एक परिवार कांग्रेस को पुनर्जीवित करेगा तो दूसरा परिवार अपने ही स्वयंसेवक के हाथों खत्म हो चला है.....
एक परिवार कांग्रेस को पुनर्जीवित करेगा तो दूसरा परिवार अपने ही स्वयंसेवक के हाथों खत्म हो चला है.....

नई दिल्ली, 25 जनवरी। प्रियंका गांधी के सक्रिय राजनीति में प्रवेश Priyanka Gandhi enters in active politics के बाद अचानक बदले देश के राजनीतिक परिदृश्य Political scenario of the country में कई बहस एक साथ छिड़ गई हैं। लेकिन इन सारी बहस से इतर चर्चित एंकर पुण्य प्रसून बाजपेयी Punya Prasun Bajpai ने यक्ष प्रश्न उठाया है कि क्या नेहरू-गांधी परिवार कांग्रेस को पुनर्जीवित करेगा और संघ परिवार अपने ही स्वयंसेवक नरेंद्र मोदी के हाथों खत्म हो चला है।
श्री बाजपेयी ने अपने ब्लॉग पर जो लिखा है उसके संपादित अंश हम यहां साभार दे रहे हैं।-
कांग्रेस की पहचान नेहरु-गांधी परिवार से जुड़ी है। बीजेपी की पहचान संघ परिवार से जुडी है। बिना नेहरू-गांधी परिवार के कांग्रेस हो ही नहीं सकती, तो कांग्रेस की कमजोरी-ताकत दोनों ही नेहरू-गांधी परिवार में सिमटी हैं। और बिना संघ परिवार के बीजेपी का आस्त्तिव ही नहीं है तो वैचारिक तौर पर संघ की सोच हो या हिंदुत्व की छतरी तले बीजेपी के राजनीतिक भविष्य को आक्सीजन देने का काम यह संघ परिवार पर ही टिका है।
कांग्रेस अभी तक नेहरु गांधी परिवार के करिष्माई नेतृत्व के आसरे सत्ता पर काबिज रही है चाहे वह नेहरू का काल हो या इंदिरा गांधी का या फिर राजीव गांधी या परदे के पीछे सोनिया गांधी की सियासत का। और इस दौर में जनसंघ से जनता पार्टी होते हुये बीजेपी में उभरी स्वयंसेवकों की टोली की ये पहचान रही कि वह कांग्रेस के मुस्लिम तुष्टिकरण के विरोध के आसरे धीरे-धीरे आगे बढ़ती रही। और सत्ता के जरिये कांग्रेस विरोध के दायरे को बढाती भी रही और कांग्रेस विरोध के आसरे अपनी सत्ता गढ़ती भी रही। लेकिन सौ बरस की उम्र पार कर चुकी कांग्रेस में ये पहला मौका है कि नेहरू गांधी परिवार की पांचवी पीढ़ी के दो सदस्य कांग्रेस को संभालने के लिये एक साथ चलने को तैयार हैं। और दूसरी तरफ 2025 में सौ बरस की होने जा रहे संघ परिवार से निकले स्वयंसेवकों का सत्ताकरण ही कुछ इस तरह हुआ कि वह संघ परिवार को ही कमजोर कर सत्ता की ताकत तले संघ परिवार को ले आये।
तो ये वाकई दिलचस्प हो चला है कि एक तरफ करिश्माई नेतृत्व के आसरे सत्ता की चौखट पर पहुंचने वाली कांग्रेस में धीरे-धीरे राहुल गांधी ने चुनावी जीत के आसरे खुद को करिश्माई तौर पर स्थापित करने की दिशा में कदम बढ़ाये हैं तो प्रियंका गांधी की राजनीतिक झलकियों ने ही उन्हें पहले से करिश्माई मान लिया है। तो दूसरी तरफ नरेन्द्र मोदी ने पूर्व स्वयंसेवकों की लीक छोड 2014 में खुद को करिश्माई तौर पर स्थापित तो किया, लेकिन इसी स्थापना को अपनी ताकत मान कर संघ परिवार की सोच तक को खारिज कर दिया। या कहें मोदी सत्ता के दौर में संघ परिवर के मुद्दे भी सरोकार खो कर मोदी के करिष्माई नेतृत्व में ही हिन्दुत्व से लेकर स्वदेशी और भारतीयकरण से लेकर स्वयंसेवक होने के पीछे के संघर्ष को ही खत्म कर बैठे।
तो नेहरु-गांधी परिवार और संघ परिवार की इसी बिसात पर 2019 का आम चुनाव होना है। तो पासे कैसे और किस तरह फेंके जायेंगें ये वाकई रोचक है। और सवाल कई हैं।
मसलन, क्या मोदी का करिष्माई नेतृत्व बीजेपी-संघ परिवार की सत्ता को बरकरार रख पायेगा। क्या राहुल गांधी के साथ खड़ी प्रियंका का करिष्मा मोदी सत्ता की जड़े हिला देगा। क्या मोदी-शाह में सिमट चुकी बीजेपी के पास कोई नेता ही नहीं है जो कांग्रेस के करिश्माई नेतृत्व को चुनाव मैदान में पटकनी दे दे। या फिर बीजेपी में हर नेता के सामने ये चुनौती है कि वह कैसे मोदी-शाह को पहले पटकनी दे फिर खडा हो सके।
क्या राहुल प्रियंका की जोड़ी अब मोदी विरोध के गठबंधन के सामने ही चुनौती बन रही है। यानी एक वक्त के बाद क्षत्रपों के सामने संकट होगा कि वह बीजेपी विरोध के साथ कांग्रेस विरोध की दिशा में भी बढ़ जायें। जाहिर है ये सारे सवाल हैं, लेकिन इन सवालों के आसरे ही चुनावी राजनीति के परखे तो तीन सच सामने उभरेंगें। पहला, प्रियंका के जरिये महिलायें और युवाओं का वोट सिर्फ बीजेपी ही नहीं बल्कि अखिलेश-मायावती से भी खिसकेगा।
दूसरा, यूपी में चेहरा खोज रही कांग्रेस को पियंका का एक ऐसा चेहरा मिल चुका है जो लोकसभा चुनाव के बाद आखिलेश-मायावती के उस सौदबाजी में सेंध लगाने के लिये काफी है कि राज्य कौन संभाले और केन्द्र कौन संभाले < अगर लोकसभा चुनाव के बाद मायावती पीएम उम्मीदवार के तौर पर उभरती हैं > क्योंकि कांग्रेस ने अभी प्रियंका गांधी को पूर्वी यूपी की कमान सौंपी है। अगला कदम रायबरेली से चुनाव मैदान में उतारना होगा। और फिर 2022 में यूपी विधानसभा के वक्त प्रिंयका गांधी को ही सीएम उम्मीदवार पद के लिये उतरना।
तीसरा, क्षत्रपों को अब समझ में आने लगा है कि गठबंधन का मतलब तभी है जब उसमें कांग्रेस शामिल हो। यानी सिर्फ क्षत्रपों का मिलना गठबंधन तो है लेकिन वह सिर्फ सत्ता के लिये सौदेबाजी का दायरा बढ़ाना है। और इन तीन हालात के दौर को और किसी ने नहीं बल्कि मोदी के करिष्माई नेतृत्व ने ही पैदा किया है। और मोदी के करिष्माई नेतृत्व के पीछे संघ परिवार को ही कमजोर करना रहा। क्योकि संघ परिवार का हर वह संगठन जो कांग्रेस की सत्ता को चुनौती देने के लिये संघर्ष करते हुये बीजेपी का रास्ता अभी तक बनाता रहा उसे ही मोदी के करिष्माई नेतृत्व ने खत्म कर दिया।
विहिप के पास प्रवीण तोगड़िया नहीं है तो विहिप को प्रवीण तोगड़िया के हर कदम से लड़ना पड़ रहा है। किसान संघ के सक्षम नेतृत्व को कैसे मोदी सत्ता के काल में खत्म किया गया ये मध्यप्रदेश में कक्काजी के जरिये उभरा। फिर भारतीय मजदूर संघ हो या स्वदेशी जागरण मंच या फिर आदिवासी कल्याण संघ, हर संगठन को कमजोर किया गया। या कहें संघ के हर संगठन का काम ही जब करिष्माई नेतृत्व मोदी के लिये ताली बजाना हो गया तो फिर वह नीतियां भी बेमानी हो गईं जो किसान को खुदकुशी की तरफ धकेल रही थीं। युवाओं को बेरोजगारी की तरफ। उत्पादन ठप पड़ा है तो उद्योगपतियो के पास काम नहीं। व्यापरियों के सामने जीएसटी से लेकर विदेशी निवेश और ई-मार्केटिंग का खतरा है। मजदूर को नोटबंदी ने तबाह कर दिया। यानी संकट काल स्वयंसेवक की सत्ता के वक्त संघ की सोच के विपरीत है।
तो आखरी सवाल यही हो चला है कि कांग्रेस की राजनीति ने संघ या पुरानी बीजेपी की कार्यशौली को अपना लिया है। और मोदी के करिश्माई नेतृत्व ने कांग्रेस के करिश्माई सोच को अपना लिया है।
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