आधार परियोजना और आधार कानून नरसंहार की संभावना को जन्म देता है, सुप्रीम कोर्ट के चार जजों ने इसकी अनदेखी कर अन्याय किया

नई दिल्ली, 28 सितंबर। सिटीजन्स फोरम फॉर सिविल लिबर्टीज के डॉ। गोपाल कृष्ण ने कहा है कि आधार परियोजना और आधार कानून नरसंहार की संभावना को जन्म देता है, सुप्रीम कोर्ट के चार जजों ने इस संभावना की अनदेखी कर अन्याय किया है। उन्होंने कहा है कि अच्छा हुआ कि कोर्ट के चार जजों ने विदेशी कंपनियों द्वारा बायोमेट्रिक उपनिवेशवाद के बारे मे अब तक जो उनकी समझ बनी है उसका परिचय दे दिया। बायोमेट्रिक युआईडी/आधार संख्या और आधार कानून का भविष्य तय होना अभी बाकी है। यह भी अच्छा ही हुआ कि न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने अपने फैसले मे इन चार जजों को आईना दिखा दिया।

डॉ गोपाल कृष्ण, एलएलबी, पीएचडी, सिटीजन्स फोरम फॉर सिविल लिबर्टीज के संयोजक व www।toxicswatch।org के संपादक हैं जो आधार विधेयक, 2010 के आकलन के लिए वित्त संबंधी संसद की स्थायी समिति के समक्ष विशेषज्ञ के रूप में उपस्थित हुए थे।

डॉ गोपाल कृष्ण का पूरा बयान निम्नवत् है -

गौर तलब है कि इससे पहले वित्त कानून 2017 के जरिये आधार कानून मे संशोधन करके वह कर दिया गया जो वित्त मंत्री रहते प्रणब मुख़र्जी ने संसद में बायोमेट्रिक “ऑनलाइन डेटाबेस” अनूठा पहचान अंक (यूआईडी (UID)/आधार) परियोजना की घोषणा करते वक्त अपने 2009-10 बजट भाषण में नहीं किया था। अंततः भारत सरकार ने वित्त कानून 2017 मे कंपनी कानून, 2013 और आधार कानून, 2016 का जिक्र साथ-साथ कर ही दिया था। इसके बाद वित्त कानून 2018 के द्वारा भी मौजूदा कानून मे संशोधन करके विदशी कंपनियों को देशी कंपनी के रूप मे परिभाषित कर दिया गया है। परिणाम स्वरूप संविधान सम्मत कानून के राज की समाप्ति करके कंपनी राज की पुनः स्थपाना की विधिवत घोषणा कर दिया है। इसने देश के राजनीतिक भूगोल में को ही फिर से लिख डाला है जिसे शायद एक नयी आज़ादी के संग्राम से ही भविष्य में कभी सुधारा जा सकेगा। इसके कारण बायोमेट्रिक युआईडी/आधार अनूठा पहचान परियोजना और कंपनियों के इरादे के बीच अब तक छुपे रिश्ते जगजाहिर हो गए है। मगर अदालतों, सियासी दलों और नागरिकों के लिए आधार कानून, 2016, वित्त कानून 2017 और वित्त कानून 2018 का अर्थ अभी ठीक से खुला ही नहीं है।

भारत में एक अजीब रिवाज चल पड़ा है। वह यह कि दुनिया के विकसित देश जिस योजना और तकनीकी को खारिज कर देते हैं, हम लोगों के अदालत सहित सभी सरकारी संस्थान उसे सफ़लता की कुंजी समझ बैठती है। अनूठा पहचान (युआईडी)/आधार संख्या परियोजना और आधार कानून 2016 पर अदालत का फैसला इसकी ताजा मिसाल है। मोटे तौर पर ‘आधार’ तो बारह अंकों वाला एक अनूठा पहचान संख्या है, जिसके द्वारा देशवासियों के संवेदनशील आकड़ों को सूचीबद्ध किया जा रहा है। लेकिन यही पूरा सच नहीं है। असल में यह 16 अंकों वाला है मगर 4 अंक छुपे रहते है। इस परियोजना के कई रहस्य अभी भी उजागार नहीं हुए है। शायद इसीलिए सुप्रीम कोर्ट के संविधान पीठ के पाँच जजों मे से चार जज सरकार द्वारा गुमराह हो गए। सरकारी व कंपनियों के विचारकों के अनुसार भारत “मंदबुद्धि लोगों का देश” है। शायद इसीलिए वो मानते जानते है कि लोग बारीक बातों की नासमझी के कारण खामोश ही रहेंगे।

भारतवासियों को “मंदबुद्धि” का मानने वालों मे भारतीय गृह मंत्रालय के तहत नेशनल इंटेलिजेंस ग्रिड (नैटग्रिड) विभाग के मुखिया रहे कैप्टन रघुरमन भी है। कैप्टन रघुरमन पहले महिंद्रा स्पेशल सर्विसेस ग्रुप के मुखिया थे और बॉम्बे चैम्बर्स ऑफ़ इंडस्ट्रीज एंड कॉमर्स की सेफ्टी एंड सेक्यूरिटी कमिटि के चेयरमैन थे। इनकी मंशा का पता इनके द्वारा ही लिखित एक दस्तावेज से चलता है, जिसका शीर्षक “ए नेशन ऑफ़ नम्ब पीपल” अर्थात् असंवेदनशील मंदबुद्धि लोगों का देश है। इसमें इन्होंने लिखा है कि भारत सरकार देश को आंतरिक सुरक्षा उपलब्ध नहीं कर सकती। इसलिए कंपनियों को अपनी सुरक्षा के लिए निजी सेना का गठन करना चाहिए। इसके लिए जरूरी है कि ‘कॉर्पोरेटस’ सुरक्षा के क्षेत्र में कदम बढ़ाएं। इनका निष्कर्ष यह है कि ‘यदि वाणिज्य

सम्राट अपने साम्राज्य को नहीं बचाते हैं तो उनके अधिपत्य पर आघात हो सकता है।’’ कैप्टन रघुरमन बाद में नेशनल इंटेलिजेंस ग्रिड के मुखिया बने। इस ग्रिड के बारे में 3 लाख कंपनियों की नुमाइंदगी करने वाली एसोसिएट चैम्बर्स एंड कॉमर्स (एसोचेम) और स्विस कंसलटेंसी के एक दस्तावेज में यह खुलासा हुआ है कि विशिष्ट पहचान/आधार संख्या इससे जुड़ा हुआ है। कुछ समय पहले तक ये सारे दस्तावेज़ सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध रहे है।

आजादी से पहले गठित अघोषित और अलोकतांत्रिक राजनीतिक पार्टी “फिक्की” (फेडरेशन ऑफ़ इंडियन कॉमर्स एंड इंडस्ट्री) द्वारा 2009 में तैयार राष्ट्रीय सुरक्षा और आतंकवाद पर टास्कफोर्स (कार्यबल) की 121 पृष्ठ कि रिपोर्ट में सभी जिला मुख्यालयों और पुलिस स्टेशनों को ई-नेटवर्क के माध्यम से नेशनल इंटेलिजेंस ग्रिड (नैटग्रिड) में जोड़ने की बात सामने आती है। यह रिपोर्ट कहती है कि जैसे ही भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण (यूआईडीएआई) तैयार हो जाएगा, उसमें शामिल आंकड़ों को नेशनल ग्रिड का हिस्सा बनाया जा सकता है।’ ऐसा पहली बार नहीं है कि नेशनल इंटेलिजेंस ग्रिड और यूआईडीएआई (आधार कार्यक्रम को लागू करने वाला प्राधिकरण) के रिश्तों पर बात की गई है। कंपनियों के हितों के लिए काम करने वाली संस्था व अघोषित और अलोकतांत्रिक राजनीतिक पार्टी “एसोचैम” और स्विस परामर्शदाता फर्म केपीएमजी की एक संयुक्त रिपोर्ट ‘होमलैंड सिक्योरिटी इन इंडिया 2010’ में भी यह बात सामने आई है। इसके अलावा जून 2011 में एसोचैम और डेकन क्रॉनिकल समूह के प्रवर्तकों की पहल एवियोटेक की एक संयुक्त रिपोर्ट ‘होमलैंड सिक्योरिटी एसेसमेंट इन इंडिया: एक्सपैंशन एंड ग्रोथ’ में कहा गया है कि ‘राष्ट्रीय जनगणना के तहत आने वाले कार्यक्रमों के लिए बायोमीट्रिक्स की जरूरत अहम हो जाएगी।’ इस रिपोर्ट से पता चलता है कि यूआईडी/आधार से जुड़े राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर कार्यक्रम का लक्ष्य क्या है।

गौर तलब है कि वर्तमान सरकार ने डॉ ममोहन सिंह के दामाद इंटेलिजेंस ब्यूरो मे कार्यरत अशोक पटनायक को 13 जुलाई 2016 को नैटग्रिड का प्रमुख बना दिया। यह पद अप्रैल 2014 से खाली था क्योंकि कैप्टन रघु रमन के खिलाफ खुफिया रिपोर्ट के कारण उन्हें नया कांट्रैक्ट नहीं दिया गया था। मार्च 2017 मे गृह मामलों की संसदीय स्थायी समिति के रिपोर्ट से यह बात सामने आई कि नैटग्रिड में सूचना प्रोद्योगिकी के सक्षम उम्मीदवारों की कमी के कारण 35 पद खाली हैं। यह मामला लोक सभा मे भी उठा था। देशी तकनीकी और देशी सूचना और बायोमेट्रिक प्रोद्योगिकी में सक्षम लोगों को दरकिनार कर विदेशी तत्त्वों को ऐसे संवेदनशील मामलों मे शामिल करना भी देशवासियों और देश की सुरक्षा को खतरे मे डालता प्रतीत होता है। सुप्रीम कोर्ट के आधार और नैटग्रिड के रिश्तों को अभी तक नहीं रखा गया है। लोक सभा मे इस संबंध मे सवाल उठाया गया है।

वैसे तो अमेरिका में आधार जैसी बायोमेट्रिक यूआईडी के क्रियान्वयन की चर्चा 1995 में ही हो चुकी थी मगर हाल के समय में धरातल पर इसे अमेरिकी रक्षा विभाग में यूआईडी और रेडियो फ्रीक्वेंसी आइडेंटिफिकेशन (आरएफआईडी) की प्रक्रिया माइकल वीन के रहते उतारा गया। वीन 2003 से 2005 के बीच एक्विजिशन, टेक्नोलॉजी एंड लॉजिस्टिक्स (एटी ऐंड एल) में अंडर सेक्रेटरी डिफेंस हुआ करते थे। एटी ऐंड एल ने ही यूआईडी और आरएफआईडी कारोबार को जन्म दिया। अंतरराष्ट्रीय फौजी गठबंधन “नाटो” के भीतर दो ऐसे दस्तावेज हैं जो चीजों की पहचान से जुड़े हैं। पहला मानकीकरण संधि है जिसे 2010 में स्वीकार किया गया था। दूसरा एक दिशा निर्देशिका है जो नाटो के सदस्यों के लिए है जो यूआईडी (आधार इसका ब्रांड नाम है) के कारोबार में प्रवेश करना चाहते हैं। ऐसा लगता है कि भारत का नाटो से कोई रिश्ता बन गया है। यहां हो रही घटनाएं इसी बात का आभास दे रही हैं। इसी के आलोक में देखें तो चुनाव आयोग और यूआईडीएआई द्वारा गृह मंत्रलय को भेजी गयी सिफारिश कि मतदाता पहचान पत्र को यूआईडी के साथ मिला दिया जाय, चुनावी पर्यावरण को बदलने की एक कवायद है जो एक बार फिर इस बात को रेखांकित करती है कि बायोमीट्रिक प्रौद्योगिकी और इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग

मशीन (ईवीएम) का इस्तेमाल उतना निर्दोष और राजनीतिक रूप से तटस्थ चीज नहीं जैसा कि हमें दिखाया जाता है। ध्यान देने वाली बात ये है कि चुनाव आयोग के वेबसाइट के मुताबिक हर ईवीएम में यूआईडी होता है। विपक्षी सियासी दलों ने ईवीएम के विरोध में तो देरी कर ही दी अब वे बायोमेट्रिक यूआईडी/आधार के विरोध में भी देरी कर रहे हैं। यही नहीं राज्यों में जहा इन विरोधी दलों कि सरकार है वह वे अनूठा पहचान यूआईडी/आधार परियोजना का बड़ी तत्परता से लागू भी कर रहे है। वे इसके दूरगामी परिणाम से अनभिज्ञ है।

यह ऐसा ही है जैसे अमेरिकी डेमोक्रेटिक पार्टी के राष्ट्रपति जब पहली बार शपथ ले रहे थे तो उन्हें यह पता ही नहीं चला कि जिस कालीन पर खड़े थे वह उनके परम विरोधी पूंजीपति डेविड कोच की कम्पनी इन्विस्ता द्वारा बनायीं गई थी। डेविड कोच ने ही अपने संगठनों के जरिये पहले उन्हें उनके कार्यकाल के दौरान गैर चुनावी शिकस्त दी और फिर बाद में चुनावी शिकस्त भी दी। भारत में भी विरोधी दल जिस बायोमेट्रिक यूआईडी/आधार और यूआईडी युक्त ईवीएम की कालीन पर खड़े हैं वह कभी भी उनके पैरों के नीचे से खींची जा सकती है। लोकतंत्र में विरोधी दल को अगर आधारहीन कर दिया जाता है तो इसका दुष्परिणाम जनता को भोगना पड़ता है क्योंकि ऐसी स्थिति में उनके लोकतान्त्रिक अधिकार छिन जाते हैं

ईवीएम के अलावा जमीन के पट्टे संबंधी विधेयक में जमीन के पट्टों को अनूठा यूआईडी/आधार से जोड़ने की बात शामिल है। यह सब हमारे संवैधानिक अधिकारों का अतिक्रमण होगा और प्रौद्योगिकी आधारित सत्ता प्रणाली की छाया लोकतंत्र के मायने ही बदल रहा है जहां प्रौद्योगिकी और प्रौद्योगिकी कंपनियां नियामक नियंत्रण से बाहर है क्योंकि वे सरकारों, विधायिकाओं और विरोधी दलों से हर मायने में कहीं ज्यादा विशाल और विराट हैं।

यूआईडी/आधार और नैटग्रिड एक ही सिक्के के अलग-अलग पहलू हैं। एक ही रस्सी के दो सिरे हैं। विशिष्ट पहचान/आधार संख्या सम्मिलित रूप से राजसत्ता और कंपनिया विभिन्न कारणों से नागरिकों पर नजर रखने का उपकरण हैं। यह परियोजना न तो अपनी संरचना में और न ही अमल में निर्दोष हैं। हैरत कि बात यह भी है कि एक तरफ गाँधी जी के चंपारण सत्याग्रह के सौ साल होने पर सरकारी कार्यक्रम हो रहे है वही वे गाँधी जी के द्वारा एशिया के लोगो का

बायोमेट्रिक निशानदेही आधारित पंजीकरण के खिलाफ उनके पहले सत्याग्रह और आजादी के आन्दोलन के सबक को भूल गए। उन्होंने उंगलियों के निशानदेही द्वारा पंजीकरण कानून को कला कानून कहा था और सबंधित दस्तावेज को सार्वजनिक तौर पर जला दिया था। चीनी निवासी भी उस विरोध में शामिल थे। ऐसा लगता है जैसे चीन को यह सियासी सबक याद रहा मगर भारत भूल गया। चीन ने बायोमेट्रिक निशानदेही आधारित पहचान अनूठा परियोजना को रद्द कर दिया है।

गौर तलब है कि कैदी पहचान कानून, 1920 के तहत किसी भी कैदी के उंगलियों के निशान को सिर्फ मजिसट्रेट की अनुमति से लिया जाता है और उनकी रिहाई पर उंगलियों के निशान के रिकॉर्ड को नष्ट करना होता है। कैदियों के ऊपर होनेवाले जुल्म की अनदेखी की यह सजा की अब हर देशवासी को उंगलियों के निशान देने होंगे और कैदियों के मामले में तो उनके रिहाई के वक्त नष्ट करने का प्रावधान रहा है, देशवासियों के पूरे शारीरिक हस्ताक्षर को रिकॉर्ड में रखा जा रहा है। बावजूद इसके जानकारी के अभाव में देशवासियों की सरकार के प्रति आस्था धार्मिक आस्था से भी ज्यादा गहरी प्रतीत होती है। सरकार जो की जनता की नौकर है अपारदर्शी और जनता को अपारदर्शी बना रही है।

केन्द्रीय मंत्री रवि शंकर प्रसाद ने 10 अप्रैल, 2017 को राज्यसभा में आधार पर चर्चा के दौरान कहा कि सरकार नैटग्रिड और बायोमेट्रिक आधार संख्या को नहीं जोड़ेगी। उनका बयान भरोसे के लायक नहीं है। इसी सरकार ने आधार को स्वैछिक बता कर बाध्यकारी बनाया है। इसी मंत्री ने पूरे देश को गुमराह कर लोगों को आधार को बनवाने और उसे फोन से जोड़ने के लिए बाध्य कर दिया था।

ऐसी सरकार जिसने आधार को गैरजरूरी बता कर देशवासियों से पंजीकरण करवाया और बाद में उसे जरूरी कर दिया उसके किसी भी ऐसे आश्वासन पर कैसे भरोसा किया जा सकता है। जनता इतनी तो समझदार है ही वह यह तय कर सके कि कंपनियों के समूह फिक्की और असोचैम के रिपोर्टों और मंत्री की बातों में से किसे ज्यादा विश्वसनीय माना जाय। इन्ही कंपनियों के समूहों में वे गुमनाम चंदादाता भी शामिल है जो ज्यादा भरोसेमंद है क्योंकि उन्ही के भरोसे सत्तारूढ़ सियासी दलों का कारोबार चलता है। फिक्की और असोचैम के रिपोर्टों से स्पष्ट है कि नैटग्रिड और बायोमेट्रिक आधार संरचनात्मक तौर पर जुड़े हुए है। वैसे भी ऐसी सरकार जो “स्वैछिक” कह कर लोगो को पंजीकृत करती है और धोखे से उसे “अनिवार्य” कर देती है उसके आश्वासन पर कौन भरोसा कर्र सकता है।

इस हैरतंगेज सवाल का जवाब कि देशवासियों की पहचान के लिए यूआईडी/संख्या संख्या की जरूरत को कब और कैसे स्थापित कर दिया गया, किसी के पास नहीं। पहचान के संबंध में यह 16 वां प्रयास है। चुनाव आयोग प्रत्येक चुनाव से पहले यह घोषणा करता है कि यदि किसी के पास मतदाता पहचान पत्र नहीं है तो वे अन्य 14 दस्तावेजों में से किसी का प्रयोग कर सकते हैं। ये वे पहचान के दस्तावेज हैं जिससे देश में प्रजातंत्र एवं संसद को मान्यता मिलती है।

ऐसे में इस 16वें पहचान की कवायद का कोई ऐसा कारण नजर नहीं आता जिसे लोकशाही में स्वीकार किया जाए। संसद को पेश किये गए अपने रिपोर्ट में वित्त की संसदीय समिति ने खुलासा किया है कि सरकार ने इस 16वें पहचान के अनुमानित खर्च का पहले हुए पहचान पत्र के प्रयासों से कोई तुलना नहीं किया है। देशवासियों को अंधकार में रखकर बायोमेट्रिक-डिजिटल पहलों से जुड़े हुए उद्देश्य को अंजाम दिया जा रह हैं। ज्ञात हो कि इस समिति ने सरकार के जवाब के आधार पर यह अनुमान लगाया है की एक आधार संख्या जारी करने में औसतन 130 रुपये का खर्चा आता है जो देश के प्रत्येक 130 करोड़

लोगों को भुगतान करना पड़ेगा। बायोमेट्रिक यूआईडी (UID) नीति को नागरिक जीवन (सिविल लाइफ) के लिए समीचीन बताकर 14 विकासशील देशो में संयुक्त राष्ट्र अमेरिका की कंपनियों और विश्व बैंक के जरिये लागु किया जा रहा है। दक्षिण एशिया में यह पाकिस्तान में लागू हो चुका है और नेपाल और बांग्लादेश में भी लागू किया जा रहा है।

भारत में इस बात पर कम ध्यान दिया गया है कि कैसे विराट स्तर पर सूचनाओं को संगठित करने की धारणा चुपचाप सामाजिक नियंत्रण, युद्ध के उपकरण और जातीय समूहों को निशाना बनाने और प्रताड़ित करने के हथियार के रूप में विकसित हुई ह