अनशनकारी संत की मौत से फिर खुली 'सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों की पोल
अनशनकारी संत की मौत से फिर खुली 'सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों की पोल

Debating ideas
गंगा की रक्षा में जीवन अर्पित करने वाले संत: स्वामी निगमानंद
- मातृ सदन का संघर्ष: गंगा को खनन माफिया से बचाने की लड़ाई
- स्टोन क्रशर माफिया और सरकार की मिलीभगत
- 2008 और 2011 के आमरण अनशन की कहानी
- कोमा, ज़हर और लापरवाही: संत निगमानंद की मृत्यु के रहस्य
- हिमालयन अस्पताल में दो संत, दो नजरिए: रामदेव बनाम निगमानंद
- मीडिया और सत्ता की चुप्पी: एक संत की बलिदान की अनदेखी
- मुख्यमंत्री की प्राथमिकताएं: रामदेव की सुध, निगमानंद की उपेक्षा
- सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की सच्चाई पर सवाल
खनन माफिया, भ्रष्टाचार और गंगा की दुर्दशा
स्वामी निगमानंद ने गंगा की रक्षा के लिए प्राण त्याग दिए, पर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के झंडाबरदारों ने उन्हें अनदेखा कर सत्ता और स्वार्थ को प्राथमिकता दी...
हरिद्वार स्थित मातृ सदन के संत स्वामी निगमानंद (Saint Swami Nigamananda of Matri Sadan located in Haridwar) आखिर कार गंगा जी की रक्षा का संकल्प निभाते हुए इस दुनिया को अलविदा कह गए। मातृ सदन हरिद्वार स्थित संतों का वह आश्रम है जो समय -समय पर गंगा नदी की स्वच्छता व पवित्रता की खातिर तथा उसे प्रदूषण व पर्यावरण के दुष्प्रभावों से बचाने के लिए समय-समय पर संघर्ष करता रहता है। मातृ सदन से जुड़े संत मीडिया प्रचार,आर्थिक सहायता अथवा राजनैतिक सर्मथन के बिना ही गंगा जी की स्वच्छता एवं निर्मलता को बरकरार रखने के अभियान में लगे रहते हैं। यहां के संतों ने गंगा नदी में हो रहे अवैध खनन को रोकने का संकल्प लिया है। जो लोग गत दो तीन दशकों से हरिद्वार, ऋषिकेश तथा गंगा जी के आसपास के किनारे के क्षेत्रों से वाकिफ हैं वेभली भाती जानते होंगे कि कुछ समय पूर्व तक गंगा नदी के दोनों ओर स्टोनक्रेशर माफिया ने अपने अनगिनत क्रेशर लगा रखे थे। यह क्रेशर गंगा नदी में बह कर आने वाले तथा नदी के किनारे के पत्थरों को तोड़-पीस कर अपना व्यापार चला रहे थे। परिणामस्वरूप ऐसे सभी क्षेत्रों में हर समय आकाश में धूल मिट्टी उड़ा करती थी तथा अवैध खनन के कारण गंगा नदी भी अपने प्राकृतिक स्वरूप से अलग होने लगी थी। यह मातृ सदन के संतों के संघर्ष का ही परिणाम था कि उन्होंने अनशन,धरना तथा आमरण अनशन तक करके सरकार व न्यायालय का ध्यान बार-बार अपनी ओर आकर्षित किया। इसके परिणामस्वरूप तमाम स्टोन क्रेशर बन्द भी कर दिए गए।
परंतु कुछ सीनाज़ोर तथा ऊंची पहुंच रखने वाले क्रेशर मालिक भी अवैध खनन का अपना धंधा बलपूर्वक जारी रखे हुए थे। इन्हीं के्र शर्स को बंद कराने के लिए मातृ सदन के संत निगमानंद ने सन 2008 में आमरण अनशन किया था। 73 दिनों के इस आमरण अनशन के कारण वे उस समय भी कोमा में चले गए थे। उसी समय से उनका शरीर काफी कमज़ोर हो गया था तथा शरीर के कई भीतरी प्रमुख अंगों ने काम करना या तो बंद कर दिया था या कम कर दिया था। परंतु मानसिक रूप से वे चेतन दिखाई देते थे। अपनी इस अस्वस्थता के बावजूद गंगा रक्षा अभियान का उनका संकल्प बिल्कुल पु$ ता था। और 2008 के अनशन के बाद भी जब गंगा जी को प्रदूषित करने व क्षति पहुंचाने वाले कई क्रेशर बंद नहीं हुए तो १९ फरवरी 2011 से वे अपनी अस्वस्थता के बावजूद पुन: अनशन पर बैठ गए। उनके जीवन का यह अंतिम गंगा बचाओ आमरण अनशन गत् 27 अप्रैल को उस समय समाप्त कराया गया जबकि उत्तराखंड राज्य की पुलिस ने उन्हें गिर$ तार कर लिया। अनशन के 68वें दिन हुई संत निगमानंद की इस गिरफ्तारी का कारण राज्य सरकार द्वारा उनकी जान व स्वास्थय की रक्षा करना बताया गया। और उन्हें स्वास्थय लाभ के लिए सर्वप्रथम हरिद्वार के जि़ला अस्पताल में भर्ती कराया गया। जब यहां भी उनका स्वास्थय नहीं सुधरा तब उन्हें देहरादून के जौली ग्रांट स्थित हिमालयन इंस्टिच्यूट हॉस्पिटल में भर्ती करा दिया गया। यहां वे 2 मई 2011 से पुन: कोमा में चले गए। इसी के साथ-साथ उनकी चेतना भी जाती रही।
अस्पताल द्वारा उनके स्वास्थय के संबंध में 4 मई को जारी की गई एक रिपोर्ट में डॉक्टर्स द्वारा इस बात का भी $खुलासा किया गया कि उनके शरीर में कुछ ज़हरीले पदार्थ पाए गए हैं। इस रिपोर्ट के बाद मातृ सदन के संतों व उनके समर्थकों को इस बात का संदेह होने लगा कि संत निगमानंद जैसे आमरण अनशनकारी को ज़हर देकर मारने का प्रयास किया जा रहा है। और आखिरकार आमरण अनशन के कारण शरीर में आई अभूतपूर्व कमज़ोरी,चेतन अवस्था का चला जाना तथा शरीर में ज़हरीले पदार्थों का पाया जाना जैसे सिलसिलेवार घटनाक्रमों ने इस महान एवं समर्पित संत को गत् 13 जून को हमसे छीन लिया। यह भी एक अजीब इतिफाक है कि संत निगमानंद का निधन जिस हिमालयन इंस्टिच्यूट हॉस्पिटल देहरादून में हुआ उसी अस्पताल में तथाकथित योग गुरु बाबा रामदेव भी अपने विवादित अनशन के परिणामस्वरूप आई कमज़ोरी के चलते भर्ती थे। रामदेव के उसी अस्पताल में भर्ती रहने के दौरान वहां तथाकथित सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों का तांता लगा हुआ था। टी वी चैनल्स पर अपनी आभा बिखेरने के शौकीन कई संत तथा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, रामसेतु, गऊ व गंगा बचाओ जैसे आंदोलनों में अग्रणी भूमिका निभाने वाली भारतीय जनता पार्टी के तमाम नेता भी अपने वोट साधने के उद्देश्य से बाबा रामदेव के आगे-पीछे होते दिखाई दे रहे थे। इनमें से कोई भी साधु-संत, कोई भी भाजपाई नेता अथवा उत्तराखंड सरकार का कोई भी प्रतिनिधि संत निगमानंद से मिलने व उन्हें देखने की तकलीफ उठाना नहीं चाह रहा था। संतों या नेताओं से क्या शिकवा किया जाए उन्हें देखने व उनकी आवाज़ को बुलंद करने के लिए तो वह मीडिया भी नहीं पहुंचा जोकि उसी अस्पताल के बाहर 24 घंटे डेरा डाले हुए था तथा बाबा रामदेव की सांसें व उनके पल्स रेट गिन रहा था। कुछ लोगों का तो यह भी आरोप है कि हिमालयन हॉस्पिटल में बाबा रामदेव जैसे वीआईपी एवं पांच सितारा अनशनकारी के भर्ती होने की वजह से ही पूरे अस्पताल का ध्यान रामदेव के स्वास्थय की देखभाल की ओर चला गया तथा इसी कारण तीमारदारी की अवहेलना का शिकार निगमानंद ने दम तोड़ दिया। उस अस्पताल में भर्ती और भी कई मरीज़ों व उनके परिजनों ने इस बात की शिकायत की कि रामदेव के वहां भर्ती होने के कारण उनके मरीज़ों की देखभाल ठीक ढंग से नहीं हो पा रही थी।
संत निगमानंद जैसे समर्पित, त्यागी तथा वास्तविक संत की मौत ने एक बार फिर कई प्रकार के प्रश्रों को जन्म दे दिया है। पहला सवाल तो यह कि हमारे देश में धर्म रक्षा,गऊ रक्षा, गंगा रक्षा तथा भारतीय राष्ट्रीय संस्कृति की रक्षा करने का दावा करने वाला एक विशेष संगठन तथा राजनैतिक दल जोकि स्वयं को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का सबसे बड़ा प्रहरी बताता है आखिर उसके सदस्यों व प्रतिनिधियों ने गंगा रक्षा का संकल्प लेते हुए स्वयं इस प्रकार के आंदोलन क्यों नहीं किए? दूसरा प्रश्र यह है कि उत्तराखंड में सत्तारुढ़ भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने गंगा की तथा पर्यावरण की रक्षा के निहित संतों की मांग को मानते हुए तत्काल उन स्टोन क्रेशर तथा खदानों में हो रहे अवैध खनन को बंद क्यों नहीं कराया? और इन सबसे प्रमुख बात यह कि राज्य के मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल बाबा रामदेव से मिलने जिस समय हिमालयन हॉस्पिटल पहुंचे उस समय भी संत निगमानंद उसी अस्पताल में भर्ती थे तथा अपनी जिन्दगी की आखिरी सांसें गिन रहे थे। पोखरियाल ने रामदेव से तो मुलाकात की परंतु उसी अस्पताल में भर्ती संत निगमानंद की उन्होंने कोई खबर ही नहीं ली। बात यहीं खत्म हो जाती तो भी गऩीमत था। परंतु मुख्य मंत्री निशंक ने बाबा रामदेव से मिलने के बाद उनके स्वास्थय को लेकर एक झूठा बवंडर खड़ा करने की कोशिश की। उन्होंने यह तक कह डाला कि स्वामी रामदेव किसी भी समय कोमा में भी जा सकते हैं। उनका रक्तचाप भी बहुत अधिक ऊपर व बहुत अधिक नीचे जा रहा है। जबकि रामदेव की सेहत पर पल-पल नज़र रखने वाले डॉक्टर्स ने साफ कर दिया था कि रामदेव के कोमा में जाने जैसी कोई समस्या नहीं है।
कितने आश्चर्य की बात है कि गंगाजी की रक्षा का संकल्प लिए हुए जो संत उसी अस्पताल में कोमा में जा चुका है तथा अचेत अवस्था में अपनी जिन्दगी की आख़िरी साँसे ले रहा है उस संत के स्वास्थय,उसके कोमा में जाने तथा उसके आमरण अनशन के कारणों की तो मुख्य मंत्री निशंक को इतनी भी परवाह व जानकारी नहीं कि वह उससे मिलने के लिए अपना एक क्षण का बहुमूल्य समय निकाल सक ते परंतु स्वयं रामदेव के कथन के अनुसार देश की 121 करोड़ जनता उनके साथ हो तथा उनकी सुध लेने वाला पूरा देश पड़ा हो ऐसे राजनैतिक संत से मिलने के लिए तो मुख्य मंत्री हिमालयन अस्पताल तक जा पहुंचे परंतु जो संत वास्तव में भारतीय संस्कृति का प्रतीक समझी जाने वाली पवित्र गंगा जी की रक्षा के संकल्प को लेकर अपनी जान की बाज़ी लगाए बैठा है उससे मिलने का उनके पास कोई समय नहीं? आखिर यह कैसा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और साधु-संतों की प्रतिष्ठा,मान-मर्यादा व उनकी गरिमा की रक्षा की यह कैसी बातें?
हां इस तस्वीर का दूसरा पहलू यह भी बताया जा रहा है कि उत्तराखंड का खनन माफिया प्रदेश की निशंक सरकार के साथ अपनी खुली सांठगांठ रखता है। बताया जा रहा है कि इस सांठगांठ के पीछे का कारण महज़ भ्रष्टाचार तथा मोटी रिश्वत है। और इसी भ्रष्टाचार के चलते सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, गंगा रक्षा,साधु संत सम्मान जैसे ढकोसलों और यहां तक कि गंगा जी को बचाने के लिए दी गई एक त्यागी संत की जान की कुर्बानी तक की अनदेखी कर दी गई। अब तो यह आम लोगों को ही सोचना होगा कि तथाकथित सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों का वास्तविक चेहरा क्या है और अपनी राजनैतिक ज़रूरतों के अनुसार जनता को बरगलाने के लिए समय-समय पर यह कैसा रूप धारण करते हैं।
निर्मल रानी
लेखिका स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
मूलतः 16 जून 2011 को प्रकाशित


