भारत में एग्जिट पोल्स की शुरुआत कब हुई?

मतदान पूरा होते ही – जैसी कि आशंका थी – सारा मीडिया एग्जिट पोल्स से बजबजाने लगा। कथित सर्वे के आधार पर निकाले गए अनुमानों को सचमुच के परिणामों की तरह दिखाया जाने लगा। इतने अधिकारपूर्वक सीटों का एलान किया जाने लगा कि जैसे गिनती पूरी हो चुकी है और निर्वाचित सांसद भी घोषित किये जा चुके हैं। करीब चार दशक पहले भारत में इस बीमारी की शुरुआत हुई थी, तब से लेकर आज तक इनके सटोरिया अनुमान कितनी कम बार सही और कितने ज्यादा बार गलत साबित हुए इसका लेखा-जोखा याद दिलाना इन पंक्तियों के लिखे जाने का मकसद नहीं है। जब-जब, प्रायः हमेशा ही, एग्जिट पोल्स गलत साबित हुए तब-तब इसे करने वाले क्या-क्या बहाने बनाने आये, कई, बार तो मुड़कर झाँकने भी नहीं आये यह सब जानते हैं इसलिए इसे बताने की भी जरूरत नहीं। यहाँ सिर्फ इससे जुड़े कुछ पहलुओं पर नजर डाल लेना काफी है।

जिस तरह झूठ अर्धसत्य, असत्य से कई गुना खतरनाक होता है उसी तरह साफ़ साफ़ दिखने वाले अज्ञान और अंधविश्वास से ज्यादा घातक होता है छद्म विज्ञान; यही छद्म विज्ञान था जिसने कोरोना में थाली बजाने से बनने वाली झनझनाहट और मोमबत्ती जलाने से होने वाले प्रकाश से कोरोना वायरस के खत्म हो जाने के “वैज्ञानिक” दावे किये, नतीजा यह निकला कि 40 से 45 लाख भारतीय बिना समुचित इलाज के मर गए। यही छद्म विज्ञान है जो जाति श्रेणीक्रम की जघन्यता को सही ठहराने के लिए “विज्ञानसम्मत तर्क” ढूंढकर लाता है।

कितने रुपए का है एग्जिट पोल का धंधा ?

एग्जिट पोल का धंधा – यह छोटा मोटा नहीं हजारों करोड़ का कारोबार है – करने वाले भी अपनी कयासबाजी के समर्थन में इसी तरह का दावा करते हैं, इसे सेफोलोजी बताते हुए कहते हैं कि यह भी एक विज्ञान है।

सेफोलॉजी क्या है? What is psephology?

प्रसंगवश बता दें कि सेफोलोजी (psephology in Hindi) यूनान से आया शब्द है – इसका शाब्दिक अर्थ कंकड़शास्त्र होगा, क्योंकि ग्रीक सभ्यता में चुनाव का काम कंकड़ (पत्थर का छोटा सा टुकड]e) डालकर किया जाता, था। बहरहाल इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि यूनानियों ने कभी इसे विज्ञान माना हो। सिर्फ कंकड़ के आगे “लोजी” लगा देने से यदि इसे विज्ञान मानने का दावा किया जाता है तब तो फिर फेंकोलोजी को भी वैज्ञानिक मानना होगा !! लिहाजा पहले तो इस गलतफहमी को दूर कर लेना चाहिए कि इस धंधे का कोई वैज्ञानिक या तार्किक आधार है; अब तक इस तरह का न कोई विज्ञान आया है ना ही ऐसा कोई त्रुटिहीन – फूलप्रूफ – गणितीय फ़ॉर्मूला ही बना है जिसके आधार पर मतदान के बाद नतीजों के अनुमान लगाने का कोई मोड्यूल बनाया जा सके।

दूसरी बात मतदाता चावल का बोरा या रंधता हुआ भात नहीं है कि दो चार चावलों को देखकर सबके बारे में अंदाज लगाया जा सके। मतदाता कोई खत भी नहीं है कि उस पर “ख़त का मज़मूँ भाँप लेते हैं लिफ़ाफ़ा देख कर” के मिसरे को शब्दश: लागू किया जा सके। हालाँकि ऐसा कहने से पहले खुद इसके शायर ने अपनी बात साफ़ करते हुए इसी शेर में कहा है कि “आदमी पहचाना जाता है क़याफ़ा देख कर” मतलब हर आदमी एक सा नहीं होता उसकी पहचान उसके कयाफा – शक्लोसूरत, बनावट, व्यक्तित्व – को देखकर की जानी चाहिए। क्या एग्जिट पोल का पोलियो फैलाने वाले एग्जिट-पोलिये हर आदमी के कयाफे, उसकी भिन्नता, विशिष्टता को आधार बनाते हैं। नहीं। ज्यादातर पोलिये तो सर्वेक्षण में कहाँ, कितने और कैसे लोगों से बात की उसकी जानकारी ही नहीं देते। जो देते हैं उनके सर्वे का सैंपल सीटों का 10 प्रतिशत और कुल मतदाताओं का 0.0000001 प्रतिशत भी नहीं होता। कोई आधी सदी से वोट डाल रहे इन पंक्तियों के लेखक से आज तक किसी सर्वे कम्पनी ने पूछताछ नहीं की. आज तक किसी पोलिंग बूथ पर किसी से पूछताछ होती हुई भी नहीं देखी।

क्या इतने छोटे से सैंपल के आधार पर दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के जनादेश का समीकरण निकाला जा सकता है ? इस खालिस सट्टेबाजी की हिमायत करने वाले अक्सर अमरीका और यूरोप के देशों में इस तरह के पोल्स का जिक्र करते हैं – बिना यह बताये कि उन देशों में भी वे कितने सही और कितने गलत साबित हुए हैं। वहां भी अब लोग एग्जिट पोल के झमेले को छोड़ चुके हैं और पोस्ट-पोल पर आ चुके हैं; पोस्ट-पोल यानि मतदाता जैसे ही वोट डालकर मतदान केंद्र से बाहर निकलता है वैसे ही बाहर भी उससे उसी तरह गोपनीय वोट लिया जाता है। इसके कुछ हद तक, कुछ ही हद तक, सही निकलने की संभावना होती भी है। मगर अभी भारत में सर्वे उद्योग की कंपनियों का टेसू एग्जिट पोल पर ही अड़ा हुआ है।

इसके अलावा भारत भारत है यूरोप नहीं है। यहाँ का मतदाता एक मतदान केंद्र, एक बसाहट में रहने वाला बराबरी वाला वोटर नहीं है। वह अनेक निर्णायक विविधताओं और गुणात्मक भिन्नताओं वाला मनुष्य है। यूरोप में एडविन या लिओन, एडविन या लिओन ही होते हैं, इसके अलावा अपनी वर्गीय स्थिति के मुताबिक़ वे गरीब, अमीर या मध्यमवर्गी हो सकते हैं। जम्बूद्वीपे भारतखंडे में रामप्रसाद और श्यामप्रसाद सिर्फ रामप्रसाद या श्यामप्रसाद नहीं होते। उनकी पहचान वर्गीय आर्थिक पृष्ठभूमि के अलावा बल्कि उससे ज्यादा - अपवादों को छोड़ दें तो - नियमतः उनके नाम के पहले या बाद में लगे शब्द संबोधन, उनके वर्ण और जाति से तय होती है। यह पहचान उनकी सामाजिक हैसियत को ही नहीं, खुलकर बोलने या न बोलने की उनकी स्थिति को भी निर्धारित करती है। भारतीय समाज जिस रूढ़ और घुटन भरी अवस्था में है, वह एग्जिट पोल में दिए जाने वाले जवाब, यदि दिए जाते हैं तो, की प्रामाणिकता को प्रभावित करती है। सिर्फ यूपी – बिहार, बुन्देलखण्ड, रूहेलखंड ही नहीं देश के बहुमत गाँवों का गरीब दलित आदिवासी या ओबीसी समुदाय का मतदाता, किसको वोट देकर आया है यह पूछे जाने पर, खरा खरा सच बोल देगा यह गलतफहमी वे ही पाल सकते हैं जिन्होंने भारत के गाँव मोहल्ले देखे नहीं है। यही, बल्कि इससे भी ज्यादा खराब स्थिति महिलाओं की है – इनका विराट हिस्सा वोट देने की अपनी पसंद तय नहीं कर सकता, जो छोटा सा हिस्सा अपनी पसंद से वोट डालने का साहस कर भी लेता है वह उसके बारे में अपने परिवार तक में कह नहीं सकता।

इस बार के चुनावों में तो यह और भी मुश्किल था। इस बार चुनाव अजब सन्नाटे में हुए; नागरिक समाज में न कहीं राजनीतिक चर्चाएँ थीं , न बहस थी। एक अजीब सी घुटन भरी ख़ामोशी थी; न बोलना, न बतियाना, न कहना, न सुनना, पूछे जाने पर सूनी आँखों से देखना और जवाब देने से कतराना इस खामोशी की अभिव्यक्ति थी। यह खामोशी अकारण नहीं थी – इसके पीछे अनिश्चितता या संकोच या कोऊ नृप होय ... वाला कैकेयी भाव नहीं था। इसके पीछे डर था जिसे योजनाबद्ध तरीके से पनपाई गयी दहशत के जरिये पैदा किया गया और एक चक्रव्यूह सा रच कर कायम रखा गया है। ऐसे में एग्जिट पोल्स में लोग बोले होंगे यह सोचना ही गलत है।

फिर क्यों बजाया जा रहा है एग्जिट पोल का ढोल ?

इस बहाने मीडिया और कंपनियों द्वारा हजारों करोड़ रुपयों की कमाई के अलावा भी इस ढोल के शोर में कुछ है। चुनाव एक राजनीतिक संग्राम है और युद्ध शास्त्र में एक मोर्चा मनोविज्ञानिक युद्ध का भी होता है। वोट डाले जाने के बाद असली खबर के लिए धीरे-धीरे अनुकूलन करने की आवश्यकता होती है; पिछली वर्षों में यह काम इन एग्जिट पोल्स ने किया है। इस बार ख़ास यह है कि जनता के बड़े हिस्से के मन में निर्वाचन प्रक्रिया को लेकर सन्देह और अविश्वास पैदा हुआ है। ईवीएम को लेकर जो था सो था ही, केंचुआ की सत्ता पार्टी के प्रति खुल्लमखुला और निर्लज्ज पक्षधरता, डाले गए वोटों की संख्या बताने से इनकार और अनावश्यक देरी ने आशंकाओं की आग में घी डाला है। सही या गलत जो हो, नागरिकों का एक बड़ा हिस्सा यह मान रहा है कि इस बार बड़े पैमाने पर परिणामों में धांधली की जा सकती है। इस धांधली की पूर्वतैयारी के लिए एग्जिट पोल्स के जरिये वातावरण बनाया जा रहा है ताकि दीवार पर मोटे-मोटे हरूफों में लिखी जनभावनाओं की इबारत से उलट फैसला आने पर उसे ‘एग्जिट पोल्स ने भी तो यही कहा था’ कहकर गले उतारा जा सके।

यदि ऐसा हुआ तो यह भारत के लोकतंत्र की कपाल क्रिया ही नहीं होगी, यह डेढ़ अरब पहुँचती आबादी वाले देश को अनिश्चितता के घोर अँधेरे में धकेलने का कुकर्म भी होगा। इतिहास गवाह है कि जब-जब संवैधानिक संस्थाओं ने भरोसा खोया है तब तब इस देश की जनता ने उन्हें और उनसे ऐसा करवाने वालों को सजा सुनाई है; उम्मीद है इस बार भी हम भारत के लोग – इन्हीं चार शब्दों से शुरू होने वाले संविधान की रक्षा के लिए सजग रहेंगे; जरूरी हुआ तो सड़क पर उतरेंगे ताकि संसद आवारा होने से बचाई जा सके।

बादल सरोज

सम्पादक लोकजतन . संयुक्त सचिव अखिल भारतीय किसान सभा

Exit polls; are they just a business or do they have some other intentions?