एक और कारगिल की तैयारी, लेकिन कश्मीर में हालात बेकाबू!
राजनाथ सिंह फिर लौहपुरुष लालकृष्ण आडवाणी के अवतार में हैं
पलाश विश्वास
उरी में भारतीय सैन्य शिविर में हुए हमले के बाद फिर एक और कारगिल की तैयारी है। राजनाथ सिंह फिर लौहपुरुष लालकृष्ण आडवाणी के अवतार में हैं और अंध राष्ट्रवाद रामजन्मभूमि आंदोलन के दौर में है। हाट परसुट का विकल्प खुला है और भारत सरकार कश्मीर समस्या सुलझाये बिना पाकिस्तान को सबक सिखाने के बंदोबस्त में लगा है। बलोच राजनय का यह दूसरा पहलू है।
मुश्किल यह है, जैसे कि जेएनयू में पढ़ने आयी, माले की राजनीति कर रही सेहला रशीद का कहना है, कश्मीर के लोगों को भारत का नागरिक माना नहीं जाता और उनमें से जो अलगाववाद के खिलाफ हैं, उन्हें भी अलगाववादी करार दिया जाता है, क्योंकि वे मुसलमान हैं।
कश्मीर मसला पेचीदा इसलिए है कि कश्मीर घाटी की आबादी मुसलमान है और भारतीय जनता या भारत सरकार को फर्क नहीं पड़ता कि कौन अलगाववादी है और कौन नहीं है। यह वैमनस्य हालात सुधारने नहीं देता।
सत्ता पर काबिज संघ परिवार के साथ साझा सरकार चला रही महबूबा मुफ्ती की भी अब सर्वोच्च प्राथमिकता सरकार में बने रहने की है। इसलिए नागरिक और मानवाधिकारों की कहीं कोई बात नहीं हो रही है, कुछ गिने चुने बुद्धिजीवी मुंह जबानी चर्चा कर रहे हैं, लेकिन सरकारी सैन्य दमन का सिलसिला जारी है और पूरा कश्मीर आग के हवाले है। उसी आग को भड़काने की अब फिर वही सरहदों के आर पार साझा उपक्रम है और फिर खामोशी हमारी मजबूरी है।

पाकिस्तान के हुक्मरान जाहिर है कि दूध के धुले नहीं है।
तथाकथित आजाद कश्मीर में भी हालात अलग नहीं है और वहां भी नागरिक और मानवाधिकार का उल्लंघन आम जनता पर ढाये जा रहे जुल्मोसितम का रोजनामचा है। फिर वहां फौजी हुकूमत है, जो हर संकट का एकमात्र समाधान भारत पाकिस्तान युद्ध मानता है और भारत पाक संबंधों की कुल मिलाकर व्यथा कथा यही है। हमारे हुक्मरान भी वही हैं।
इसलिए प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष युद्ध का यह सिलसिला खत्म होने के आसार कतई नहीं हैं।
युद्ध का विकल्प अगर भारत सरकार चुनती है तो यह पाकिस्तान के हुक्मरान के फंदे में गला फंसाने की हरकत होगी और हमारे जवानों की शहादतें भी भविष्य में सरहदों के आर पार अमन चैन बहला कर सकेंगी, इसमें शक है।
जैसे तीन-तीन भारत पाक युद्धों और कारगिल के बाद भी कश्मीर का मसला सुलझा नहीं है, दो चार युद्ध और लड़ भी लें तो हम अंदरूनी हालात पर जब तक काबू नहीं पाते, सरहदों पर जवानों का खून बहाकर और शायद एक और युद्ध जीतकर भी कुछ हासिल नहीं कर सकते।

दरअसल युद्ध का विकल्प चुनने से कश्मीर घाटी के हालात सुधरने के आसार एकदम नहीं हैं, यह बात दोनों तरफ के हुक्मरान के समझने की जरूरत है।
मुश्किल यह है कि सत्ता पर दखलदारी की गरज से युद्ध दोनों के हितों के माफिक है, तो जाहिर है कि समझकर हबी वे नासमझ बने रहेंगे। जाहिर हैकि फिर कश्मीर में सरहदों के आर पार आजादी की लड़ाई और तेज होनी है और भारत तो फिर भी हालात से निबट सकता है, लेकिन पाकिस्तान के लिए कश्मीर के उसके कब्जाये हिस्से का दखल रख पाना सिरे से असंभव होगा।
हमारी कश्मीर में मौजूदगी के खिलाफ भी बगावत रुकेगी नहीं।
दरअसल पाकिस्तानी फौजी हुक्मरान के लिए भी कश्मीर शतरंज की बाजी है, जिससे सियासत और मजहब की आड़ में सत्ता की बागडोर हर हाल में अपने पास रखने की उनकी मजबूरी है।

हमारे हुक्मरान के लिए भी कश्मीर अब शतरंज की बाजी है।
हमारे तमाम राजनीतिक दलों के लिए भी वैसा ही है, कुछ अलग नहीं है।
अब हमें सोचना है कि अगर हम कश्मीर को भारत का हिस्सा मानते हैं तो हमें कश्मीर घाटी के जरूरी मसलों, वहां के भारतीय नागरिकों के नागरिक अधिकारों और मानवाधिकारों के बारे में पाकिस्तानी हुक्मरान के नजरिये से, उनके बिछाये जाल में फंसकर फैसला करना है या इसे अपना अंदरुनी मामला मानकर सुलझाने की पहल करनी चाहिेए।
सरकार क्या करती है, इससे ज्यादा जरुरी नागरिक पहल की है जो आजादी के बाद से अब तक व्यापक क्या छिटपुट भी हो नहीं सकी है।

कश्मीर घाटी की जो हो सो हो, हमारा अलगाव कश्मीर से बेहद आत्मघाती है।
अंदेशा यही है कि भारत और पाकिस्तान के सत्तावर्ग के हितों के मुताबिक युद्धकालीन परिस्थितियां कयामती फिजां बनते जाने से कश्मीर में बांग्लादेश जैसे हालात गहराते जा रहे हैं, जो किसीके हक में नहीं है। लोकतांत्रिक संवाद कमसकम कश्मीर के मामले में असंभव है, इससे कहीं किसी की सुनवाई हो नहीं रही है। सैन्य दमन के बाद फिर विकल्प वही कारगिल है।
ये बेहद खतरनाक हालात हैं। विकास दर की अर्थव्यवस्था के लिए यह सैन्य विकल्प आत्मघाती है तो यह अंध राष्ट्रवाद मिली जुली भारत की आबादी के लिए बेहद विघटनकारी है, जबकि हम मजहबी, जाति पहचान के बूते हर मसले को सुलझाने की बेबुनियाद कोशिश कर रहे हैं।
हम यह भूल रहे हैं कि बांग्लादेश और पाकिस्तान में कुल जितने मुसलमान हैं, उससे कहीं ज्यादा मुसलमान भारत के वफादार नागरिक हैं।
युद्ध पाकिस्तान के खिलाफ भले आप लड़ लें, अगर आपकी सियासत और मर्जी यही है, लेकिन भारत के नागरिक करीब एक तिहाई आबादी के मुसलमानों के खिलाफ युद्ध घोषणा का यह अंध राष्ट्रवाद देश की एकता और अखंडता के लिए सबसे बड़ा संकट है, इसे समझ लें।