यह लेख न केवल विचारोत्तेजक है बल्कि भारतीय राजनीति, समाज और विकास मॉडल पर बेहद गहरी दृष्टि भी प्रस्तुत करता है। पलाश विश्वास जी की शैली हमेशा की तरह तीखी, सवाल खड़ी करने वाली और बदलाव की मांग करने वाली है...

गुमशुदा जिंदगी के लापता इंतकाल से ही तरक्की की तारीख लिखी जाती है

बस, बहुत हो चुका! वक्त आ गया कि रंगबिरंगे झंडावरदार सत्ता के सौदागरों की गुलामी से आजाद बेखौफ बदलाव का रास्ता चुन लिया जाये अपने वजूद की बहाली के लिए!

पलाश विश्वास

हमने फिलहाल अंग्रेजी में लिखा है कि धारा 370 संवैधानिक बाध्यता और कश्मीर की जमीनी हकीकत से ज्यादा हिमालयी जनता और प्रकृति के संरक्षण के संदर्भ में प्रासंगिक है, क्योंकि हिमालय, मध्य भारत, पूर्वोत्तर और बाकी देश में संवैधानिक सुरक्षा कवच और प्रावधान लागू हैं ही नहीं। अगर धारा 370 कश्मीर की तरह बाकी हिमालय में भी लागू होता तो पहाड़ों में बिल्डर प्रोमोटर माफिया राज की नौबत नहीं आती और न ही प्राकृतिक आपदाएं इतनी घनघोर होतीं। हजारों लापता गांव और घाटियां, नदियां, पर्वत शिखर सुरक्षित होते।

यह बेहद प्रासंगिक मसला है। इस पर दस्तावेज समेत सिलसिलेवार हम चर्चा करेंगे। फिलहाल बाकी पहाड़ में भी धारा 370 जैसे संरक्षक प्रावधान लागू करने की मांग के अलावा धारा 370 की चर्चा नहीं करेंगे। लेकिन नस्ली अस्पृश्यता की तरह भौगोलिक अस्पृश्यता भी धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद का कॉरपोरेट फ्री कूपन है, इसे फिलहाल समझ लें।

इस मुद्दे पर विस्तार से आने से पहले कुछ बेहद जरूरी बातें हो जानी चाहिएं।

आर्थिक मुद्दों पर केंद्र में सरकार बदल जाने के बाद अभी हाथ कंगन तो आरसी क्या हालात बने नहीं हैं। आर्थिक एजेंडा पर आर्थिक अखबारों और चैनलों के जरिये, शेयरबाजारी उछलकूद और विदेशी निवेशकों, रेटिंग एजंसियों के मार्फत जो अभूतपूर्व अंतरराष्ट्रीय कॉरपोरेट लाबिइंग हो रही है, जिसके तहत स्वयंभू देशभक्तों की एकमात्र पार्टी ने नवउदारवाद की पहली बहुमती सरकार के जरिये वित्त प्रतिरक्षा एकाकार करके रामराज का जो ट्रेलर रक्षा क्षेत्र में सौ फीसद प्रत्यक्ष निवेश को हरी झंडी देकर और लंबित सारी कॉरपोरेट जनप्रकृति विध्वसंक परियोजनाओं की मंजूरी प्रक्रिया शुरू करके दिखाया है।

बजट में सब्सिडी, आधार योजना, कर प्रणाली, भुगतान संतुलन, वित्तीय घाटा, उत्पादन व्यवस्था, प्रोमोटर बिल्डर वर्चस्व की अधिसंरचना, ऊर्जा और आवश्यक सेवाओं के हाल हवाल देखकर ही सिलसिलेवार लिखना होगा। लेकिन धारा 370 के सिलसिले में एक सूत्र अभी से खोलना है।

गुजरात मॉडल अब राष्ट्र का सलवा जुड़ुम एजेंडा है। लेकिन तमिलनाडु के विकास मॉडल (Tamil Nadu's development model) पर अमूमन चर्चा नहीं होती जहां लोगों को मुफ्त 20 केजी चावल मिलता है हर महीने तो बाजार में चावल बीस रुपये किलो है और राशन में दो रूपये किलो।

कोयंबटुर में बेंगलुरू की तरह सिलिकन वैली है। खेती और देहात को आंच आयी नहीं है और सड़कें सचमुच नायिका गाल समान हैं। औद्योगिक विकास भी खूब हुआ है, लेकिन अंधाधुंध शहरीकरण हुआ नहीं है।

पूंजी के बजाय अब भी तमिलनाडु की बड़ी प्राथमिकता कृष्णा, कावेरी से सिंचाई का पानी है। लेकिन खेती और किसानों के वजूद के साथ समूचे देहात को उसके रंग रूप गंध के साथ रखकर औद्योगिक विकास की दौड़ में बने रहने की इस देशज द्रविड़ दक्षता पर आर्यावर्त में चर्चा नहीं हुई है अभी तक। इस पर चर्चा मुक्त बाजारी अर्थव्यवस्था में अपने अपने वजूद के लिए बेहद जरूरी है।

तमिलनाडु भी कश्मीर की तरह बाकी भारतीय जनता के लिए पहेली है

कश्मीर में लोग हिंदी नहीं समझते और उनसे संवाद या उर्दू या अंग्रेजी में ही संभव है। तो अलगाव का पूरा जोखिम उठाते हुए तमिलनाडु तमिल के अलावा किसी और भाषा में संवाद नहीं करना जानता।

विश्व भर में भाषाई राष्ट्रीयता के नाम पर राष्ट्र कोई है तो बांग्लादेश, जहां मातृभाषा सर्वोच्च है, लेकिन वहां भी बांग्ला सर्वक्षेत्रे अनिवार्य होने के बावजूद दूसरी भाषाओं के लिए जगह है। इसी स्पेस से वहां भी पूरे महादेश की तरह मुक्त बाजार का बोलबाला है, अबाध विदेशी पूंजी निरंकुश है।

तमिलनाडु में किसी दूसरी भाषा के लिए कोई जगह है नहीं। इस मामले में वे बांग्लादेश से भी दो कदम आगे हैं।

पूंजी का नंगा नाच शायद इसीलिए तमिलनाडु में संभव नहीं है क्योंकि वहां लोक का बोलबाला है और सांस्कृतिक अवक्षय हुआ नहीं है। अगाध मातृभाषा प्रेम ने उनकी सांस्कृतिक जमीन अटूट रख दी है, जो संजोग से मनुस्मृति अनुशासन के मुताबिक भी नहीं है। संस्कृति अटूट होने की वजह से समाज जीवन में नैतिकता और मूल्यबोध अब भी प्रबल है। इसलिए बेशकीमती सामान होने के बावजूद तमिलनाडु में लोग घरों को तालाबंद रखना जरूरी नहीं समझते और वहां स्त्रियां और बच्चे भी देर रात लाखों के गहने पहनकर घर से बाहर सुरक्षित हैं।

लोग हिंदी प्रदेशों में हिंदी अवश्य सीख जाते हैं, तो बंगाल आकर कोई बांग्ला न सीखें, तो अजूबा। हम लोग तमिल सीख लें, उनके हिंदी न सीखने की जिद के बावजूद तो उनके विकास की पहेली गुजराती मॉडल अपनाने से पहले बूझने में आसानी रहेगी।

तमिल राष्ट्रीयता (Tamil nationality) से अगर हमें परहेज नहीं है, अगर हमें तेलंगाना की राष्ट्रीयता से भी परहेज नहीं है तो आदिवासी अस्मिता, मंगोलियाड उत्तर पूर्वी लोग और समूचे हिमालय के लोग मय कश्मार हमारे लिए इतने अस्पृश्य क्यों है, धारा 370 पर फतवा जारी करने से पहले संविधान सभा को बहाल करें या नहीं, इन मुद्दों पर गौर करना जरूरी है, बाकी भारत में समता और सामाजिक न्याय के साथ कानून के राज और लोकतंत्र के लिए भी।

इसी सिलसिले में लगे हाथ बता दें कि राजनीतिक चेतना प्रबल होने से ही बदलाव नहीं हो सकते, जब तक हम समाज वास्तव को संबोधित नहीं करते।

मसलन, बंगाल में राजनीतिक चेतना अत्यंत प्रखर है और यहां पूरा का पूरा ध्रुवीकरण राजनीतिक है। 1967 से लेकर 1971 की अल्पावधि को छोड़ दें तो राजनीतिक अस्थिरता का शिकार कम से कम बंगाल कभी नहीं रहा। 1967 से 1971 के मध्यांतर को छोड़कर 1947 से 1977 तक बंगाल पर कांग्रेसी सिंडिकेटी राज रहा तो 1977 से 2011 तक वामदलों का।

अब दीदी का राजकाज भी जल्द खत्म होने को नहीं है।

लेकिन बंगाल का कोई विकास हुआ ही नहीं है।

अव्वल नंबरी होने के दीदी के दावे के बावजूद बंगाल में न खेती का विकास हुआ है और न उद्योगों का। न कारोबार का।

सबसे ज्यादा बेरोजगार देश भर में बंगाल में हैं।

सबसे ज्यादा बारहमासा राजनीतिक सक्रियता, मारामारी, वर्चस्व की खूनी लड़ाई बंगाल में है। 1911 में देश भर में बंगाल में सबसे पहले अस्पृश्यता निषेध कानून बन जाने के बावजूद बंगाल में अस्पृश्य कर्मकांड जस के तस हैं प्रगतिशील कायाकल्प के साथ। अस्पृश्यता का सबसे बड़ा उत्सव बंगाल में दुर्गोत्सव है जब वहां कर्मकांड में गैरब्राह्मणों की कोई भागेदारी निषिद्ध है।

मातृतांत्रिक न होते हुए, बंगाल के पारिवारिक सामाजिक जीवन में माता का स्थान बंगाल के शूद्र इतिहास की तरह शाश्वत भाव है और इसी बंगाल में स्त्री उत्पीड़न देश भर में सबसे ज्यादा है।

सत्ता बदलू परिवर्तन से समाज वास्तव के इंद्रधनुष जहां के तहां टंगे हैं और उसके रंगों में कोई फेरबदल नहीं है।

अब बंगाल में माकपा महासचिव की मौजूदगी में थोक भाव से वाम नेता कार्यकर्ता एक सुर से नेतृत्व परिवर्तन की मांग कर रहे हैं और जाति वर्चस्व तोड़कर सभी समुदायों को नेतृत्व में स्थान देने की मांग कर रहे हैं। उनकी मांग है कि नेता बदलो, वामपंथ बचाओ।

नेताओं का ऐसा कोई नेक इरादा नहीं है, बिना किसी संगठनात्मक फेरबदल के माकपा महासचिव कामरेड प्रकाश कारत अब भी विचारधारा बघार रहे हैं और बिना राज्य नेतृत्व को बदले बंगाल में वामपंथ को मजबूत बनाने की गुहार लगा रहे हैं।

बंगाल के वामपंथी तो फिर भी मुखर हैं, बाकी देश के वामपंथियों को वाम आंदोलन की परवाह नहीं है क्या?

फिर उन बहुजन मसीहा संप्रदाय के अनुयायी नीले झंडे के सिपाहियों की आवाजें क्यों सिरे से गायब हैं जो बहुजन आंदोलन के हाशिये पर चले जाने से अपने नेताओं को बदलने की मांग तक नहीं कर सकते, इतने गुलाम हैं?

बाकी रंग बरंगे झंडेवरदार अस्मिता नायकों नायिकाओं के अनुयायी भेड़ धंसान में भी यथावत खामोश है। क्यों?

बस, बहुत हो चुका! वक्त आ गया कि रंगबिरंगे झंडावरदार सत्ता के सौदागरों की गुलामी से आजाद बेखौफ बदलाव का रास्ता चुन लिया जाये अपने वजूद की बहाली के लिए!

हमारे बहुजन मित्र अशोक दुसाध ने क्या खूब लिखा है -

हम लोग गर्व बहुत करते हैं पता नहीं क्यों -

भारतीय होने पर गर्व है

हिंदू होने पर गर्व है

बाबा साहब पर गर्व है

महात्मा फुले पर गर्व है

शाहूजी महाराज पर गर्व है

सरदार पटेल पर गर्व है

पता नहीं किस-किस पर गर्व है

ऐसा लगता है हमें गर्व करने के सिवा कोई काम नहीं !

अबकी बार सब गर्व को संघियों ने मुरब्बा बनाकर अपने पास रख लिया है। अब पाँच साल तक गर्व करने के लिये तरसते रहिये !

हालात किस कदर संगीन हैं, लेखिका अनीता भारती के फेसबुक दीवार पर टोह लगा सकते हैं। उनका ताजा मंतव्य है-

मैं दुबारा हालत जानने के लिए जगदीश को फोन करती हूँ वह दुखी स्वर में कहता है कि "पुलिस वाले हमें तंग कर रहे हैं" पीछे से भगाणा की महिलाओं की पुलिस से टकराने की और लड़ने आवाजें आ रही है। यह कौन सा समय है भाई?

दिनेश कुमार ने खबर ब्रेक कर दी है-

साथियो ! खबर मिली है कि अभी दो मिनट पहले ही दिल्ली पुलिस ने जंतर पर न्याय की लड़ाई लड़ रहे भगाना के साथियों का टेंट उखाड़ दिया है। उन्हें वहां से खदेड़ा जा रहा है।

युवा कवि नित्यानंद गायेन के इस मंतव्य पर भी गौर फरमायें-

मेरे देश का यारों क्या कहना .........

बीरभूम : गैंगरेप पर पंचायत ने आरोपियों को एक-एक घड़ा शराब देने की सजा सुनाई।

गौरतलब है कि रोजाना बंगाल में शासकीय संरक्षण में बलात्कार आम है। कभी-कभार राजनीति कामदुनि को मशहूर कर देती है।

फर्क यह भी है कि अब वाया भगाना यूपी के बलात्कार स्त्री उत्पीड़न पर राष्ट्रीय फोकस है। बलात्कार के खिलाफ जितना, उससे कहीं ज्यादा यूपी में अखिलेश का तख्ता पलट कर भगवा सत्ता स्थापित करने की गरज से। इसके विपरीत बंगाल में चूं तक करने की हिम्मत नहीं हो रही है किसी की।

अंधाधुंध विकास का आलम यह है कि जिस नई दिल्ली में सन् 1974 में अपने पिता के साथ चांदनी चौक फव्वारा के एक धर्मशाला से पैदल ही नई दिल्ली के अति महत्वपूर्ण साउथ ब्लाक और प्रधानमंत्री कार्यालय से लेकर राजघाट से कुतुब मीनार तक सड़कें पैदल नाप दीं, जिस दिल्ली में सन् 1980 में भी मंडी हाउस का कार्यक्रम देखकर बेखटके पैदल देर रात जेएनयू के पूर्वांचल हास्टल चले जाते थे, उस दिल्ली में सड़कों पर चलने वाले पैदल लोग और कतारबद्ध साइकिलें सिरे से गायब हैं। सड़कें अति महत्वपूर्ण लोगों के लिए भी मौत का फंदा बन गयी हैं।

दिल्ली में हर रोज सड़क दुर्घटनाएं आम है और सड़क सुरक्षा सिरे से लापता है, लेकिन इस तरफ शायद ही किसी का ध्यान जाता हो।

महाराष्ट्र के महाबलि नेता गोपीनाथ मुंडे की सड़क दुर्घटना से असामयिक मौत अपूरणीय क्षति है ही, खासतौर पर जबकि वे पिछड़े वर्ग की आवाज बने हुए थे दशकों से, लेकिन इस हादसे ने आंख में उंगली डालकर दिखा दिया है कि कैसे विकास के बारुदी सुरंगों में उत्तर आधुनिक जीवन यापन है यह।

राजधानी से बाहर निकलें तो दिल्ली आगरा एक्सप्रेस वे पर भट्टा परसौल गांव की अब कहीं कोई खबर नहीं बनतीं।

नये कोलकाता, नौएडा, द्वारका और नवी मुंबई के सीने में दफन देहात की धड़कनें यकीनन सुनी नहीं जा सकतीं। पर किसी भी स्वर्णिम राजपथ के आर पार बसे किसी गांव से देखें तो तेज रफ्तार से दौड़ती नई दिल्ली देश के हर हिस्से में आज देहात को कब्रिस्तान बनाकर खून की नदियां बहा रही हैं।

कार्यस्थल आते जाते हुए हमें रोजाना जान हथेली में लेकर नेशनल हाईवे नंबर दो और छह से होकर गुजरना होता है। रफ्तार और निर्मम ओवरटेकिंग, आर- पार निकलने के बंदोबस्त होने के अभाव में रोजाना लोग सड़क हादसे मारे जाते हैं। बड़ी संख्या में विज्ञापित ब्रांडेड मोटर साईकिलें मौत का फरिश्ता बन कर खून बहाती रहती हैं। हमारे जैसे आम लोगों की मौत सुर्खियां नहीं बनतीं और न लाइव कवरेज की गुंजाइश है। गुमशुदा जिंदगी के लापता इंतकाल से ही तरक्की की तारीख लिखी जाती है।

बस, बहुत हो चुका! वक्त आ गया कि रंगबिरंगे झंडावरदार सत्ता के सौदागरों की गुलामी से आजाद बेखौफ बदलाव का रास्ता चुन लिया जाये अपने वजूद की बहाली के लिए!

पलाश विश्वास। लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं । आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के लोकप्रिय ब्लॉगर हैं। “अमेरिका से सावधान “उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकाना। पलाश जी हस्तक्षेप के सम्मानित स्तंभकार हैं।