कॉ. करात यह तो वामपंथ को दिग्भ्रमित करके पंगु बनाने का उपक्रम है
कॉ. करात यह तो वामपंथ को दिग्भ्रमित करके पंगु बनाने का उपक्रम है
वामपंथ को दिग्भ्रमित करके पंगु बनाने का उपक्रम
अरुण माहेश्वरी
प्रकाश करात के बारे में कन्हैया कुमार ने टेलिग्राफ में उनके 6 सितंबर के इंडियन एक्सप्रेस के लेख 'Know your Enemy की प्रतिक्रिया में कहा है कि –
कामरेड अगर आप लड़ नहीं सकते तो सेवा निवृत्त होकर न्यूयार्क में जाकर बैठ जाइये।
अपने उक्त लेख में प्रकाश करात ने पूरे दम-खम के साथ यह ऐलान किया था कि भाजपा फ़ासिस्ट नहीं है।
कहना न होगा, प्रकाश करात की इस मुनादी ने सीपीआई(एम) के लोगों को एक नया कार्यभार सौंपा है कि वे अब लोगों को यह समझायें कि भाजपा फ़ासिस्ट नहीं है। अब तक आरएसएस-भाजपा के बारे में तमाम अध्येताओं ने इनके जन्म से लेकर आज तक के इतिहास के बारे में अध्ययन करके इनमें जिन तमाम लक्षणों की पहचान की हैं, प्रकाश ने अपनी अन्त:प्रज्ञा से उन्हें फूँक मार कर उड़ा दिया है।
हिटलर ने किस प्रकार की तमाम दगाबाजियों से जर्मनी की पूरी सत्ता हड़पी थी, इस इतिहास को जानने के बाद भी प्रकाश राजनीति में किसी भी बड़े शासक दल की बुनियादी विचारधारा और उसकी कार्यपद्धति से जाहिर होने वाले तमाम लक्षणों को कोई महत्व देने के लिये तैयार नहीं है।
अर्थात् जब तक आरएसएस हिटलर की तरह पूरे प्रतिपक्ष को मसल कर ख़त्म नहीं कर देता, गुजरात का जनसंहार काफी नहीं है, वह हिटलर जैसा कोई हॉलोकास्ट नहीं करता, वह फ़ासिस्ट कहलाने का हक़दार नहीं हो सकता है।
वे अपनी राजनीतिक विचक्षणता का परिचय देते हुए सबको यह उपदेश देना चाहते हैं कि शत्रु की पहचान में किसी प्रकार का अतिरेक उचित नहीं है। वह जैसा है, उसी रूप में उसे देखा जाना चाहिए ! अन्यथा हम अपनी रणनीति और कार्यनीति के सही रूप में तय नहीं कर पायेंगे !
प्रकाश यह नहीं जानते कि कोई भी चीज एक समय जैसी होती है, दूसरे ही पल वैसी नहीं रहती है।
हिटलर के ऊपर के उदाहरण की गहराई से जाने से ही साफ पता चल जायेगा कि 1923 में जेल से निकल कर नाजी पार्टी के पुनर्गठन के बाद ही हिटलर ने राष्ट्रपति पद के लिये हिंडनबर्ग की हाथों पराजित होकर फिर उन्हें ही झांसा देकर किस प्रकार जर्मन संसद में मात्र एक तिहाई सीटों के बल पर वहां का चांसलर बन गया और पूरी राजसत्ता को अपने हाथ में लेने में सफल हुआ। उसी क्षण पहले के हिटलर और बाद के हिटलर में जमीन आसमान का फर्क आ गया।
ऐसी नौबत आ जाने पर फिर स्थिति सबके नियंत्रण के बाहर चली जाती है। इसीलिये हर प्रकार के अध्ययनों में वस्तु के लक्षणों का बेहद महत्व होता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उन लक्षणों ने तब तक और विकसित होकर अपने किसी सर्वकालिक universal रूप को पूरी तरह से प्रकट किया है या नहीं।
प्रकाश का दलील है कि बीजेपी को फ़ासिस्ट कह देने पर अर्थनीति के मोर्चों पर वामपंथ की लड़ाई से पटरी से उतर जायेगी। यह एक धोखा और सोचने के ढंग में कोरी यांत्रिकता है। आपने भाजपा के फासीवाद की पहचान कर ली तो आप अपने एजेंडे से हट जायेंगे की तरह का तर्क हास्यास्पद है।
अर्थात, अपने एजेंडे पर बने रहने के लिये आरएसएस-भाजपा के मूल चरित्र के प्रति एक हद तक अंधता को अपना कर चलना चाहिए। घोड़ागाड़ी में जुते घोड़े के चश्मों की तरह, इधर-उधर बिना देखे एक साधे
दुश्मन को पहचानने का प्रकाश का यह तरीक़ा उसकी तात्कालिक एक भ्रामक सच्चाई को तेज़ रोशनी के फ़ोकस में डाल कर उसके पूरे सच को लोगों की नजर से ओझल कर देने का तरीक़ा है !
मूल बात यह है कि प्रकाश यह सारा तुमार सांप्रदायिक फासीवाद के खिलाफ सभी धर्मनिरपेक्ष ताक़तों की एकता की नीति के रास्ते में बाधा डालने के लिये बांध रहे हैं, क्योंकि ऐसे व्यापकतम संयुक्त मोर्चे में स्वाभाविक तौर पर कांग्रेस का भी एक स्थान होगा।
भारतीय राजनीति की प्रकाश की पूरी समझ में कांग्रेस बैल के लिये किसी लाल कपड़े से कम नहीं जान पड़ती है। अगर उसे किसी प्रकार एक बार के लिये अलग कर दिया जाए, तो शायद उन्हें भाजपा को फासीवादी मान कर फासीवाद के खिलाफ तथाकथित तीसरे विकल्प की बात को मान मान लेने में कोई आपत्ति नहीं होगी।
कहना न होगा, यह प्रकारांतर से फासीवाद के खिलाफ व्यापकतम संयुक्त मोर्चा की लड़ाई को शुरू में ही पूरी तरह से ठुकरा देने जैसा है।
तीसरे मोर्चे की जिन ताक़तों में न कोई आपसी संहति है, न अर्थनीति से लेकर अन्य अनेक मामलों में वामपंथ के साथ कोई संगबि और जो बहुत ही सीमित क्षेत्रों में प्रभाव रखने वाली नगण्य ताक़तें हैं, सिर्फ उनके भरोसे एक तेज़ी से उदीयमान फासीवादी ताक़त का प्रतिरोध करने की कल्पना भी करना, सचमुच फासीवाद का कोई प्रतिरोध न करने की लाईन को शुरू में ही अपना कर चलने की सिफारिश करने जैसा होगा।
इस पूरे उपक्रम से लगता है कि सीपीएम का एक पूर्व सचिव अपनी पुरानी भूलों को सही बताने के बारे में ज्यादा चिंतित है, न कि जनतंत्र और मानव-अधिकारों पर हो रहे नग्न हमलों का कोई वास्तविक प्रतिरोध खड़ा करने में।
यह पार्टी में अपनी स्थिति का एक प्रकार से दुरुपयोग है जो निजी एजेंडे के लिये सैद्धांतिकता की धोखे की टट्टी तैयार कर रहा है। यह पूरी पार्टी को पंगु बनाने और दिग्भ्रमित करने का उपक्रम है। इस सैद्धांतिक व्यायाम का इसके अतिरिक्त दूसरा कोई मायने नहीं हो सकता है।
जिन लोगों ने थर्ड राइख के इतिहास का अध्ययन किया है, उनका यह भी मानना रहा है कि हिटलर की उबाऊ आत्मजीवनी 'माइन काम्फ़ ' का पहले ही सही ढंग से अध्ययन किया गया होता तो दुनिया को उन तमाम भारी बर्बादियों से समय रहते बचा लिया गया होता।
जर्मन इतिहासकार वर्न मेसर अपनी पुस्तक ‘हिटलर्स माइन कैम्फ ऐन एनालिसिस’ के दूसरे अध्याय का प्रारम्भ वे इस कथन से करते हैं कि
’’इस अध्याय में यह बताया जाएगा कि हिटलर के अधिकांश प्रमुख विचार तथा सत्ता पर आने के बाद उसके निर्णयों की पृष्ठभूमि, ये सब ’’माइन कैम्प’’ में मौजूद थे।
इसका मतलब हिटलर के राज्य की भयावहता को ही दिखाना नहीं होगा, बल्कि यह साबित करना होगा कि 1933 के पहले ही हिटलर की पुस्तक का यदि गम्भीरता से अध्ययन किया जाता या सिर्फ अकादमिक उद्देश्य के लिए नहीं बल्कि अन्य उद्देश्यों से भी उनके सिद्धान्तों को नोट किया जाता तो यह कितना अअधिक लाभदायी हो सकता था तथा ऐसा करना कितना जरूरी था...
उसकी पुस्तक के प्रथम खण्ड के पहले संस्करण के अधययन से ही लोगों को ’’रूस’’ के साथ युद्ध की आवश्यकता, अन्य जातियों के लोगों का ’’अनिवार्य’’ खात्मा या ’’संधि’’ से हिटलर का तात्पर्य क्या था, इन्हें समझा जा सकता था।
वास्तव में हिटलर ने जर्मनी और सारी दुनिया पर जो भयंकर कहर बरपा किया था, उसके बिल्कुल साफ और विस्तृत कार्यक्रम को ’’माइन कैम्फ’ में रख दिया गया था और हिटलर ने उसी पुस्तक की घोषणाओं और भविष्यवाणियों पर अपने राज में निष्ठा के साथ पालन किया था।’’
मेसर इसमें आगे बताते हैं कि
हिटलर ने उस पुस्तक के दूसरे खण्ड के 15वें अध्याय में बिल्कुल साफ तौर पर लिखा था कि
’’यदि 1914 में 12 से 15 हजार यहूदियों को जहरीली गैस देकर मार दिया गया होता तो प्रथम विश्वयुद्ध में लाखों का बलिदान न देना पड़ता।’’ (पृ. 117)
’’जर्मनी के साथ रूस की सन्धि’’ पर चर्चा करते हुए दूसरे खण्ड के 14वें अध्याय में हिटलर कहता है कि युद्ध के उद्देश्य के बिना अन्तर्राष्ट्रीय संधियों का न कोई अर्थ और न कोई मूल्य है।’’ (पृ. 118)
उनके विपरीत, प्रकाश तो कह रहे हैं कि भारत में अब तक आरएसएस के बारे में किये गये सारे अध्ययनों को रद्दी की टोकरी में फेंक दो।


