हताशा में बैठा व्यक्ति और बढ़ा हुआ हाथ: कविता की पहली सीख

  • विनोद कुमार शुक्ल की कविता: जो शोर नहीं करती, पास आकर बैठ जाती है
  • विनोद कुमार शुक्ल के निधन पर

हिरण्य हिमकर

हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था

व्यक्ति को मैं नहीं जानता था

हताशा को जानता था

इसलिए मैं उस व्यक्ति के पास गया

मैंने हाथ बढ़ाया

मेरा हाथ पकड़कर वह खड़ा हुआ

मुझे वह नहीं जानता था

मेरे हाथ बढ़ाने को जानता था

हम दोनों साथ चले

दोनों एक दूसरे को नहीं जानते थे

साथ चलने को जानते थे।

विनोद कुमार शुक्ल हमारे समय के ऐसे कवि हैं, जिनकी कविता शोर नहीं करती, वह धीरे से पास आकर बैठ जाती है। वह पूछती नहीं—बस देखती है। जैसे कोई पेड़ खड़ा होकर राहगीर को देख ले और उसके देखते-देखते रास्ता थोड़ा और मानवीय हो जाए। उनकी भाषा में न तो सजावट की जल्दी है, न प्रभाव छोड़ने की हड़बड़ी। वह अपनी साधारणता में इतनी गहरी है कि पाठक को अपने भीतर उतरने का साहस देती है।

उनकी कविता में घर है—पर वह घर ईंट-सीमेंट का नहीं, स्मृति और अनुभव का बना है। खिड़की से आती धूप, आंगन में गिरती पत्तियाँ, दीवार से सटकर रखा एक पुराना बस्ता—इन सबमें जीवन अपनी पूरी गंभीरता के साथ मौजूद रहता है।

विनोद कुमार शुक्ल की पंक्तियाँ जीवन को बड़ा नहीं बनातीं, वे जीवन को वैसा ही रहने देती हैं जैसा वह है—थोड़ा टूटा हुआ, थोड़ा चुप, और बहुत सच्चा।

उनकी भाषा किसी ऊँचे मंच से नहीं आती। वह पास के कमरे से आती है, जहाँ कोई धीमे स्वर में अपने आप से बात कर रहा होता है। वहाँ शब्द बहुत कम होते हैं, लेकिन हर शब्द अपने साथ एक पूरा समय लेकर आता है। उनकी कविता में मौन भी बोलता है, और बोलना भी एक तरह का मौन हो जाता है। यही वह जगह है जहाँ पाठक रुक जाता है—बिना यह जाने कि वह क्यों रुक गया।

विनोद कुमार शुक्ल की कविता हमें यह भरोसा देती है कि साधारण होना कोई कमजोरी नहीं है। एक आदमी का पैदल चलना, एक स्त्री का चुपचाप बैठना, एक बच्चे का बिना वजह हँस देना—ये सब उनके यहाँ बड़े अर्थ रचते हैं, बिना घोषणा किए। उनकी दृष्टि में दुनिया को बदलने की जल्दबाज़ी नहीं है; पहले उसे समझने की विनम्रता है।

उनकी कविताओं में राजनीति भी है, पर वह नारे की तरह नहीं आती। वह रोटी की तरह आती है—चुपचाप, ज़रूरी, और रोज़ की। वहाँ सत्ता के शोर के सामने मनुष्य की धीमी साँस खड़ी रहती है। उनकी पंक्तियाँ हमें याद दिलाती हैं कि सबसे बड़ा प्रतिरोध शायद यही है—मानवीय बने रहना।

उन्हें याद करना मतलब थोड़ी देर के लिए धीमा हो जाना है। अपने आसपास की चीज़ों को ध्यान से देखना है—कुर्सी पर रखा कपड़ा, मेज़ पर रखा काग़ज़, बाहर जाती सड़क। शायद वही सड़क हमें उनकी कविता तक ले जाती है।

साहित्य वार्ता और ' आहंग ' के ओर से उन्हें नमन!!