबी हमले के बीच, कड़ी लड़ाई जारी है।
भारत में वामपंथी तथा जनवादी ताकतें, नवउदारवादी नीतियों के खिलाफ और हिंदुत्ववादी सांप्रदायिक ताकतों के खिलाफ, जिनका प्रतिनिधित्व मोदी निजाम करता है, एक लंबी लड़ाई में लगी हुई हैं।
सारी दुनिया की इन ताकतों के लिए, जो साम्राज्यवाद, नवउदारवाद तथा विभाजनकारी संकीर्णतावादी ताकतों के खिलाफ संघर्ष में लगी हुई हैं, अक्टूबर क्रांति प्रेरणा का स्रोत बनी रहेगी।
अक्टूबर क्रांति की क्रांतिकारी विरासत की हिफाजत करना क्यों जरूरी है?
अक्टूबर क्रांति की क्रांतिकारी विरासत की हिफाजत करना जरूरी है। यह इसकी मांग करता है कि मार्क्सवाद-लेनिनवाद के क्रांतिकारी सिद्धांत के आधार पर, समाजवाद के लिए संघर्ष को आगे बढ़ाया जाए। 7 नवंबर 2016 से 7 नवंबर 2017 तक, अक्टूबर क्रांति के शताब्दी वर्ष का उपयोग, इस क्रांति के क्रांतिकारी संदेश का प्रचार करने और 21वीं सदी में भारत में समाजवाद की संकल्पना को सामने लाने के लिए किया जाना चाहिए। इस प्रयास में एक विनम्र योगदान तौर पर लोकलहर इस पूरे साल के दौरान लगातार लेखों व अन्य सामग्री का प्रकाशन करेगा, जिनसे इस अभियान में मदद मिलने की उम्मीद है।
0 प्रकाश कारात