अरुण माहेश्वरी

आज ‘ऐक्सिडेंटल प्राइममिनिस्टरAccidental Prime Minister, फिल्म देखी। किसी अभिनेता के काम पर उसकी विचारधारा के हावी हो जाने पर वह चरित्र को भूल कर अपनी विचाधारा से कैसे चालित होने लगता है और इसी उपक्रम में फिल्म के तमाम दृश्यों को बेढब बनाता जाता है, इसका इस फिल्म में एक क्लासिक उदाहरण है अनुपम खेर Anupam Kher । यह फिल्म एक ऐसे पेशेवर पत्रकार Professional Journalist की लिखी हुई किताब पर आधारित है जो राजनीति में सत्ता की शक्ति Power of Power in Politics को तो जानता है, लेकिन राजनीति के बाहर का व्यक्ति होने के कारण उस सत्ता की संरचना से पूरी तरह से अनभिज्ञ है। सत्ता के बाहरी स्वरूप की चमक-दमक उसके लिये राजनीति के बारे में अज्ञता और अंधता का सबब बनी हुई है। इसीलिये प्रधानमंत्री के इस मीडिया एडवाइजर Prime Minister's Media Advisor को उनमें देश के सबसे ताकतवर व्यक्ति की छवि के अलावा और कुछ नहीं दिखाई देता था। और शायद उनके इसी मनोविज्ञान ने उन्हें ऐन 2014 के चुनाव के समय मोदी की सहायता Modi's Support के लिये उतार दिया। वह मोदी की लफ्फाजी Modi's Rhetoric से प्रभावित था या कांग्रेस दल की आंतरिक राजनीतिक संरचना के प्रति अपनी अज्ञानता का शिकार कहना मुश्किल है, लेकिन वह मनमोहन सिंह का एक नादान दोस्त साबित हुआ। इस नादानी में उसने उसी व्यक्ति के प्रति शत्रुता का काम किया जिसे वह अपनी नजर से न्याय दिलाना चाहता था।

यही वजह है कि मनमोहन सिंह के इस नादान शुभाकांक्षी की किताब ने मनमोहन सिंह का तो कुछ भला नहीं किया, 2014 में उनके दुश्मन मोदी की सेवा ज्यादा की। उस किताब पर बनाई गई फिल्म भी प्रधानमंत्री पर बनी फिल्म के बजाय उनके मीडिया एडवाइजर पर बनी फिल्म में बदल गई। और, जहां तक फिल्म में प्रधानमंत्री के चरित्र का सवाल है, अनुपम खेर ने संजय बारू की किताब की वास्तविक राजनीतिक भूमिका के मर्म को पकड़ कर अपनी चाल-ढाल और संवेदनशून्य भाव-भंगिमाओं से मनमोहन सिंह को मनुष्य के बजाय लगभग एक मवेशी का रूप दे दिया। अनुपम खेर का दुर्भाग्य है कि मनमोहन सिंह आज भी राजनीति के परिदृश्य में उपस्थित एक जीता जागता चरित्र हैं। इसीलिये वे मनमोहन सिंह की छवि को तो बिगाड़ पाने में सफल नहीं हुए, लेकिन एक अभिनेता के नाते उन्होंने खुद को दो कौड़ी का जरूर साबित कर दिया।

इस पूरी फिल्म को एक बुरी किताब पर आधारित बुरी स्क्रिप्ट और उसके केंद्रीय चरित्र के रूप में काम कर रहे अभिनेता के बुरे इरादों की दोहरी मार ने ऐसा चौपट किया कि यह एक बचकानी सी फिल्म बन कर रह गई। अनुपम खेर ने मनमोहन सिंह को क्षति पहुंचाने के चक्कर में इस फिल्म की ही जान निकाल दी। मनमोहन सिंह अपनी जगह अक्षुण्ण रह गये और मीडिया एडवाइजर संजय बारू का चरित्र अपनी नादानी में एक कमजोर कथा के जुनूनी सूत्रधार से अधिक और कुछ नजर नहीं आया। इस फिल्म में आए सोनिया गांधी, राहुल गांधी और अन्य नेताओं के चरित्र भी विशेष कुछ कहते नहीं दिखाई दिये।

वैसे, दिल्ली में आज की सरकार का जो जघन्य, षड़यंत्रकारी और अपराधी स्वरूप है, उसकी पृष्ठभूमि में मनमोहन सिंह और कांग्रेस दल की सरकार का इस फिल्म में दिखाया गया स्वरूप बहुत स्वच्छ, उजला और मुद्दों पर केंद्रित दिखाई देता है। समय इसी प्रकार किसी भी पटकथा के अर्थों को निदेशक की मंशा के विरुद्ध जाकर बदल दिया करता है !

कुल मिला कर इसे एक फालतू फिल्म कहना ही सही होगा। संजय बारू Sanjay Baru की मौके का फायदा उठाने के लिये लिखी गई एक नासमझी भरी किताब का लगभग वैसा ही समय का लाभ उठाने मंशा से निर्मित एक बुरा फिल्मी प्रतिरूप।

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Accidental Prime Minister ': An Extra Accidental Film, Film review of The Accidental Prime Minister,