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फिर होने दीजिये नरसंहार और बेदखली, हम इसीके लायक हैं!
मनुस्मृति शासन की यह रंगारंग सुनामी दरअसल मुक्तबाजारी बलात्कार सुनामी है।
पलाश विश्वास
कहां हैं इस देश के शिक्षक, चिकित्सक, न्यायाधीश, जनांदोलन के तमाम मसीहा, मजदूर नेता और उनकी यूनियनें, सरकारी कर्मचारी और अफसरान?
इस सवाल का जवाब लगातार गलतबयानी है कि असहिष्णुता आंदोलन सहिष्णुता, विकास और समरसता के राजकाज के खिलाफ और बहुसंख्य जनता के खिलाफ राष्ट्रविरोधी षड्यंत्र है।
वैसे भारतीय संविधान के मुताबिक भारत के राष्ट्रपति देश के प्रथम नागरिक ही नहीं, राष्ट्राध्यक्ष और तीनों सेनाओं के सेनापति हैं।
पहले हम नागरिक शास्त्र के पाठ में पढ़ते थे कि भीरत के राष्ट्रपति का वेतन दस हजार रुपये हैं जो देश में किसी भी व्यक्ति का सर्वोच्च वेतनमन है।
हम नहीं जानते कि लाखों करोड़ों रुपये या डालर कमाने वाले उत्तर आधुनिक भारतीय नागिरकों की तुलना में भारत की राष्ट्रपति की आय और आर्थिक हैसियत क्या रह गयी है।
संवैधानिक हैसियत उनकी बहरहाल कोई खास नहीं रह गयी है और वे बार बार राष्ट्रपति भवन से देश में बढ़ती हुई असहिष्णुता के खिलाफ चेतावनी जारी करके भैंस के आगे बीन बजाने में अपना बचा हुआ कार्यकाल जाया कर रहे हैं। फिर मौजूदा सत्ता अपनी पसंद का राष्ट्रपति चुन लेगी।
मुश्किल यह है कि उस भावी राष्ट्रपति की आत्मा की आवाज भी अनसुनी रह जाने वाली है।
यह भारतीय धर्मोन्मादी रंगभेदी मुक्तबाजारी राजनीति और राजकाज की विडंबना है और इसकी परिपाटी कांग्रेस ने ही बनायी है। राष्ट्रपति भवन में कैद राष्ट्रपतियों की कथा हम जानते हैं।
मौजूदा राष्ट्रपति को क्यों सक्रिय राजनीति से हटाकर राष्ट्रपति पद पर रिटायर करके उन्हें संवैधानिक रक्षाकवच से सुरक्षित किया गया है। यह किस्सा भी हम गाहे बगाहे खोलते रहे हैं।
फिर भी जब तक वे सर्वोच्च संवैधानिक पद पर हैं, तो वे इकलौता कोई व्यक्ति या दलबद्ध हैसियत भी नहीं है, वे बोलते हैं

तो हमें इसे राष्ट्र की अंतरात्मा की आवाज समझना चाहिए।
हम तो देश के प्रधानमंत्री को पूरे देश का प्रधानमंत्री मानते हैं लेकिन वे अपने को सिर्फ प्रधान स्वयंसेवक मानते हैं।
मसला यह नहीं कि हम राष्ट्रपति के खिलाफ महाभियोग लाने की मांग करते रहे हैं। जो मुक्तबाजारी राजनीति और सत्ता कर ही नहीं सकती क्योंकि कालाधन का अबाध प्रवाह जो मुक्तबाजार है, उसका बंटाधार तब तय है।
अब इन्हीं राष्ट्रपति को झूठा साबित करने की मुहिम है कि सात नवंबर को एक केसरिया जुलूस राजपथ पर निकलेगा जो उन्हें ज्ञापने देकर कहेगा कि कहीं कोई हिंसा नहीं है और न असहिष्णुता है और आप राष्ट्रद्रोहियों की तरह असहिष्णुता के खिलाफ बोलकर विकास और समरसता का रसभंग क्यों कर रहे हैं।
यह महाभियोग है। धर्मोन्मादी महाभियोग, जिसका कोई लोकतातंत्रिक आधार नहीं है।
डाउ कैमिकल्स के कारपोरेट वकील बार बार यही कह रहे हैं। सभी झूठ बोल रहे हैं। जैसे जो लोग विरोध में बोल रहे हैं, उनकी न कोई साख है और न हैसियत।
अवध में लोग अदब का नया कायदा मान सकते हैं लेकिन अस्सी के घाट पर जो मूल्यांकन होगा, हम कहेंगे नहीं।
हालांकि कारपोरेट वकील ने राष्ट्रपति का नाम नहीं लिया है। लेकिन हकीकत है कि असहिष्णुता के खिलाफ उनका स्वर प्रोटोकाल और संविधानके हिसाब से सबसे धारदार वजनदार है। जब उनकी कोई सुनवाई नहीं हो रही है तो हम तो कीड़े मकोड़े हैं।
रेटिंग एजंसियां और विदेशी वित्तीय संस्थाएं इस अमेरिकी उपनिवेश में राजनीति, राजकाज और राजनय चला रही हैं, यह राज खुला खेल फर्रूखाबादी है और इस गोरखधंधे में सारे रंग एकाकार है और सुधार धड़ाधड़ संसदीय समहमति से इसीलिए लागू हो रहे हैं। संविधान, न्याय, कायदा कानून की रोज हत्या हो रही है।
हम बार बार कहते रहे हैं कि मनुस्मृति दरअसल धर्मग्रंथ नहीं है और न हिंदुत्व वैदिकी या उपनिषदीय कोई धर्म कर्म है।
वेदों के श्लोक पुरोहितों के मंत्र नहीं हैं और वहां तैंतीस करोड़ देवदेवियों में से कुछ ही मिलते हैं।
न मूर्तिपूजा वैदिकी है और न जाति व्यवस्था वैदिकी है।
तंत्र मंत्र यंत्र कर्मकांड कुछ भी वैदिकी नहीं है।
इसलिए वेदों और उपनिषदों की चर्चा कोई होती नहीं है।
धर्म कर्म का सार पुराण और महाकाव्य और मिथक हैं। जो बुद्धमय भारत के अवसान के बाद समता , न्याय, सत्य, शांति, करुणा के खिलाफ प्रतिक्रांति के तहत मनुस्मृति के बाद रचे गये हैं और तमाम मूर्तियों तब से प्रचलन में हैं।
ये सारे तत्व असमता, अन्याय और रंगभेद का आधार तो है ही, जाति वर्ग अस्मिता सत्ता वर्चस्व की नींव है।
बाबासाहेब ने इसलिए मनुस्मृति जलायी थी।
वेद और उपनिषद नहीं जलाये थे बाबासाहेब ने।
क्योंकि मनुस्मृति मेहनतकशों, सर्वहारा वर्ग, महिलाओं, बच्चों, प्रकृति से जुड़े कृषि समुदायों को हजारों जातियों में बांट करके जाति वर्ग की सत्ता बहाल करती है।
इसीलिए इस मनुस्मृति की संतान जाति व्यवस्था को खत्म करनाबाबासाहेबका मिशन हो गया और उनके मिशन को खत्म करने के लिए उन्हें अवतार और ईश्वर बनाकर मंदिर में कैद करके उनके मिशन को खत्म करने की तैयारी है।
मुक्त बाजार मुकम्मल मनुस्मृति शासन है, इसीलिए मुकम्मल मनुस्मृति शासन के लिए कलि महाराज का राज्याभिषेक हो गया और अश्वमेध, राजसूय के साथ साथ देश के चप्पे चप्पे में कुरुक्षेत्र और चक्रव्यूह का तिलिस्म है।
हिंदुत्व का यह एंजडा दरअसल मुक्तबाजार का एजंडा है और दसदिगंत सर्वनाश के अलावा यह वैसे ही हिंदू धर्म का सत्यानाश कर देगा जैसे मंत्र तंत्र, अवतार वाद, मूर्तिपूजा ने बुद्धमय भारत का अवसान कर दिया।
भारत के इतिहास में कभी हिंदुत्व का अवसान हुआ नहीं है।
हिंदुत्व को जाति व्यवस्था के बावजूद, मनुस्मृति के बावजूद लोकतांत्रिक बनाकर भारत की साझा संस्कृति में तब्दील करने की कोशिशें लगातार होती रही है और विशुद्धता के इस धर्म में कोई दावे के साथ नहीं कह सकता कि उसका डीएनए किस रक्तधारा से है।
यह असहिष्णुता धर्म, आस्था और उपासना के लोकतंत्र के सनातन हिंदुत्व के खिलाफ जितना है, जितना अछूतों, पिछड़ों और आदिवासियों, सिखों, जैनियों और बुद्ध अनुयायियों के खिलाफ है, उतना, उसका पासंग भी इस्लाम और ईसाई धर्म के खिलाफ नहीं है। क्योंकि इस्लाम और ईसाई धर्म इतने कमजोर भी नहीं हैं कि उनका तंत्र मंत्र यंत्र सेसफाया कर दिया जाये।
गुजरात दंगों, बाबरी विध्वंस और फर्जी मुठभेड़ों, दंगा फसाद के के बावजूद , गैरहिंदुओं के खिलाफ सफाया अभियान के बावजूद यह हिंदू धर्म के अनुयायियों, आस्थावान आस्थावती आम नागिरिकों के नरसंहारका यह चाकचौबंद इंतजाम उसीतरह का है जो भोपाल गैस त्रासदी, आतंकी हमलों, सवाजुड़ुम, आफसा, आपरेशन ब्लू स्टार या सिखों का नरसंहार है।
ऐसे तमाम लोगों को चुन चुनकर मारने का, संपूर्ण निजीकरण, संपूर्ण विनिवेश, जल, जंगल जमीन मानवाधिकारों, रोजगार और आजीविका, नागरिकता, प्रकृति और पर्यावरण से बेदखली का उन हिंदुओं के खिलाफ हंदुत्व के नाम, राम के नाम यह अश्वमेध नरसंहार अभियान है, जो हिंदुत्व की पैदल फौजें हैं, और संस्थागत नरसंहार तंत्र के सारे हनुमान हमारे ही राम हैं। या कृष्ण या देवियां। इसका जब तक हिंदू समाज और हिंदू समुदाय विरोध न करें, यहकयामत का मंजर खत्म होने को नहीं है। सावधान।
इसे इस तरह समझें जैसे देवि सर्वत्र पुज्यते के मंत्रजाप के साथ साथ तमाम देवियों की पूजा प्रचलित हैं वैसे ही विकास के मुक्तबाजारी मनुस्मृति शासन की अटूट पितृसत्ता के समाजाकि परिमंडल में स्त्री अब कहीं सुरक्षित नहीं है तो इसलिए कि धर्म, जाति पहचान कुछ हो, वह मनुस्मृति के दासी शूद्रा नरकद्वार सिद्धांत के मुताबिक, सती सावित्री महिमामंडन के बावजूद अंततः यौनदासी है, पितृसत्ता की सचल संपत्ति है।
मनुस्मृति शासन की यह रंगारंग सुनामी दरअसल मुक्तबाजारी बलात्कार सुनामी है।
 हमारी सबसे प्रिय अभिनेत्री जिनने भारतीय सिनेमा में स्त्री का बहु आयामी विविध चरित्र जिया है और प्रतिरोध और सामाजिक यथार्थ का सबसे चमकदार चेहरा है, उन शबाना आजमी के सवाल कि क्या रघुराजन, किरण मजुमदार और नारायण मूर्ति भी झूठ बोल रहे हैं, (देखें हस्तक्षेप)की प्रतिक्रिया में हमारा यह स्पष्टीकरण है। अब यह मत पूछिये कि शबाना आजमी या अमजद अली खान कौन है। जैसा यकीनन पूछेंगे बजरंगी धर्मोन्मादी।
रघुराम राजन को बोलना इसलिए पड़ा क्योंकि अर्थव्यवस्था की कुल जिम्मेदारी उनकी है चाहे उसे मैनेज कोई वकील वगैरह करें।
रेटिंग एजंसी मूडीज की चिंता इस उपनिवेश में अबाध पूंजी प्रवाह जारी रखने की है और हजारों हजार विदेशी कंपनियों की चल अचल संपत्ति और जानमाल की सुरक्षा है। जो देस के मौजूदा दंगाई माहौल में सबसे ज्यादा खतरे में है। निवेशकों की आस्था भी अटल नहीं है।
जाहिरा तौर पर यह निवेशकों की आस्था का सवाल है। जब सारे के सारे अर्थशास्त्री नोबेल विजेता डा.अम्रत्यसेन औरनोबेलशांति पुरस्कार विजेता लापता हैं तब झख मारकर देश की अर्थव्यवस्था की साख बचाने के लिए रिजर्व बैंक के गवर्नर को अपील करनी ही थी और वही साख बचाने के लिए किसी कारपोरेट वकील या बजरंगी की तरह वे मूडीज की चेतावनी को खारिज भी नहीं कर सकते थे।
सेनसेक्स निफ्टी की उछाल और विकास दर निवेशकों की आस्था और रेटिंग एजंसियों कीमेहरबानी पर है और सबसे मुश्किल यह है कि उन पर हमारे प्रवचन का जैसे कोई असर नहीं होता, वैसे बिरंची टायटैनिक बाबा की मन की बातों का भी असर नहीं होता।
उनका अनुरोध, अनुरोध नहीं आदेश है।
इसे मनमोहन देरी से समझे हैं अब बेहतर है कि संस्थागत फासिज्म यह समझ लें कि उनका जिहाद से भी प्रलंयकारी है मुक्तबाजार और सुधारों का एजंडा।
वे हिंदू राष्ट्र बनाने चले हैं और देश यूनान और एकमुश्त अरब में तब्दील है। बापू होते तो कह भी देते, हे राम!

बाहैसियत राजन की अर्थशास्त्री अंतरराष्ट्रीय साख है।
चाहे भारत सरकार की कोई साख बची हो या नहीं।
इसी तरह तकनीक के विश्व बाजार में नारायणमूर्ति की बड़ी हस्ती हैं जो भारत में नागरिकों की पहचान और निगरानी के चाकचौबंद इंतजाम और इसी सिलसिले में इंफोसिस की लगातार बेइंतहा मुनाफावसूली के लिए मशहूर हैं।
राजन की मजबूरी उनकी भी मजबूरी है।
दोनों को अर्थशास्त्र और तकनीक की साख बचानी है।
जाहिर सी बात है कोई राजनीतिक हैसियत किसी विशेषज्ञता से बनी हैसियत के मुकाबले दो कौड़ी की होती है और उनकी साख उनके नरसंहारी राजनीति और राजकाज के कारण दो कौड़ी की भी नहीं होती।
इसीलिए न कल्कि अवतार, न डाउ कैमिकल्स के वकील को अपनी और देश की साख की कोई परवाह नहीं है जैसे संविधान या कायदे कानून, इंसानियत औरकायनात की भी उन्हें कोई परवाह नहीं है।
हममें से कोई वोट समीकरण साध लें तो वह मजे से प्रधानंमंत्री बन सकता है। ऐसे प्रधानमंत्री और राष्ट्रपित भी बने हैं। लेकिन किसी भी में विशेषज्ञता और साख यूं ही नहीं मिल जाती।
हम लाख जतन करके न शबाना आजमी बन सकते हैं और न गुलजार या अमजद अली खान और न नारायणमूर्ति या राजन।
कवि और लेखक, कलाकार, फिल्मकार हर कोई नहीं बनता। विज्ञान की खोजों में लगना वोटबैंक एक लिए धर्मोन्मादी ध्रूवीकरण भी नहीं है। न इतिहासकार कोई एक दिन में बनता है न समाजशास्त्री।
असहिष्णुता के खिलाफ तमाम लोग झूठ बोल रहे हैं और सिर्फ कारपोरेट वकील राजनेता और बजरंगी सच बोल रहे हैं?
यही सच है तो होने दीजिये नरसंहार और बेदखली, हम इसीके लायक हैं। बंद कीजिये असहिष्णुता का विरोध। धंधा करो। कमाओ।
इस मनुस्मृति जाति वर्ग रंगभेद के अर्थशास्त्र को हम समझें ही नहीं तो लब पर आजादी धरने की कसरत नही करें तो बेहतर।
The President of India is deprived of hearing!I am a common citizen , nothing else! Awake!We can scream at least!

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