युद्ध बनाम आतंकवाद: कैसे हथियारों का कारोबार तय करता है वैश्विक राजनीति का रुख?
युद्ध और आतंकवाद के बीच अंतर क्या है? कैसे हथियारों का वैश्विक कारोबार इन दोनों को जोड़ता है? पढ़ें रुबीना मुर्तजा का विश्लेषणात्मक लेख।

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युद्ध और आतंकवाद: बुनियादी फर्क क्या है?
- कैसे दोनों का उद्देश्य पूरा करता है हथियारों का कारोबार?
- अफगान युद्ध से लेकर ISIS तक – आतंकवाद की कहानी
- क्या आतंकवाद धार्मिक है या राजनीतिक चाल?
- आतंकियों को कैसे मिलते हैं हथियार ?
- युद्ध और आतंकवाद के बीच की सबसे बड़ी समानता
- इस खूनी खेल का कौन है असली लाभार्थी?
युद्ध और आतंकवाद के बीच अंतर क्या है? कैसे हथियारों का वैश्विक कारोबार इन दोनों को जोड़ता है? पढ़ें रुबीना मुर्तजा का विश्लेषणात्मक लेख।
युद्ध और आतंकवाद : हथियारों का कारोबार!
रुबीना मुर्तजा
युद्ध और आतंकवाद क्या हैं और दोनों में क्या अंतर है ?
युद्ध आमतौर पर दो या दो से अधिक देशों के मध्य लड़ा जाता है। युद्ध के भी कुछ नियम और कानून होते हैं, यद्यपि इसे पसंद ना किया जाए परंतु यह वैध माना जाता है। आतंकवाद बुनियाद में अपनी ताकत द्वारा किसी दूसरे के मानव अधिकार को कुचलना को कहते हैं, आतंक का दायरा आतंकवादी की ताकत पर निर्भर करता है, आतंक के कोई नियम और कानून नहीं होते यह पूर्णतः अवैध होता है। यानी आतंक और युद्ध दोनों एक दूसरे से बिल्कुल मुख्तलिफ हैं, परंतु इस आधुनिक परिवेश में दोनों एक दूसरे से मुख्तलिफ होते हुए भी एक दूसरे के बहुत पास हैं और वह वजह है हथियार!
युद्ध और आतंकवाद के बीच कॉमन क्या है?
आज हम देखते हैं कि युद्ध और आतंकवाद दोनों ही अपने- अपने लक्ष्य को पूरा करने के लिए हथियारों का प्रयोग करते हैं। जी हां हथियारों का व्यवसाय ही वह वजह है जो दोनों को एक दूसरे के पास ले आती है। इस दुनिया में ऐसा नहीं है कि आतंकवादियों के लिए हथियार कोई और बनाता है और युद्ध के हथियार कोई और बनाता है। हथियार का कारोबार चलता रहे इसके लिए जरूरी है कि युद्ध होते रहे और युद्ध होने के लिए जरूरी है एक वजह का होना जिसकी बिना के ऊपर युद्ध हों, और युद्ध के लिए आतंकवाद से बड़ी वजह और क्या हो सकती है?
आतंकवाद पर बड़ी-बड़ी बातें की जाती हैं, आतंकवाद को किसी एक धर्म से भी जोड़ दिया जाता है और इस आधार पर दिल खोल के लोग एक दूसरे से नफरत करते हैं, सच्ची-झूठी अफवाहें फैलाते हैं और अपने-अपने राजनीतिक लक्ष्य साधने की कोशिश करते हैं, परंतु किसी ने भी आतंकवाद क्या है? यह कैसे फैलता है ? इसको जानने और समझने, पढ़ने और मालूम करने की कोशिश नहीं की। यह कोशिश इसलिए नहीं की गई क्योंकि जो सामने आया और अपने मतलब का लगा तो फिर उसी को सच मान लेना ही जरूरी समझा गया।
आतंकवाद पर साहित्य
ऐसा नहीं है कि आतंकवाद पर कोई लिटरेचर मौजूद नहीं है, इस्लामिक स्टेट नाम की टेरेरिस्ट ऑर्गेनाइजेशन वजूद में आयी और फिर इसके बाद मुसलमान के साथ टेररिज्म को जोड़ा गया। इसके बारे में कई बीबीसी के कॉरेस्पोंडेंस और दूसरे लोगों ने कई किताबें लिखी हैं। आतंकवाद पर बात करने वालों और इस पर अपनी प्रतिक्रिया देने वालों के लिए जरूरी है कि वह इन किताबों का अध्ययन भी करें ताकि आज विश्व स्तर पर जो आतंकवाद है इस को पहचानने में मदद हासिल हो।
अफगान युद्ध से पहले ना किसी ने इस्लामोफोबिया का नाम सुना था और ना ही आतंकवाद को धर्म से जोड़ा जाता था। कभी लोगों का दिमाग यह बात नहीं सोचता कि इस्लामिक स्टेट की बात आखिर कहां से आई, जब कि इस दुनिया में बहुत सारे देश ऐसे हैं जो खुद को मुस्लिम या इस्लामिक देश कहते हैं? और इस्लामोफोबिया नाम का शब्द कैसे और कहां से प्रकट हुआ?
आतंकी कैसे तैयार किए जाते हैं ?
1979 से 1989 के बीच सोवियत अफगान युद्ध हुआ। जिसमें अफ़ग़ानियों की मदद अमेरिका ने की। सरकार को अपनी फौजें वापस बुलानी पड़ीं। इस युद्ध की जीत का सेहरा अमेरिका ने जिस व्यक्ति के सर बांधा उसका नाम था ओसामा बिन लादेन, जो कि एक अरबी नेशनलिस्ट था। लेकिन ओसामा बिन लादेन भी कम सरफिरा न था। उसे इनाम के बदले अमेरिका की कठपुतली बनना गवारा करना तो दूर उसने उलटा अमेरिका को कह दिया कि वह अरब से दूर हो जाये। ओसामा का यह तरीका सऊदी बादशाहों को भी नागवार गुज़रा कयोंकि वह अमरीका के विरुद्ध नहीं जा सकते थे नतीजा ये हुआ कि ओसामा बिन लादेन जिसको अभी तक न सिर्फ युद्ध जीतने का श्रंय और ईनाम दिया जा रहा था, अब उसे अरब से निकाल बाहर किया गया। ओसामा कई वर्ष से युद्ध लड़ रहा था वह बहुत चालाक और युद्ध नीति में निपुण हो चुका था। उसने अल कायदा नाम से एक संगठन बनाया। वह अमरीका को अपना दुश्मन मानता था और उसका संगठन अमरीकी सैनिकों व दसतों को अपना निशाना बनाने लगा। वह अपने लोगों से कहता था क्योंकि सऊदी अरब इस्लामिक स्टेट है इसलिए अमरीका के किसी सैनिक को यहाँ के कामों से कोई मतलब नहीं होना चाहिए। उसके लोग उसकी बात से सहमत थे क्योंकि इसी विचार के तहत ही इन लोगो ने सोवियत संघ से युद्ध लड़ा था और अमरीका ने ख़ुद इसमें इनका साथ दिया था।
लेकिन तस्वीर का दूसरा रुख़ भी कम हैरान करने वाला नहीं है, शायद अफगान युद्ध के समय से ही अमरीकी कूटनीतिज्ञों ने ओसामा के इरादे भाप लिए और एक प्लान बी की तैयारी कर ली। या अगर, ऐसा भी हुआ हो कि उस वक्त यह प्लान बी ना भी रहा हो तो आगे चलकर यह प्लान बी ही साबित हुआ और इस बात का जानना इस लिए भी जरूरी है कि हम को यह जानने में भी मदद मिले कि आतंकी किस तरह तैयार किए जाते हैं।
जिस समय अफगान युद्ध चल रहा था उस समय एक व्यक्ति जॉर्डन की एक जेल में सजा काट रहा था। सजा काट रहा था, का मतलब साफ है कि वह व्यक्ति एक मुजरिम था। उसका पिता एक सीधा साधा आदमी था, वह एक मौलवी था परंतु इस व्यक्ति का धर्म से कोई नाता न था। इस व्यक्ति के शरीर भर पर बहुत सारे टैटू थे जिसकी वजह से लोग इसे ग्रीन मैन भी कहते थे, यह बात भी इस बात का सबूत है कि वह कोई धार्मिक व्यक्ति नहीं था।
जॉर्डन में सत्ता बदलती है और वहां के 300 कैदियों की सजा माफ कर दी जाती है। इस मुजरिम की सजा भी माफ कर दी जाती है। इससे भी ज्यादा हैरान कर देने वाली बात यह है कि वह व्यक्ति जो एक मुजरिम था, धार्मिक भी नहीं था (वह ऐसे कार्य में संलग्न था जो इस्लामी शिक्षा के विरुद्ध थे, परन्तु धार्मिक कट्टरपंथी बन के दुनिया के सामने आया), जिसके पास पैसे नहीं थे, जिसे अफग़ान युद्ध से कोई नाता भी नहीं था, वह जेल से छूटकर सीधा अफगा़न और सोवियत युद्ध जहां हो रहा है, वहां जाता है। परंतु जब वह वहां आता है या लाया जाता है तो उस समय युद्ध खत्म हो चुका था। इस व्यक्ति की कोई भूमिका सोवियत और अफगान युद्ध में तो नहीं थी परंतु यही वह व्यक्ति था जिसने संगठन अलकायदा को हाईजैक किया और आगे चलकर एक खूंखार आतंकवादी बना।
इस व्यक्ति का नाम था ज़रख़ावी। ज़रख़ावी के प्रभाव में आने से पहले अलकायदा सदैव अमेरिकी सैनिक दस्तों को ही अपना निशाना बनाती थी परंतु जरखाबी के आदेश पर (क्योंकि आतंकवाद के निशाने पर माइनॉरिटीज़ पहले रहतीं है) शिया धार्मिक स्थलों पर होने लगे (जिस मुसलमानों में आपसी तनाव बढ़ा) और मासूम लोगों को निशाना बनाया जाने लगा, सड़कों बाजारों और लोगों के घरों पर बम फटने लगे। इराक में जब सद्दाम हुसैन (यहाँ यह बात याद रहे कि सददाम हुसैन को सत्ता दिलाने और सत्ता छीनने में यूनाइटेड स्टेट्स की मुख्य भूमिका रही है,यही नहीं बल्कि ईरान ईराक़ युद्ध में भी युनाइटेड स्टेट्स कि तरफ से ईराक़ की मदद की गयी) का तख्ता पलटा और अमेरिकी फौजी दस्तों ने इराक में invasion किया तो इस समय ज़रख़ावी की ताकत में सबसे ज्यादा बढ़ोतरी हुई। और इस ताकत से सबसे ज्यादा नुकसान मुसलमानों का किया गया। ओसामा बिन लादेन के इस्लामिक स्टेट के कांसेप्ट को भी हाईजैक कर इसने अपने संगठन को नाम दिया आईएसआईएस, इस्लामिक स्टेट ऑफ़ इराक एंड सीरिया ( जबकि दुनिया जानती थी कि यह दोनों ही देश पहले से ही इसलामिक देश थे)। और यह वह इस्लामिक स्टेट संगठन था जिसने इस्लामिक स्टेट के नाम पर सबसे ज्यादा नुकसान इस्लाम को पहुंचाया और सबसे ज्यादा दरिंदगी मुसलमानों के साथ की।
अमेरिका ने जब आईएसआईएस से जंग शुरू की तो यह बात वह लोग अच्छी तरह जानते थे कि बगैर स्थानीय लोगों की मदद के वह यह जंग नहीं जीत पाएंगे। इसका नतीजा यह हुआ कि फिर बहुत से मिलिटेंट ग्रुप वजूद में आए, यद्यपि उनका मकसद आतंकवाद से ही लड़ना था। और आखिरकार एक दिन जरखावी को मार गिराया गया।
और फिर जो हुआ वह और भी ज्यादा हैरान करने वाला था, क्योंकि अब तक जो दो नाम आतंक से जुड़े हुए हमारे सामने थे जिनके बारे में जानकारी थी। एक अरब का अमीर बिजनेसमैन था तो दूसरा जॉर्डन का एक अपराधी। सवाल यही है कि इन दोनों के हाथों में हथियार किसने दिए?
लेकिन इन दोनों के बाद से आज तक जितने भी लोग सामने आए और उन्होंने दावा किया खलीफा होने का किसी ने अपना नाम आबूबाकर अलबकदादी बताया तो किसी ने उमर अलबाबादी बताया, यह सब कौन थे? कहां से आए? किस देश के थे? किसी धर्म के थे या किसी धर्म के नहीं थे? उनके असली नाम क्या थे? अब हम आज तक नहीं जानते! हम सिर्फ इतना जानते हैं कि दावा इन आतंकियों ने किया था इस्लामिक स्टेट का लेकिन सबसे ज्यादा नुकसान इन्होंने मुसलमान और इस्लाम का ही किया। इन तक आधुनिक हथियार और पैसे किस तरह पहुंचाते रहे सवाल है। कई पत्रकार जो इन सवालों के जवाब के नजदीक पहुँच गए थे या शायद जवाब ढूँढने में कामयाब हो गये थे, उन्हें बेरहमी से क़त्ल कर दिया गया।
युद्ध और आतंकवाद की समानता
इस पूरे प्रकरण में युद्ध और आतंकवाद की समानता पर अगर गौर किया जाए और इस ख़ूनी खेल में अगर किस का फायदा हुआ इस बात को सोचा जाए तो एक ही चीज समझ में आती है, "हथियारों का कारोबार"।
(लेखिका इस्लामिक विद्वान और लखनऊ की सामाजिक कार्यकर्ता हैं)
Source of information.
"Empire of fear- inside the islamic state" By Andrew hosken
& some other internet sources like Wikipedia & others.


