इश्क़ में ऐसा इक मक़ाम भी हो

ख़ामुशी जिस में हम-कलाम भी हो

ऐसा अफ़्साना कोई लिखा जाए

जिस में लिक्खा मिरा पयाम भी हो

क्यों नज़र-बंद हों बयाँ मेरे

कुछ बयाँ मेरे ख़ास-ओ-आम भी हो

दिल-ए-नादाँ ज़रा अदब से धड़क

प्यार का थोड़ा एहतिराम भी हो

गुल-ए-ताज़ा की तरह महके 'शग़फ़'

पत-झड़ों में कोई वो शाम भी हो

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ज़िंदगी तेरी आरज़ू क्या है

मुझ में अब तेरी जुस्तुजू क्या है

दर्द लेने लगा है अंगड़ाई

ज़ख़्म ये मेरे रू-ब-रू क्या है

ज़ख़्म अपने कुरेदती हूँ मैं

दश्त-ए-तन्हाई चार-सू क्या है

देख कर आइना भी हैराँ है

नक़्श-ए-माज़ी की आबरू क्या है

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तमाम रात मुसलसल अयाग़ चलता रहा

दरून-ए-क़ल्ब मुसलसल चराग़ जलता रहा

अजब कहानियाँ बनती हैं निस्फ़ रातों में

शबाब-ए-नौ से मुसलसल शरार उबलता रहा

मिटाती तीरगी-ए-शब क्या चाँदनी आख़िर

ग़म-ए-दग़ा में मुसलसल जो चाँद ढलता रहा

ये उन का दावा मसीहाई का है मक्र-ओ-फ़रेब

लिपट के उन से मुसलसल कोई मचलता रहा

हमेशा अश्कों की ज़द में ही रात ढलती रही

उमीद-ए-जाँ में मुसलसल जिगर पिघलता रहा

ये हम से पूछो तो क्या है ये शय भी लुत्फ़ 'शग़फ़'

कि दर्द-ए-अश्क मुसलसल क़बा बदलता रहा

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अब तलक ठहरी हुई है ज़िंदगी अपनी जगह
मुझ से कब हँस कर मिली है ज़िंदगी अपनी जगह

आँसूओं को ले के आँखों में कभी मुस्काती है

और कभी गुल सा खिली है ज़िंदगी अपनी जगह

दश्त-ए-सहरा में गुज़र का कोई पैमाना नहीं

वहशतों की आगही है ज़िंदगी अपनी जगह

देख लो कितना फ़रेबी है शिकारी की ये चाल

यूँ बिसातों सी बिछी है ज़िंदगी अपनी जगह

नींद से बेदार होते ही हुई रोटी की चाह

आँचलों में सो गई है ज़िंदगी अपनी जगह

वस्ल पल-भर का 'शग़फ़' देता है फ़ुर्क़त उम्र की

दर्द-ए-दिल में खो गई है ज़िंदगी अपनी जगह

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हद्द-ए-जुनूँ के पार भी जाती रही हूँ मैं
दामन से अपने आग बुझाती रही हूँ में

सब देखते रहे हैं तमाशा खड़े खड़े

हँस कर बदन की ख़ाक उड़ाती रही हूँ मैं

ज़ंजीरों में मिरी कोई झंकार तो नहीं

अश्कों से अपने शोर मचाती रही हूँ मैं

रक्खा है सब ने क़ैद क़फ़स में मुझे मगर

ज़िंदाँ में आफ़्ताब को लाती रही हूँ मैं

खींची थी आसमाँ पे निगह से लकीर इक

आहों से ज़र्ब रूह मिटाती रही हूँ मैं

वहशत में रू-ब-रू जो फ़रिश्ते हुए 'शग़फ़'

हर्फ़-ए-दुआ भी उन को पढ़ाती़ रही हूँ मैं

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जो सोचता है तू वैसा ही हाल थोड़ी है

समझना झूठ को भी सच कमाल थोड़ी है

है कुछ ही लम्हे को ये ज़ुल्मतों का डेरा भी

कि ज़ीस्त तीरगी भी माह-ओ-साल थोड़ी है

बहुत ग़ुरूर है क्यों तुझ को तेरी शोहरत पर

कि शोहरतों की फ़क़त तू मिसाल थोड़ी है

हैं मुश्किलों से भरी राहें और तन्हा सफ़र

अभी पड़ाव है मंज़िल मआल थोड़ी है

सफ़र में कॉमा को मंज़िल समझने वाले सुन

मिरा उरूज अभी है ज़वाल थोड़ी है

तू इतनी हसरतों से मुझ को पढ़ रहा है क्यों

ग़ज़ल में मेरा है तेरा ख़याल थोड़ी है

इन आँसूओं को 'शग़फ़' सब्र कैसे आएगा

ये शाम-ए-हिज्र है सुब्ह-ए-विसाल थोड़ी है

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उन के आने से बदल जाती है सूरत मेरी

एक आहट से ही बढ़ जाती है निकहत मेरी

कैसे बतलाऊँ के वो मर्मरी मूरत क्या है

पर्दा हटते ही बदल जाती है निय्यत मेरी

वो गुज़रती है मिरी ख़्वाब की गलियों से भी

वस्ल की रात में बढ़ जाती है उल्फ़त मेरी

पैकर-ए-हुस्न पे रक़्साँ है जवानी उस की

चाँदनी शब में निखर जाती है नुदरत मेरी

जब कभी नाज़नीं की पड़ती है दुज़्दीदा नज़र

तब 'शग़फ़' आप ही बढ़ जाती है शोहरत मेरी

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तू हम से मिल तो तुझ को हाल-ए-दिल अपना सुना डालें

कहे तो जाम में ख़ून-ए-जिगर अपना मिला डालें

तरस खा मुझ पे और वक़्त-ए-जुनूँ यूँ न रुला मुझ को

वगरना आँसूओं से अपने तेरा ग़म जला डालें

हवासों में हमारे उस को अब तो ज़िंदा रहने दे

कहीं ऐसा न हो हर लम्हा ख़ुशियाँ हम भुला डालें

बदलने के लिए क्यों रंग तुझ को इतनी उजलत है

हमें डर है निशान-ए-मिस्ल तेरी हम मिटा डालें

जगा रक्खा है नींदों को हमारी जाने बरसों से

तो हो सकता है ख़्वाबों को ही तेरे हम सुला डालें

समेटा है तुझे ख़ुद में हमेशा फूलों की मानिंद

कहीं ऐसा न हो ज़ख़्मों को तेरे हम खिला डालें

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लब को तेरे मय-कशी दे जाऊँगी

और ज़बाँ को शायरी दे जाऊँगी

यूँ नज़र-अंदाज़ न कर हमनशीं

तेरी पलकों पर नमी दे जाऊँगी

रास न आएगी तुझ को बज़्म-ए-ख़ास

अंजुमन को वो कमी दे जाऊँगी

ख़ाली होगा दिल का जब कश्कोल तब

मैं अना को मुफ़लिसी दे जाऊँगी

तू बज़ाहिर होगा इक दानिश मगर

क़ैस सी दीवानगी दे जाऊँगी

काश तू होता तजस्सुस-आश्ना

रूह को मैं तिश्नगी दे जाऊँगी

तेरे महवर का क़मर बन कर 'शग़फ़'

मैं सदा की तीरगी दे जाऊँगी

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आश्नाई का दम भी भरते हो

हम-कलामी से इतना डरते हो

दिल के गोशे में है छुपाया मुझे

गुफ़्तुगू करते कितना डरते हो

मेरा ही ख़्वाब देखने वाले

मुझ से बच बच के क्यों गुज़रते हो

चाहे इक़रार हो कि हो इंकार

इश्क़ की राह से गुज़रते हो

परवीन शग़फ़ (शगुफ़्ता परवीन)