पिछले दो वर्षों में दलितों और मुसलमानों के विरुद्ध हिंसा की कई घटनाएं (Many incidents of violence against Dalits and Muslims) समाचारपत्रों की सुर्खियां बनीं। इनमें से कुछ, जिनमें उना, गुजरात में जुलाई 2016 का घटनाक्रम शामिल है, ने देश के संवेदनशील नागरिकों की आत्मा को झकझोर कर रख दिया है।
इसके पहले, जून 2015 में उत्तरप्रदेश के दादरी में मोहम्मद अखलाक की इस झूठे आरोप में पीट-पीटकर हत्या कर दी गई थी कि उसके घर गौमांस रखा था।
आज नरेन्द्र मोदी यह कह रहे हैं कि 80 प्रतिशत गौरक्षक असामाजिक तत्व हैं, परंतु इन्हीं मोदी ने 2014 के आम चुनाव के दौरान इस मुद्दे का इस्तेमाल समाज को धार्मिक आधार पर ध्रुवीकृत करने के लिए किया था। इसे जानने के लिए हमें केवल उनके भाषणों को याद करने की ज़रूरत है।
श्री मोदी ने कहा था कि,
‘‘राणा प्रताप ने अपना जीवन गौरक्षा के लिए समर्पित कर दिया। उन्होंने गाय की रक्षा के लिए युद्ध लड़े और युवाओं के जीवन की कुर्बानी दी...’’।
उन्होंने देश से बीफ के निर्यात को ‘‘पिंक रेवोल्यूशन’’ बताया था और उसकी कड़ी निंदा की थी।
उन्होंने यह आरोप भी लगाया था कि अगर कांग्रेस सत्ता में आई तो बीफ के निर्यात के लिए गायों का वध किया जाएगा।
इसी सिलसिले में
भाजपा-शासित राजस्थान में ‘‘गौ विभाग’’ का गठन किया गया है और इसका ज़िम्मा एक मंत्री को सौंपा गया है। इसी राज्य में हिंगोनिया में स्थित एक गौशाला में उचित देखभाल न होने के कारण सैंकड़ों गायों के मरने की खबर है।
यह बताया जाता है कि भाजपा के सत्ता में आने के बाद से गौशालाओं के लिए दिए जाने वाले अनुदान में भारी कमी की गई है।
इन सब तथ्यों से यह स्पष्ट है कि गौभक्ति, दरअसल, एक समुदाय विशेष के खिलाफ घृणा फैलाने का बहाना भर है।
गाय से जुड़े मुद्दों पर हिंसा की घटनाओं में बढ़ोत्तरी इसलिए हुई है क्योंकि कथित गौरक्षक यह जानते हैं कि केंद्र सरकार और भाजपा-शासित अनेक राज्य सरकारें उनकी गैर-कानूनी हरकतों को नज़रअंदाज करेंगी।
यह सही है कि संविधान में गौवंश की रक्षा के लिए प्रावधान है।
संविधान सभा में
‘‘काफी लंबी बहस और चर्चा, जिसके दौरान कई सदस्यों ने गौवध पर पूर्ण प्रतिबंध को संविधान के मूल अधिकारों में शामिल करने की मांग की, के बाद एक समझौते पर पहुंचा गया, जिसके अन्तर्गत गाय की रक्षा को राज्य के नीति निदेशक तत्वों में शामिल किया गया। यह अनमने ढंग और हिचकिचाहट के साथ हिन्दुओं की भावनाओं को संविधान में जगह देने का प्रयास था।’’
इस प्रावधान को भी धार्मिक रंग न देते हुए उसे कृषि और विज्ञान से जोड़ा गया।
‘‘राज्य, कृषि और पशुपालन को आधुनिक और वैज्ञानिक प्रणालियों से संगठित करने का प्रयास करेगा और विशिष्टतया गायों और बछड़ों तथा अन्य दुधारू और वाहक पशुओं की नस्लों के परिरक्षण और सुधार के लिए और उनके वध का प्रतिशेध करने के लिए कदम उठाएगा।’’
देश के 28 में से 24 राज्यों में गायों और अन्य मवेशियों के वध को प्रतिबंधित करने वाले या उन पर किसी न किसी तरह की रोक लगाने वाले कानून लागू हैं।
मध्य प्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र में गौवध को गैर-जमानती अपराध घोषित कर दिया गया है और इसके लिए कड़ी सज़ा का प्रावधान किया गया है।
इन कानूनों की संवैधानिक वैधता की जांच की जानी आवश्यक है और यह पता लगाया जाना ज़रूरी है कि कहीं वे देश के कुछ समूहों या समुदायों के मूल अधिकारों का उल्लंघन तो नहीं करते और भारतीय संविधान की धर्मनिरपेक्ष आत्मा के खिलाफ तो नहीं हैं।
बहरहाल, जहां एक ओर गौशालाओं के लिए बजट में कमी की गई है और गौ विभागों के बाद भी गौशालाओं में रह रही गायों की देखभाल में घोर लापरवाही बरती जा रही है, वहीं गाय के नाम पर मुसलमानों और दलितों के खिलाफ हिंसा भी भड़काई जा रही है।
गौमाता की रक्षा के मुद्दे पर हिन्दू संप्रदायवादी 19वीं सदी के उत्तरार्ध से लेकर अब तक कई तरह के आंदोलन चलाते आए हैं।
स्वाधीनता के पहले तक मुस्लिम सांप्रदायिक तत्व, सूअर को घृणा का पात्र बताकर इस आग को भड़काने का काम करते रहे थे।
ऐसी घटनाएं भी सामने आई हैं जिनमें बजरंग दल के कार्यकर्ताओं ने मंदिरों में गौमांस फेंका।
जहां समाज के सामूहिक अवचेतन में गौमांस के मुद्दे को हमेशा जीवित रखा गया वहीं अब इसका खुलकर इस्तेमाल सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने के लिए किया जा रहा है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि गाय, कृषि-आधारित अर्थव्यवस्था के लिए बहुत महत्वपूर्ण व उपयोगी पशु है। जहां गाय दूध देती है वहीं बैल का इस्तेमाल खेती में किया जाता है। परंतु बूढ़े और अनुपयोगी बैलों और गायों का भोजन के रूप में इस्तेमाल भी हमेशा से होता आया है।
आदिवासियों के अतिरिक्त, दलितों, मुसलमानों और ईसाईयों और यहां तक कि उच्च जातियों के हिन्दुओं के कुछ तबके भी बीफ का प्रोटीन के सस्ते स्रोत के रूप में सेवन करते आए हैं।
अगर हम इतिहास की दृष्टि से देखें तो बीफ, वैदिक काल से ही खानपान का भाग था।
गाय को गौमाता का दर्जा काफी बाद में दिया गया और धीरे-धीरे उसे पहचान की राजनीति का उपकरण बना दिया गया।
भीमराव अंबेडकर ने अपने प्रसिद्ध लेख ‘‘डिड हिन्दूज़ नेवर ईट बीफ?’’ में इसका खुलासा किया है।
‘‘आप को यह जानकर आश्चर्य होगा कि पुरानी प्रथाओं के अनुसार, वो हिन्दू एक अच्छा हिन्दू नहीं था जो बीफ नहीं खाता था। कुछ मौकों पर उसे बैल की बलि देकर उसे खाना होता था।’’
किसी भी बहुसांस्कृतिक समाज में खानपान की विविधता अपरिहार्य है।
इस मुद्दे को सौहार्दपूर्ण ढंग से सुलझाया जा सकता है। गांधी इस मामले में हमें राह दिखाते हैं।
गौमांस के मुद्दे पर उन्होंने कहा था,
‘‘...गौमांस उनका (मुसलमान) रोजाना का सामान्य भोजन नहीं है, उनका रोजाना का सामान्य भोजन तो वही है जो देश के अन्य करोड़ों बाशिन्दों का है। यह सही है कि ऐसे मुसलमान बहुत कम हैं जो धार्मिक कारण से शाकाहारी हों। अगर उन्हें मांस, जिसमें गौमांस शामिल है, उपलब्ध होगा तो वे उसे खाएंगे। परंतु एक लंबे समय से गरीबी के कारण करोड़ों मुसलमान किसी भी प्रकार का मांस नहीं खा पाते हैं। ये तो तथ्य हैं। परंतु सैद्धांतिक प्रश्न का स्पष्ट उत्तर देना आवश्यक है...मेरी यह मान्यता है कि मुसलमानों को गौवध करने की पूरी स्वतंत्रता होनी चाहिए...’’
परंतु अब सांप्रदायिक ताकतों द्वारा मुसलमानों की छवि गौवध करने वालों के रूप में इस हद तक प्रचारित कर दी गई है कि जो लोग शांति, सहिष्णुता और बहुवाद के हामी हैं, उन्हें इस मुद्दे पर मुसलमानों के प्रति घृणा के भाव को समाप्त करने के लिए बहुत मेहनत और प्रयास करने होंगे।
-राम पुनियानी
(मूल अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)
(लेखक आई.आई.टी. मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।)
ARTICLE BY DR. RAM PUNIYANI - Cow and Political Scenario