क्या मोदी सरकार संकट की चेतावनी को नजरअंदाज कर रही है?

रघुराम राजन की चेतावनी: क्या भारत 1930 की महामंदी की ओर बढ़ रहा है?

  • ग्रीस का संकट और भारत के लिए सबक
  • नवउदारवादी नीतियां: संकट हल कर रही हैं या बढ़ा रही हैं?
  • 'मेक इन इंडिया' बनाम 'मेक फॉर इंडिया' – क्या है सही रास्ता?
  • आर्थिक मंदी और मोदी सरकार की रणनीति
  • क्या भारत भी ग्रीस जैसी आर्थिक अस्थिरता की ओर बढ़ रहा है?

रघुराम राजन बनाम मोदी सरकार: आर्थिक नीतियों पर टकराव?

क्या मोदी सरकार ग्रीस के संकट से सबक लेगी? रघुराम राजन ने भारत की अर्थव्यवस्था को लेकर जो चेतावनी दी थी, वह अब सच होती दिख रही है। ग्रीस का आर्थिक संकट और अंतरराष्ट्रीय बाजार में मंदी के संकेत भारत के लिए क्या मायने रखते हैं?

क्या मोदी सरकार आर्थिक नीतियों को लेकर गलत दिशा में जा रही है?

क्या 'मेक इन इंडिया' से ज्यादा जरूरी 'मेक फॉर इंडिया' है?

क्या वैश्विक वित्तीय पूंजी के दबाव में सरकार भारतीय अर्थव्यवस्था को जोखिम में डाल रही है?

Will the Modi government heed the alarm bells after Rajan's advice and the Greece experience?

राजन के परामर्श और ग्रीस के अनुभव के बाद क्या मोदी सरकार खतरे की घंटी सुनेगी

ग्रीस और विश्व आर्थिक संकट

मीडिया युग का तो बुनियादी सूत्र ही है-जो दिखता है, वही बिकता है। अचरज नहीं है कि इन दिनों राजनीतिक प्रबंधन में सबसे ज्यादा जोर हैडलाइन मैनेजमेंट पर है। फिर इस मामले में नरेंद्र मोदी के शासन की कुशलताएं तो लोकख्यात हैं। सुर्खियों बता रही हैं कि भारत डिजिटल क्रांति की लहरों पर सवार है। 'डिजिटल इंडियाÓ परियोजना के लिए, जो प्रधानमंत्री के दिल के खासतौर पर करीब है, 4.5 लाख करोड़ रु0 के निवेश संकल्प भी आ चुके हैं। इससे देश में 18 लाख नये रोजगार भी पैदा होने वाले हैं, आदि, आदि। स्वाभाविक रूप से इस सब के बीच संकट की उस चेतावनी को भुला ही दिया गया है, जो पिछले महीने के ही आखिर में दी गयी थी और किसी ऐरे-गैरे ने नहीं, भारत के केंद्रीय बैंक यानी रिजर्व बैंक के मुखिया, रघुराम राजन ने दी थी। यह और विडंबनापूर्ण है कि राजन की चेतावनी का नोटिस ही नहीं लिए जाने की यह मुद्रा तब अपनायी गयी है, जब खुद विकसित पूंजीवादी दुनिया की ताजातरीन घटनाएं, जैसे हाथ के हाथ उनकी चेतावनी के सच होने का सबूत देने में लगी हैं।

पश्चिमी सभ्यता का पालना माना जाने वाला ग्रीस जो बाकायदा विकसित दुनिया का हिस्सा ही नहीं है, योरप के आर्थिक एकीकरण के लिए बने योरपीय यूनियन तथा एकीकृत यूरो बाजार का भी हिस्सा है, जून के आखिरी दिन कम से कम विकसित दुनिया में ऐसा पहला देश बन गया, जो निर्धारित तिथि पर अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के 1.5 अरब यूरो के ऋण का भुगतान नहीं कर पाया। याद रहे कि यह एक कर्जदार के रूप में एक संप्रभु विकसित देश के ही डिफाल्टर हो जाने भर का मामला नहीं है। जैसाकि सभी जानते हैं कि ग्रीस के इस संकट का सीधा रिश्ता 2008 के विश्व वित्तीय संकट से निकले उस अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक संकट से है, जिसकी आंच देर से ही सही, चीन तथा भारत जैसी तेजी से विकास कर रही 'उदीयमान’ अर्थव्यवस्थाओं तक भी पहुंची है और विकसित दुनिया में तथा सबसे बढ़कर योरप में तो यह संकट जैसे घुटने तोड़कर ही बैठा हुआ था। इसी संकट से निकालने के नाम पर अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष तथा विश्व बैंक की अगुआई में, दुनिया भर के लिए 'ऑस्टेरिटी’ यानी कटौतियों का नुस्खा पेश किया गया था। योरप में, जहां मजदूरी तथा सामाजिक सुरक्षा की स्थिति कहीं बेहतर थी, इन कटौतियों की मार और भी भारी तथा प्रत्यक्ष थी।

बेशक, किसी प्रत्यक्ष राजनीतिक चुनौती के अभाव में अंतर्राष्टीय वित्त का कटौतियों का नुस्खा कमोबेश सफलता के साथ थोप भी दिया। लेकिन, योरप के अनेक देशों में और खासतौर पर ऐसे देशों में जहां अब भी मजदूर आंदोलन में दम है, इन कटौतियों के खिलाफ इसी दौर में जबर्दस्त लड़ाइयां भी हुई हैं। ग्रीस, स्पेन, फ्रांस आदि में इन कटौतियों के खिलाफ खासतौर पर बड़ी विरोध कार्रवाइयां हुई हैं। अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी द्वारा थोपे गए इस नुस्खे के खिलाफ, जो बुनियादी तौर पर मेहनत की कमाई खाने वालों के हाथों से संसाधन छीनकर, पूंजी के हवाले करने का ही काम करता है, बढ़ते जनविरोध के क्रम में नयी-पुरानी राजनीतिक ताकतों से मिलकर कुछ राजनीतिक मंच भी उभरे हैं। जाहिर है कि राजनीतिक विकल्प के रूप ग्रहण करने की इस प्रक्रिया को इस ठोस सचाई से और बल मिला है कि अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी का यह नुस्खा, बड़ी पूंजी के मुनाफों की रक्षा करने में तो सफल रहा है, आर्थिक संकट से उबारने में पूरी तरह से विफल ही रहा है।

अचरज की बात नहीं है कि ग्रीस में, जहां कटौतियों के हमले का विरोध बहुत ही जबर्दस्त था, जब पांच साल तक अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं से ऋण लेने और ऋणों के साथ थोपी गयी कटौतियां तेज करने की शर्तों के लागू किए जाने के बावजूद, संकट के थमने के दूर-दूर तक कोई आसार नजर नहीं आए, इसी जनवरी के आखिरी सप्ताह में हुए आम चुनाव में, ग्रीस की जनता ने परंपरागत रूप से सत्ता में रही पार्टियों को निर्णायक रूप से ठुकारते हुए, सिरिजा के हाथ में सत्ता सौंप दी। सबसे बढ़कर अंतर्राष्ट्रीय ऋणदाताओं द्वारा थोपी जा रही इन 'कटौतियों’ से मुक्ति दिलाने के वादे के आधार पर सिरिजा के पक्ष में यह जनादेश, कोई अचानक उठी तरंग का मामला भी नहीं था। वास्तव में इससे चंद महीने पहले हुए आम चुनाव में भी सिरिजा ही सबसे बड़ी पार्टी बनकर सामने आयी थी, लेकिन अन्य ताकतों का समर्थन न मिल पाने के चलते सरकार नहीं बना पायी थी। इस जनवरी में दोबारा हुए आम चुनाव में ग्रीस की जनता ने और जोरदार तरीके से, नवउदारवादी नुस्खे को ठुकराने के अपने फैसले को दोहराया था।

इस सिलसिले में यह भी गौरतलब है कि सिरिजा का रुख, ग्रीस की राजनीतिक पार्टियों में भी कोई सबसे रैडीकल रुख नहीं है। वास्तव में ग्रीस की कम्युनिस्ट पार्टी तो इस आधार पर सिरिजा की आलोचना भी करती आयी है कि वह, योरपीय यूनियन के दायरे में रहकर ग्रीस के संकट का समाधान निकालने की झूठी उम्मीद पाले है और जनता को भ्रमित कर रही है। योरपीय यूनियन के आर्थिक ढांचे से नाता तोड़े बिना, ऋणदाताओं द्वारा थोपी जा रही कटौतियों से मुक्ति नहीं पायी जा सकती है। दुर्भाग्य से योरपीय केंद्रीय बैंक, योरपीय काउंसिल तथा अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष की तिकड़ी को, पांच महीने की कड़ी सौदेबाजी के बाद भी, कटौतियों से मुक्त बेल आउट का सिरिजा सरकार का कोई प्रस्ताव मंजूर नहीं हुआ। योरप की सबसे बड़ी आर्थिक ताकत, जर्मनी के दबाव में इन शर्तों पर ही ऋण लेने का अल्टीमेटम दिए जाने के बाद ही, प्रधानमंत्री सिप्रास को इन शर्तों पर ऋण लेने के सवाल पर जनमत संग्रह कराने की घोषणा करनी पड़ी है। सिरिजा समेत तमाम वामपंथी तथा जनतंत्रकामी ताकतों ने ग्रीस की जनता से ऋणदाताओं की शर्तों के खिलाफ वोट करने की अपील की है। बहरहाल, रविवार के जनमत संग्रह में फैसला कुछ भी हो, इस पूरे प्रकरण से इतना तो साफ हो भी चुका है कि, मेहनतकश जनता को और निचोड़कर पूंजी के मुनाफे सुरक्षित करने पर टिकीं अंतर्राष्टीय मुद्रा कोष-विश्व बैंक संचालित नवउदारवादी नीतियां, पूंजीवादी संकट को हल करने के बजाए और बढ़ा रही हैं। ग्रीस के योरपीय यूनियन में रहने न रहने को लेकर गंभीर और वास्तविक आशंकाएं पैैदा हो जाना, जाहिर है कि इस संकट के बहुत बढऩे का ही संकेत है।

वास्तव में रघुराम राजन ने पिछले दिनों विदेश में अपने एक व्याख्यान में, ठीक इसी सचाई को रेखांकित किया था कि फंड-बैंक नुस्खे द्वारा विश्व अर्थव्यवस्था को जिस रास्ते पर धकेला जा रहा है, वह रास्ता संकट से निकालेगा नहीं उल्टे संकट और बढ़ा देगा। इस सिलसिले में उन्होंने सारे संकोच को ताक पर रखकर पहली बार, 1930 के दशक की महामंदी के दुहराए जाने के खतरे का नाम ले दिया। बेशक, जैसाकि बाद में रिजर्व बैंक के स्पष्टीकरण में बताया गया, राजन का मकसद दहशत फैलाना नहीं था। उनका मकसद तो सिर्फ इसकी ओर ध्यान खींचना था कि अगर बड़ी आर्थिक ताकतें आर्थिक गतिविधियां बढ़ाने तथा वहनीय आधार पर इन गतिविधियों को बढ़ाने के लिए मेहनत की कमाई खाने वालों के हाथों में क्रय शक्ति बढ़ाने के लिए मिलकर प्रयास नहीं करेंगी और विश्व वित्तीय पूंजी को लुभाने के लिए आपस में होड़ कर के रियायतें देने के जरिए, अपने संकट का बोझ एक-दूसरे पर खिसकाने की ही कोशिश करती रहेंगी, तो सब की सब महामंदी के गढ़े में जा पड़ेंगी। ग्रीस के संकट ने वास्तव में राजन की इस चेतावनी की पुष्टि भी कर दी है।

बहरहाल, मौजूदा शासन अगर देश के केंद्रीय बैंक के मुखिया की इस चेतावनी की ओर पीठ करना चाहता है, तो इसीलिए कि इसमें मौजूदा शासन की नीतिगत दिशा की सीमाओं की ओर भी इशारा है। ऊंची वृद्घि दर की पटरी पर देश को दोबारा ले जाने के सारे दावों के बावजूद, रोजगार और माल उत्पादन में वृद्धि निराशाजनक बनी हुई है। बुनियादी ढांचे में निवेश में जबर्दस्त बढ़ोतरी के जरिए, रोजगार मुहैया कराने के जरिए जनता के हाथों में क्रय शक्ति बढ़ाने तथा इस तरह घरेलू बाजार को बढ़ाने के जरिए इस स्थिति को बदला तो जा सकता है, लेकिन विदेशी निवेशों को ललचाने पर टिकी नीतियां, इसकी गुंजाइश ही नहीं छोड़ती हैं। उधर विदेशी बाजार सिकुड़ रहे हैं। इन हालात में देसी-विदेशी पूंजी को कितनी ही रियायतें क्यों न दी जाएं, अर्थव्यवस्था का उछाल लेना मुश्किल है। याद रहे कि राजन ने पहले भी 'मेक इन इंडिया’ के बहुत भरोसे न रहने और पहले 'मेक फॉर इंडिया’ के लिए जमीन बनाने की जरूरत पर जोर दिया था। एक प्रकार से उन्होंने अपने इस परामर्श को अब इसका इशारा कर और आगे बढ़ाया है कि मौजूदा रास्ता खतरे की ओर जाता है। राजन के परामर्श और ग्रीस के अनुभव के बाद ही सही, क्या मोदी सरकार अब भी खतरे की घंटी सुनेगी!

राजेंद्र शर्मा, लेखक वरिष्ठ पत्रकार व स्तंभकार हैं।

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