नई दिल्ली 1 नवंबर 2015। जनता के बीच सीधे जाकर अपनी कविताओं की प्रस्तुति द्वारा देश में बढ़ते जा रहे साम्प्रदायिक तनाव के माहौल में सकारात्मक हस्तक्षेप और प्रतिरोध के उद्देश्य से आयोजित "मोर्चे पर कवि" के का पहला आयोजन 31 अक्टूबर की शाम कनाट प्लेस स्थित सेन्ट्रल पार्क के एम्पिथियेटर में किया गया.

शाम साढ़े तीन बजे के आसपास प्रशांत टंडन, वंदना राठौर, नीलाभ, उज्ज्वल भट्टाचार्य, यास्मीन खान, अभिषेक श्रीवास्तव, जगन्नाथ, देवेश, अशोक कुमार पाण्डेय और पंकज श्रीवास्तव सहित कुछ लोग एकत्र हुए और नुक्कड़ नाटकों वाली शैली में तीन ताल की ताली बजाकर वहाँ घूमने आये लोगों से अपील की कवितायेँ सुनने की.

पंकज श्रीवास्तव ने संचालक की भूमिका निभाते हुए बताया कि यह कार्यक्रम सीधे जनता के बीच कवितायेँ सुनने सुनाने के एक वृहत्तर उद्देश्य से शुरू किया गया है.

देवेश ने हबीब जालिब की प्रसिद्ध नज़्म "मैं नहीं मानता" के पाठ से शुरुआत की तो अशोक ने अहमद फराज़ की नज़्म "तुम अपनी अक़ीदत के नेज़े" पढ़ते हुए कहा कि यह पहल इस लिए कि इस देश में वे हालात कभी न आने पायें जो पाकिस्तान में हैं.
कविता पाठ की शुरुआत यास्मीन खान से हुई. इसी बीच संगवारी के साथी आ गए और पंकज ने उन्हें जनगीतों के साथ आमंत्रित कर लिया.

गोरख और फैज़ के गीतों ने वह समा बांधा कि श्रोताओं की संख्या बढ़ने लगी और गीतों की टेक पर दूर खड़े लोग भी तालियों की संगत देने लगे.

इसके बाद वरिष्ठ कवि नीलाभ ने कवितायें और ग़ज़लें पढ़ीं. क्रम बढ़ता गया धीरे धीरे. राज़ देहलवी की ग़ज़लें हों या नवीन, सुमन केशरी की कविता या लीना द्वारा किया नागार्जुन का पाठ हो या निखिल आनंद गिरि की तंजिया ग़ज़ल हो, लोगों ने बहुत चाव के साथ सुना और सराहा.

कुछ युवा साथियों ने भी कविता पढ़ने की इच्छा जताई और उनमें से एक को मंच दिया गया. अब भी कुछ कवियों के नाम छूट रहे हैं.
तभी पंकज की नज़र भीड़ में बैठे हेम मिश्रा पर पड़ी. दो साल से अधिक जेल में काट कर आये हेम ने बहुत विनम्रता और प्रतिबद्धता के साथ अपनी बात रखते हुए एक अनुदित कविता सुनाई तो एम्पिथियेटर तालियों से गूँज उठा.

अंत से ठीक पहले अभिषेक ने यूजीसी भवन पर धरने पर बैठे छात्र साथियों के समर्थन में एक प्रस्ताव पेश किया जिसे ध्वनिमत से पारित किया गया.

अंत में उज्ज्वल भट्टाचार्य अपनी कविताओं के साथ उपस्थित हुए. राजा रोज कुरते बदलता है/लेकिन राजा नंगा है. दूर तक गयी बात और पंकज प्रेरित हुए अपना गीत "गुजरात का लला" प्रस्तुत करने के लिए जिसने माहौल को एकदम उत्तेजित कर दिया.

अंत में मंच पर फिर आये संगवारी के साथी और इस आयोजन को हर महीने करने के संकल्प के साथ विदा ली गयी.

तुम उठो, उठो कि उठ पड़े असंख्य हाथ चल पड़ो कि चल पड़े असंख्य पैर साथ....

कविता पाठ करते नीलाभ...इस श्वेतकेशी इलाहाबादी में जवानों जैसा जोश है.

अशोक कुमार पांडेय अपनी कविता 'अश्वमेध' का पाठ करते हुए शानदार कविता..दमदार आवाज़...

कार्यक्रम की शुरुआत में देवेश ने हबीब जालिब की मशहूर नज़्म पढ़ी—मैं नहीं मानता...मैं नहीं मानता..

अंतिम कवि के रूप मे जब दादा Ujjwal Bhattacharya को पाठ के लिए बुलाया गया तो रात हो चुकी थी...लेकिन रोशनी का इंतज़ाम था...दादा जर्मनी से टार्च लेकर भारत आये हैं..

Web Title : The king changes his kurta every day / but the king is naked