कबीर की कविता के बहाने नए सवाल

यह कबीर का युग नहीं है स्त्री साहित्य और दलित साहित्य का युग है। कबीर-तुलसी-सूर आदि के बहाने हिन्दी आलोचना में पहली परंपरा और दूसरी परंपरा के आलोचक लंबे समय से पुंसवादी शास्त्र और पुंससाहित्य का प्रसार -प्रचार करते रहे हैं। इन लोगों से सवाल किया जाना चाहिए कि कबीर के बहाने उनका राजनीतिक खेल क्या है ? आखिर इस आलोचना की मंशा और राजनीति क्या है ? कबीर के नाम पर ये साहित्य में किसकी राजनीति खेल रहे हैं ? कबीर के आलोचक-लेखक सत्ता गेम का अंग रहे हैं।

बड़ी जद्दोजहद के बाद स्त्री साहित्य और दलित साहित्य केन्द्र में आया है। अब संक्षेप में...

कबीर की कविता महज कविता नहीं है। वह शब्दों का खेलमात्र नहीं है। बल्कि शब्दों में सांस्कृतिक पावरगेम चल रहा है। कबीर ने काव्य रचना महज स्वतःस्फूर्त्त भाव से नहीं की बल्कि उनकी कविता तत्कालीन पावरगेम का हिस्सा है। इस अर्थ में उसे महज शब्दार्थ वाली पद्धति से समझने में दिक्कत आती है। यही स्थिति अन्य भक्त कवियों की है।

कबीर और उनके समकालीनों के यहां आत्मगत भावों की अभिव्यक्ति के साथ-साथ पावरगेम का तानाबाना भी है। समस्या यह है कि क्या सामयिक पावरगेम से निकालकर किसी भी भक्त कवि को पढ़ा जा सकता है, किसी भी मध्यकालीन या प्राचीनयुगीन पाठ को पढ़ा जा सकता है ?

एक अन्य समस्या है कबीर में व्यक्तिगत और आधुनिक भाव बोध को खोजने की। इस मामले में कम्युनिकेशन के विकास की प्रक्रिया का सही ज्ञान ही हमें मदद कर सकता है। शब्दों के लिखने की कला के विकसित हो जाने के बाद लिखित शब्द व्यक्तिगत की अभिव्यक्ति करना बंद कर देते हैं।

लेखक जब अपने युग के साथ मुठभेड़ करता है, संवाद करता है और शब्दों में लिखता है तो उसके निजी की अभिव्यक्ति नहीं होती, वह सामाजिक की अभिव्यक्ति करता है। वह अपने निजी को सामाजिक में स्थानान्तरित कर देता है। हमारे हिन्दी के अधिकांश आलोचक यह मानते हैं कि भक्ति आंदोलन के कवियों के यहां व्यक्तिगत बड़ी मात्रा में है। वे लेखन के युग के आने के साथ ही शब्द में से निज के सामाजिक हो जाने की प्रक्रिया की अनदेखी करते हैं।

वाचिक युग में शब्द अपनी मनमानी क्रीड़ा करते हैं, लेकिन लेखन के युग में वे ऐसा नहीं कर पाते। कबीर का युग लेखन का युग है वाचन का युग नहीं है। इस दौर में कवि लिखता था। लिपिबद्ध करने की कला का विकास हो चुका था। अतः इस दौर की कविता में व्यक्त भावों को निजता के दायरे में नहीं रख सकते। वाचन के युग में शब्दों का अनियंत्रित खेल था, मनमानापन था। लेकिन लेखन के युग के आने के साथ यह मनमानापन खत्म हो जाता है। पहले विषय के अभिव्यक्त करने के लिए शब्दों की जरूरत होती थी, लेकिन लेखन के युग में आने के बाद शब्द ही विषय बन गए। यही वजह है कबीर और अन्य कवियों के भाषिक प्रयोगों और उनकी व्याख्याओं पर बेशुमार ऊर्जा खर्च की गई है। वाचिक शब्द हमेशा जनता और यथार्थ से जुड़े रहते हैं। लेकिन लिखित शब्द के साथ ऐसा नहीं होता वहां अमूर्त्तन की स्थिति होती है। कबीर के यहां जिन्हें हम रहस्यपरक भाषिक प्रयोग मानते हैं उनका बुनियादी कारण है इस युग के कवियों का वाचन से लेखन के युग में पदार्पण। लिखित भाव में आते ही शब्दों के तर्कशास्त्र, सिद्धांत और विश्लेषण का सिलसिला चल पड़ता है।

कबीर की कविता की खूबी क्या है

कबीर की कविता की खूबी है कि वे शब्दों को सुनते नहीं हैं, बल्कि देखते हैं। संस्कृति को सुनते नहीं देखते हैं। इसके कारण ही वे कविता में मात्र भावों की अभिव्यक्ति नहीं करते बल्कि संस्कृति का विश्लेषण करते हैं। क्योंकि वे संस्कृति को सुनते नहीं हैं, देखते हैं। इस क्रम में वे भाषा की त्रुटियों या भदेसभाषा में भी सहज रूप में चले जाते हैं कबीर के लिए संस्कृति की भाषा शिष्टभाषा नहीं है, बल्कि वे जिस भाषा को देख रहे हैं वही है।

कबीर की कविता की भाषा में विषय और व्यक्ति, शब्द, अर्थ और सामाजिक भूमिका और इससे भी ऊपर सामयिक जिंदगी की धुन का छंद हावी है। भक्ति आंदोलन के अधिकतर कवियों को भक्त कवि कहा जाता है वे कवि हैं, भक्तकवि नहीं हैं। भक्त का संसार अलग है, कवि का संसार अलग है। ये दार्शनिक नहीं हैं, कवि हैं। भक्त भगवान की सुनता है कवि भगवान की नहीं सुनता। उपदेशक भगवान की सुनता है कवि नहीं सुनता। भक्ति आंदोलन के कवियों ने कानों से संस्कृति को नहीं सुना था, आंखों से देखा था।

संस्कृति को सुनना और देखना इन दोनों में बुनियादी अंतर होता है। संस्कृति को कानों से सुनने का अर्थ अनुकरण करना और संस्कृति को आंखों से देखने का अर्थ है अपने को अलग करना, पृथक करना। भक्ति आंदोलन के कवियों के द्वारा संस्कृति, जाति प्रथा, भेदभाव आदि बातों की जो काव्यालोचना मिलती है उसका कारण यह नहीं है उनके पास आधुनिकभावबोध था, बल्कि उसका प्रधान कारण है इन कवियों का संस्कृति को देखना। वे संस्कृति को आंखों से देख रहे थे। आंखों से देखने के कारण ही वे अपनी कविता में तमाम किस्म की सांस्कृतिक रूढ़ियों को आलोचनात्मक नजरिए से देखने में सफल रहते हैं। हिंदी समीक्षा के नजरिए की यही बुनियादी कमजोरी है कि वह लेखन के युग में शब्द और संस्कृति की प्रक्रिया में आए बुनियादी बदलावों को पकड़ने में असमर्थ रही है।

भक्ति आंदोलन के कवि सुनते नहीं हैं आंखों से देखते हैं। वे वाचिक युग में नहीं हैं बल्कि लेखन के युग में हैं। यह प्रक्रिया आधुनिक काल और भक्तिकाल के बहुत पहले से भारत में आरंभ हो गयी थी। भक्ति आंदोलन के कवि उस परंपरा का हिस्सा है। वे संस्कृति को आंखों से देखते हैं। हम भी संस्कृति को आंखों से देखें।

जगदीश्वर चतुर्वेदी

Kabir's poetry is not just poetry