कत्ल हुए ख्वाबों का खून आपके हाथों में हैं, ओबामा! दुनिया नहीं बदली, न जाति, धर्म, नस्ल, रंग के नाम नरसंहार थमा है।
भारत में जाति, अस्पृश्यता और रंगभेद का त्रिशूल हिंदुत्व का सबसे घातक हथियार है, जो अब फासिज्म का राजकाज है। मुक्त बाजार भी वही है। दुनिया यह देख रही है कि भारत ‘हिंदू राष्ट्रवादी उन्माद’ से कैसे निपटता है! पलाश विश्वास कत्ल हुए ख्वाबों का खून आपके हाथों में हैं, ओबामा! दुनिया नहीं बदली, न जाति, धर्म, नस्ल, रंग के नाम नरसंहार थमा है।
विदाई भाषण में सबसे गौरतलब रंगभेद पर बाराक ओबामा का बयान है।
रंगभेद पर अपने विचार रखते हुए ओबामा ने कहा कि अब स्थिति में काफी सुधार है जैसे कई सालों पहले हालात थे अब वैसे नहीं हैं। हालांकि रंगभेद अभी भी समाज का एक विघटनकारी तत्व है। इसे खत्म करने के लिए लोगों के हृदय परिवर्तन की जरूरत है, सिर्फ कानून से काम नहीं चलेगा।
भारत आजाद होने के बाद, बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर का संविधान लागू हो जाने के बाद, दलितों की सत्ता में ऊपर से नीचे तक भागेदारी के बाद हमारे लोग भी दावा करते हैं कि जाति टूट रही है या फिर जाति नहीं है।
हद से हद इतना मानेंगे कि जाति तो है, लेकिन साहेब न अस्पृश्यता है और न रंगभेद कहीं है। सच यह है कि भारत में जाति, अस्पृश्यता और रंगभेद का त्रिशुल हिंदुत्व का सबसे घातक हथियार है, जो अब फासिज्म का राजकाज है। मुक्त बाजार भी वही है।
दुनिया भर के अश्वेतों को उम्मीद थी कि बाराक ओबामा की तख्तपोशी से अश्वेतों की दुनिया बदल जायेगी। मार्टिन लूथर किंग का सपना सच होगा। ओबामा की विदाई के बाद अब साफ हो गया है कि दुनिया बदली नहीं है। दुनिया का सच रंगभेद है। तैंतालीस अमेरिकी श्वेत राष्ट्रपतियों से बाराक ओबामा कितने अलग हैं, अभी पता नहीं चला है। जाते-जाते वे लेकिन
ओबामा ने यह भी कहा कि कुछ लोग जब अपने को दूसरों के मुकाबले ज्यादा अमेरिकी समझते हैं तो समस्या वहां से शुरू होती है।
ओबामा ने मान लिया कि अमेरिका में रंगभेद अब भी है। रंगभेद अब भी है। हमारी आजादी का सच भी यही है। यह सच जितना अमेरिका का है, उतना ही बाकी दुनिया का सबसे बड़ा सच है यह।
यह भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास भूगोल का सच है जो विज्ञान के विरुद्ध है। मुक्त बाजार में तकनीक सबसे खास है। तकनीक लेकिन ज्ञान नहीं है। हमने तकनीक सीख ली है और सीख भी रहे हैं।
कहने को जयभीम है। कहने को नमोबुद्धाय है। हमारी जिंदगी में न कहीं भीम है और न कहीं बुद्ध है। हमारी जिंदगी अब भीम ऐप है, जिसमें भीम कहीं नहीं है। हमारी जिंदगी मुक्त बाजार है, जिसमें मुक्ति कहीं नहीं है गुलामी के सिवाय। गुलामगिरि इकलौता सच है।
दिलोदिमाग में गहराई तक बिंधा है जाति, अस्पृश्यता और रंगभेद का त्रिशूल। जो हमारा धर्म है, हमारा कर्म है। कर्मफल है। नियति है। सशरीर स्वर्गवास है। राजनीति वही।
गुलामी का टैग लगाये हम आदमजाद नंगे सरेबाजार आजाद घूम रहे हैं। वातानुकूलित दड़बों में फिर हम वही आदमजाद नंगे हैं। लोकतंत्र के मुक्तबाजारी कार्निवाल में भी हमारा मुखौटा हमारी पहचान है, टैग किया नंबर असल है और बाकी फिर हम सारे लोग नंगे हैं और हमें नंगे होने का अहसास भी नहीं है। शर्म काहे की।
इसलिए घर परिवार समाज में कहीं भी संवाद का, विमर्श का कोई माहौल है नहीं। चौपाल खत्म है खेत खलिहान कब्रिस्तान है। देहात जनपद सन्नाटा है। नगर उपनग महानगर पागल दौड़ है अंधी।
हमारे देश में हर कोई खुद को ज्यादा हिंदुस्तानी मानने लगा है इन दिनों और इसमें हर्ज शायद कोई न हो, लेकिन दिक्कत यह है कि हर कोई दूसरे को विदेशी मानने लगा है इन दिनों। हर दूसरा नागरिक संदिग्ध है।
हर आदिवासी माओवादी है। हर तीसरा नागरिक राष्ट्रद्रोही है। देशभक्ति केसरिया सुनामी है। बाकी लोग कतार में मरने को अभिशप्त हैं। या फिर मुठभेड़ में मारे जाने वाले हैं। जो खामोश हैं जरूरत से जियादा, वे भी मारे जायेंगे। चीखने तक की आदत जिन्हें नहीं है।
असहिष्णुता का विचित्र लोकतंत्र है। अस्पृश्यता अब भी जारी है। अब भी भारत में भ्रूण हत्या दहेज हत्या घरेलू हिंसा आम है। स्वच्छता अभियान में थोक शौचालयों का स्वच्छ भारत का विज्ञापन पग पग पर है और लोग सीवर में जिंदगी गुजर बसर कर रहे हैं। सर पर पाखाना ढो रहे हैं।
अमेरिका में रंगभेद सर चढ़कर बोल रहा है इन दिनों और मारे यहां जाति व्यवस्था के तहत हर किसी के पांवों के नीचे दबी इंसानियत अस्पृश्य है।
रंगभेद से ज्यादा खतरनाक है यह जाति, जिसे मनुस्मृति शासन बहाल करके और मजबूत बनाने की राजनीति में हम सभी कमोबेश शामिल हैं।
विज्ञान और तकनीक जाहिर है कि हमें समता न्याय सहिष्णुता का पाठ समझाने में नाकाफी है उसी तरह, जैसे दुनिया का सबसे शक्तिशाली राष्ट्र में रंगभेद की संस्कृति उसकी आधुनिकता है और हमारे यहां सारा का सारा उत्तर आधुनिक विमर्श और उसका जादुई यथार्थ ज्ञान विज्ञान, तकनीक वंचितों, दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों के विरुद्ध है। असहिष्णुता, असमता, अन्याय और अत्याचार हमारे लोकतंत्र के विविध आयाम है और बहुलता के खिलाफ अविराम युद्ध है विधर्मियों के खिलाफ खुल्ला युद्ध, सैन्यतंत्र जो अमेरिका का भी सच है।
इसलिए बाराक ओबामा की विदाई का तात्पर्य भारतीय संदर्भ में समझना अनिवार्य है।
यूपी में दंगल के मध्य नोटबंदी के नरसंहार कार्यक्रम को अंजाम देने के बाद जब अमेरिकी मीडिया भी इसे भारतीय जनता के खिलाफ सत्यानाश का कार्यक्रम बता रहा है, जब विकास दर घट रहा है तेजी से और भारत भुखमरी, बेरोजगारी और मंदी के रूबरू लगातार हिंदुत्व के शिकंजे में फंसता जा रहा है, तब अमेरिकी अश्वेत राष्ट्रपति की विदाई के वक्त भारत के बारे में अमेरिकी नजरिया क्या है, गौरतलब है।
एक अमेरिकी खुफिया रिपोर्ट में यह बात कही गई है कि अगले पांच साल में भारत की ग्रोथ सबसे तेज रहेगी, लेकिन दुनिया यह भी देख रही है कि वह ‘हिंदू राष्ट्रवादी उन्माद’ से कैसे निपटता है, जिसके चलते अल्पसंख्यकों के साथ तनाव बढ़ रहा है।
हमारे समय के प्रतिनिधि कवि मंगलेश डबराल ने इस संकट पर बेहद प्रासंगिक टिप्पणी की हैः
आप कहाँ से आ रहे हैं?--फेसबुक से. आप कहाँ रहते हैं?--फेसबुक पर. आप का जन्म कहाँ हुआ?--फेसबुक पर. आप कहाँ जायेंगे?--फेसबुक पर. आप कहाँ के नागरिक हैं?--फेसबुक के.
गौरतलब है कि विश्व के महान धर्मों के मानने वालों में यहूदी, पारसी और हिन्दू अन्य धर्मावलंबियों को अपनी ओर आकृष्ट करके उनका धर्म बदलने में कोई रुचि नहीं रखते। लेकिन दुनिया में संभवतः हिन्दू धर्म ही एकमात्र ऐसा धर्म है जो अपने मानने वालों के एक बहुत बड़े समुदाय को अपने से दूर ठेलने की हरचंद कोशिश करता है और उन्हें अपने मंदिरों में न प्रवेश करने की इजाजत देता है, न देवताओं की पूजा करने की।
अबाध पूंजी की तरह मुक्त बाजार की गुलामी का यह सबसे बड़ा सच है कि अस्पृश्यता का राजकाज है और रंगभेद बेलगाम है।
रंगभेदी फासिज्म संस्कृति है। मुक्तबाजार में संवाद नहीं है। हर कोई नरसिस महान है। आत्ममुग्ध। अपना फोटो, अपना अलबम, अपना परिवार, अपना यश , अपना ऐश्वर्य यही है दुनिया फेसबुक नागरिकों की।
मंकी बातें कह दीं, लेकिन पलटकर कौन क्या कह रहा है, दूसरा पक्ष क्या है, इसे सुनने, देखने, पढ़ने की कतई कोई जरुरत नहीं है।
लाइक करके छोड़ दीजिये और बाकी कुछ भी सोचने समझने की कोई जरुरत नहीं है। घर परिवार समाज में संवादहीनता का सच है फेसबुक, उसके बाहर की दुनिया से किसी को कोई मतलब नहीं है क्योंकि वह दुनिया मुक्तबाजार है।
जहां समता, न्याय, प्रेम, भ्रातृत्व, दांपत्य, परिवार, समाज की कोई जगह नहीं है। बाकी अमूर्त देश है। इस्तेमाल करो, फेंक दो। स्मृतियों का कोई मोल नहीं है। संबंधों का कोई भाव नहीं है। न उत्पादन है और न उत्पादन संबंध है।
बाजार है। कैशलैस डिजिटलहै। तकनीक है। तकनीक बोल रही है और इंसानियत मर रही है। इतिहास मर रहा है और पुनरूत्थान हो रहा है। लोकतंत्र खत्म है और नरसिस महान तानाशाह है। राजकाज फासिज्म है।
2008 के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के दौरान हमने याहू ग्रुप के अलावा ब्लागिंग शुऱु कर दी थी। तब हम हिंदी में नेट पर लिख नहीं पा रहे थे और गूगल आया नहीं था। हाटमेल, याहू मेल, सिफी और इंडिया टाइम्स, रेडिफ का जमाना था। अंग्रेजी में ही लिखना होता था।
समयांतर में तब हम नियमित लिख रहे थे बरसों से। महीने भर इंतजार रहता था किसी भी मुद्दे पर लिखने छपने का।
थोड़ा बहुत इधर उधर छप उप जाता था। तबसे विकास सिर्फ तकनीक का हुआ है। बाकी सब कुछ सत्यानाश है। निजीकरण, ग्लोबीकरण उदारीकरण विनिवेश का जादुई यथार्थ है।
मीडिया तब भी इतना कारपोरेट और पालतू न था। देश भर में आना जाना था। बाराक ओबामा का हमने दुनिया भर में खुलकर समर्थन किया था। हमारे ब्लाग नंदीग्राम यूनाइटेड में बाकायदा विजेट लगा था अमेरिकी चुनाव के अपडेट साथ ओबामा के समर्थन की अपील के साथ।
शिकागो में अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव जीतने के बाद ओबामा की आवाज में सिर्फ अमेरिका के ख्वाब नहीं थे, रंगभेद, जाति व्यवस्था, भेदभाव और असहिष्णुता के खिलाफ विश्वव्यापी बदलाव के सुनहले दिनों की उम्मीदें थीं। वायदे के मुताबिक इराक और अफगानिस्तान के तेल कुओं से अमेरिकी सेना को निकालने का काम ओबामा ने अमेरिकी हितों के मुताबिक बखूब कर दिखाया।
2008 की भयंकर मंदी से अमेरिकी अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के काम में उनने व्हाइट हाउस में आठ साल बीता दिये। जायनी वर्चस्व के खिलाफ वे वैसे ही नहीं बोले जैसे अनुसूचितों, पिछड़ों, सिखों, ईसाइयों और मुसलमानों के चुने हुए लोग मूक वधिर हैं।
ओबामा की विदाई के बाद सवाल यह बिना जबाव का रह गया है कि अश्वेतों की अछूतों को समानता और न्याय दिलाने के ख्वाबों का क्या हुआ।
ओबामा ने कहा, वी कैन, वी डिड। चुनाव जीतने और पहले अश्वेत राष्ट्रपति बनने के बाद उन्होंने क्या किया, यह पहेली अनसुलझी है।
भारत में गुजरात नरसंहार में अभियुक्त को क्लीन चिट देकर उनसे अंतरंगता के सिवाय भारतीय उपमहाद्वीप को उनके राजकाज से आखिर क्या हासिल हुआ?
अमेरिकी युद्धक अर्थव्यवस्था को बदलने और अमेरिकी राष्ट्र और सत्ता प्रतिष्ठान पर जायनी वर्चस्व को रोकने में ओबामा सिरे से नाकाम रहे। पहले कार्यकाल में उनने इजराइल की ओर से अमेरिकी विरोधी, प्रकृति विरोधी मनुष्यता विरोधी मैडम हिलेरी क्लिंटन को विदेश मंत्री बनाया तो दूसरे कार्यकाल में उनके एनडोर्स मेंट से ही हिलेरी डेमोक्रेट पार्टी की राष्ट्रपति उम्मीदवार बनीं।
नतीजा अब इतिहास है।
अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में हिलेरी क्लिंटन की हार के बाद, द वॉशिंगटन पोस्ट ने लिखा था, 'जिन 700 काउंटियों ने ओबामा का समर्थन करके उन्हें राष्ट्रपति बनाया, उनमें से एक तिहाई डोनाल्ड ट्रंप के खेमे में चले गए।
ट्रंप ने उन 207 काउंटियों में से 194 का समर्थन हासिल किया, जिन्होंने या तो 2008 या फिर 2012 में ओबामा का समर्थन किया था'।
इसकी तुलना में उन 2200 काउंटियों में जिन्होंने कभी ओबामा का समर्थन नही किया, हिलेरी क्लिंटन को सिर्फ छह का साथ मिल सका। यानी ट्रंप के खेमे से सिर्फ 0.3 फीसद वोट हिलेरी के खाते में आ सके।
आप आठ साल तक व्हाइट हाउस में क्या कर रहे थे कि ट्रंप के हक में यह नौबत आ गयी? आठ साल तक फर्स्ट लेडी रही मिशेल ओबामा की विदाई भाषण में अमेरिका में असहिष्णुता की जो कयामती फिजां बेपर्दा हुई, वह सिर्फ अमेरिका का संकट नहीं है क्योंकि दुनिया कतई बदली नहीं है और न मार्टिन लूथर किंग के ख्वाबों को अंजाम तक पहुंचाने का कोई काम हुआ है।
जैसे आजाद भारत में बाबा साहेब अंबेडकर का मिशन है। युद्धक अर्थव्यवस्था होने की वजह से अमेरिकी जनता की तकलीफें , उनकी गरीबी और बेरोजगारी में निरंतर इजाफा हुआ है।
यह संकट 2008 की मंदी की निरंतरता ही कही जानी चाहिए। दूसरी तरफ यह संकट अब विश्वव्यापी है क्योंकि दुनियाभर की सरकारें, अर्थव्यवस्थाएं व्हाइट हाउस और पेंटागन से नत्थी हैं।
इस पर तुर्रा यह कि भारत में भक्त मीडिया का प्रचार ढाक डोल के साथ यह है कि व्हाइट हाउस से विदाई के बाद भी ओबामा और मोदी के बीच हाटलाइन बना रहेगा।
ओबामा साहेब, मोदी से दोस्ती और हिलेरी के साथ दुनिया बदलने का ख्वाब बेमायने हैं।
इस धतकरम की वजह से जाते जाते अमेरिका और दुनिया को डोनाल्ड ट्रंप जैसे धुर दक्षिणपंथी कुक्लाक्सक्लान के नरसंहारी रंगभेदी संस्कृति के हवाले कर गये आप। दुनिया में वर्ण, जाति रंगभेद का माहौल बदला नहीं, यह भी आप कह गये।
भारत में हिंदुत्व एजेंडा और भारत में मनुस्मृति शासन बहाल रखने के तंत्र मंत्र यंत्र को मजबूत बनाते हुए आप कैसे डोनाल्ड ट्रंप को रोक सकते थे, सवाल यह है।
सवाल यह भी है कि भारत और बाकी दुनिया में असहिष्णुता के फासिस्ट राजकाज के साथ नत्थी होकर अमेरिका में फासिज्म को आप कैसे रोक सकते थे? गौरतलब है कि आठ साल तक अमेरिका के राष्ट्रपति रहे बराक ओबामा ने आज अपने आखिरी संबोधन में भी महिलाओं, LGBT कम्युनिटी और मुसलमानों के साथ हो रहे भेदभाव के खिलाफ आवाज़ उठाने के आह्वान के साथ ख़त्म की।
ओबामा की ये स्पीच 'Yes We Can' के उसी नारे के साथ ख़त्म हुआ जिससे उनके पहले कार्यकाल के चुनाव प्रचार की शुरूआत हुई थी।
ओबामा ने लोगों का शुक्रिया अदा किया। उन्होंने कहा-
"मैंने रोज आपसे सीखा। आप लोगों ने ही मुझे एक अच्छा इंसान और एक बेहतर प्रेसिडेंट बनाया।"
बता दें कि उनका कार्यकाल 20 जनवरी को खत्म हो रहा है। इसी दिन डोनाल्ड ट्रम्प नए प्रेसिडेंट के रूप में शपथ लेंगे।
उन्होंने कहा,
"हर पैमाने पर अमेरिका आज आठ साल पहले की तुलना में और बेहतर और मजबूत हुआ है। "
उन्होंने राष्ट्रपति चुनाव में हारने वाली अपनी डेमोक्रेटिक पार्टी के मनोबल को बढ़ाने की कोशिश में कहा कि बदलाव लाने की अपनी क्षमता को कभी कम ना आंके। इसका समापन उन्होंने अपने चिरपरिचित वाक्य 'यस वी कैन' (हां, हम कर सकते हैं) से किया। ओबामा ने स्पीच में कई और खास बातें कही थी। उन्होंने कहा था कि अमेरिका बेहतर और मजबूत बना है। पिछले आठ साल में एक भी आतंकी हमला नहीं हुआ। सीरिया संकट और तेलयुद्ध के साथ दुनियाभर में आतंकवाद के निर्यात की वजह से दुनियाभर में युद्ध और शरणार्थी संकट के बारे में जाहिर है कि उन्होंने कुछ नहीं कहा।
हालांकि उन्होंने कहा कि बोस्टन और ऑरलैंडो हमें याद दिलाता है कि कट्टरता कितनी खतरनाक हो सकती है।
उन्होंने अमेरिकी चुनाव में रूस के हस्तक्षेप के आरोपों के बीच दावा किया कि अमेरिकी एजेंसियों पहले से कहीं अधिक प्रभावी हैं।
फिर उन्होंने दुनिया से फिर वायदा किया कि आईएसआईएस खत्म होगा। कड़ी चेतावनी दी है कि अमेरिका के लिए जो भी खतरा पैदा करेगा, वो सुरक्षित नहीं रहेगा। अमेरिकी सैन्य उपस्थिति और अमेरिकी सैन्य हस्तक्षेप के इतिहास के मद्देनजर, खासतौर पर भारत अमेरिका परमाणु संधि और युद्धक साझेदारी के मद्देनजर भारत के