चार्वाक के वारिस : समाज, संस्कृति और सियासत पर प्रश्नवाचक

विचार जब जनसमुदाय द्वारा ग्रहण किए जाते हैं, तब वह एक भौतिक शक्ति बन जाते हैं। कितनी दुरूस्त बात कही थी मार्क्स ने। अलबत्ता यह स्थिति बिल्कुल विपरीत अन्दाज़ में हमारे सामने नमूदार हो रही है। जनसमुदाय उद्वेलित भी है, आन्दोलित भी है, एक भौतिक ताकत के तौर पर संगठित रूप में उपस्थित भी है, फर्क बस इतना ही है कि उसके ज़हन में मानव मुक्ति का फलसफा नहीं बल्कि ‘हम’ और ‘वे’ की वह सियासत है, जिसमें धर्म सत्ता, पूंजी सत्ता और राज्य सत्ता के अपवित्र कहे जा सकने वाले गठबंधन के लिए लाल कालीन बिछी है और यह सिलसिला महज दक्षिण एशिया के इस हिस्से तक सीमित नहीं है।

इन्हीं सरोकारों को मददेनज़र रखते हुए चार्वाक के वारिस किताब लिखी गयी है, मगर उसका फोकस बहुत सीमित है। वह भारत के समाज, संस्कृति और सियासत से रूबरू होने की एक कोशिश है। किताब के लेखक हैं हस्तक्षेप के सम्मानित स्तंभकार सुभाष गाताडे। आप इस पुस्तक को अमेजन से खरीद सकते हैं। लिंक है

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