जनपथ- आई कान्ट डान्‍स फॉर डेमोक्रेसी- भाजपा की उम्‍मीदवार नूपुर शर्मा का रोड शो
नई दिल्ली (दिल्ली विधानसभा चुनाव पर ग्राउण्ड जीरो रिपोर्ट)। हस्तक्षेप के साथी पत्रकार अभिषेक श्रीवास्तव लगातार दिल्ली विधानसभा चुनाव के मद्देनज़र दिल्ली और आस-पास घूम रहे हैं। उनकी पारखी नज़र आम आदमी का चेहरा और मनोभाव पढ़ रही है। चौथी कड़ी में जनपथ- आई कान्ट डान्‍स फॉर डेमोक्रेसी
चाय पीकर हम कनॉट प्‍लेस की ओर निकले तो देखा कि पूरी सड़क भगवा झंडों-बैनरों से पटी पड़ी थी। नई दिल्‍ली विधानसभा क्षेत्र से भाजपा की उम्‍मीदवार नूपुर शर्मा का रोड शो था। आउटर सर्किल से लेकर बंगला साहब गुरद्वारे तक लंबी कतार थी। सबसे आगे सैकड़ों की संख्‍या में हुड़दंगी चल रहे थे और मोदी-मोदी का नारा लगा रहे थे। उनके बीच पगड़ी पहना एक मोदी का डुप्‍लीकेट भी था। बीच में एक खुली छत वाली जीप पर नूपुर शर्मा, किरण बेदी और सतीश उपाध्‍याय खड़े जनता का अभिवादन कर रहे थे। हम लोग स्लिप रोड पर ही रुक गए। तकरीबन रैला सा उमड़ता हुआ आ रहा था। सबसे ज्‍यादा नौजवान और लड़कियां इसमें थीं। सामने से एक चने बेचने वाला बूढा सा आदमी अपनी टोकरी कंधे पर लिए चला आ रहा था। उसके सिर पर भाजपा की टोपी थी। मैंने उसे पुकार कर कहा, "का हो मोदी?" यह सुनते ही वह झटके से रुका और सिर पर लगी भाजपा की टोपी उतार कर उसने सड़क किनारे लगी झाड़ में फेंक दी। मैं हतप्रभ रह गया। उसे मैंने पास बुलाया तो डरता-डरता वो मेरे पास आया। उसे लगा कि मैं भी इसी जत्‍थे का हिस्‍सा हूं। उसे टोपी फेंकते हुए एक अधेड़ प्रचारक ने देख लिया था। पीछे-पीछे वो भी मेरे पास आया। मैंने चने वाले से पूछा, "टोपी पहने क्‍यों थे और मेरे कहने पर फेंक क्‍यों दिए भाई?" वो खीझ कर बोला, "हम नाहीं पहना रहा... जबरी पहना दिहिन... हम केजरीवाल के साथ हैं... भाजपा के नाहीं।" बोली से लगा कि वो अवध का होगा। "कहां घर है...?" "भइया, अब तो जो है दिल्लिये में है। वइसे बहराइच का रहे वाला हैं।"
तब तक पीछे खड़ा भाजपा प्रचारक हरकत में आ चुका था। उसने झाड़ पर से टोपी उठायी। मैंने उससे पूछा, "क्‍या भाई, कहां से आए हो? दिल्‍ली के वोटर हो?" उसने बताया कि वह जौनपुर का रहने वाला है। बनारस से 29 जनवरी को प्रचार करने आया है। करीब 500 लोगों की टीम बनारस और जौनपुर से यहां आई है। वे यहां किसी अटलांटा होटल में रुके हुए हैं। किराया, खाना-पीना मुफ्त। मुझे अचानक हफ्ते भर पहले ग़ाज़ीपुर के अपने एक मित्र का भेजा वह एसएमएस याद आया जो बनारस के भाजपा कार्यालय से लोगों को भेजा गया था:
"प्रिय मित्रो, काशी क्षेत्र से भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओ का दल, दिल्ली विधान सभा चुनाव 2015 के प्रचार एवं प्रसार के लिए 28 और 29 जनवरी को वाराणसी से रवाना हो रहा है। दिल्ली जाने वाले समस्त इच्छुक कार्यकर्ता दिनांक 27 जनवरी सायं 04 बजे या 28 जनवरी सुबह 10 बजे तक अपना नाम, उम्र, मोबाइल नंबर और पता डॉ. आदित्य - 9453369678 एवं डॉ. गिरीश को 9005841234 को बता दें (मैसेज या व्हाट्स एप्प के माध्यम से), जिससे सभी का आरक्षण (आने एवं जाने) का ट्रेन में कराया जा सके तथा भोजन एवं आवास की व्यवस्था सुनिश्चित की जा सके। सभी की देल्ही से वाराणसी वापसी ट्रेन द्वारा दिनांक 05/02/2015 को होगी।"
आपको अगर इसकी जानकारी न भी हो तो कुछ देर के लिए राजीव चौक मेट्रो के गेट नंबर 7 के बाहर बस खड़े हो जाइए। गुटखा चबाते, गले में भाजपा का गमछा डाले, पूरी देह को झकझोरते हुए कोई सस्‍ता फिल्‍मी गाना गुनगुनाते तमाम पुरबिया नौजवान आजकल दिख जाएंगे। उनके लिए चढ़ते वसंत में दिल्‍ली का यह दौरा जिंदगी की सबसे बड़ी उपलब्धि है। ठीक वैसे ही जैसे दिल्‍ली के "ग्रास" प्रेमी नौजवानों के लिए बनारस का मई वाला प्रवास था, जब अरविंद केजरीवाल का प्रचार करने के लिए वे थोक के भाव वहां भेजे गए थे। ऐसा लगता है कि नौ महीने में ही कुछ "पोएटिक जस्टिस" जैसा दिल्‍ली में घट रहा है, और यह वास्‍तव में काव्‍यात्‍मक भी है क्‍योंकि मई की चिलचिलाती बनारसी धूप में दिल्‍ली के लड़कों के लिए गांजे का मज़ा उतना नहीं रहा होगा जितनी मौज आज बनारसी लड़कों को दिल्‍ली के वसंत में बियर के कैन दे रहे हैं। सब कुछ वैसा ही लगता है आज की दिल्‍ली में, जैसा मई 2014 में बनारस में लग रहा था। एक फिल्‍म, जो उस वक्‍त बन रही थी, अब बनकर तैयार है।
"डान्‍स फॉर डेमोक्रेसी"- यही नाम है कमल स्‍वरूप की उस बहुचर्चित फिल्‍म का, जो उन्‍होंने लोकसभा चुनाव के दौरान बनारस में भीड़ और सत्‍ता के आपसी रिश्‍तों को लेकर बनाई है। यह अब तक रिलीज़ नहीं हुई है। इसका एंटी-थीसिस या कहें पूरक फरवरी 2015 में दिल्‍ली में खेला जा रहा है। मुख्‍य खिलाड़ी वही हैं- अरविंद केजरीवाल और मोदी- बाकी छिटपुट खिलाड़ी मंच के इर्द-गिर्द सजा दिए गए हैं। बनारस के सिद्धगिरी बाग स्थित एक गेस्‍ट हाउस में इसकी पूरी टीम रुकी हुई थी। अप्रैल 2014 की जिस दोपहर मैं गेस्‍टहाउस में अचानक पहुंचा था, उस वक्‍त धूप इतनी तेज़ थी कि स्‍कूटर चलाते वक्‍त उंगलियों के नाखून तक महसूस हो रही थी। कमरे का दरवाज़ा खोलते ही किसी अंधेरी फिल्‍म का एक अवसादग्रस्‍त दृश्‍य मेरी आंखों के सामने था। पांच लोग जहां-तहां लेटे और बैठे हुए थे। बिस्‍तर पर कुछ भूंजा, कुछ अधभरी बोतलों में पानी, सिगरेट के असंख्‍य टोटे, पान मसाले के पाउच, आदि दृश्‍य थे। बाकी सब कुछ गांजे के गाढ़े धुएं में अदृश्‍य हो गया था, जो घूमती हुई चिलम के बीच मित्रों के मुंह से अहर्निश निकलता ही जा रहा था। कुछ भी बोलने से पहले इंतज़ार करना होता था कि धुआं निकलना पहले बंद हो। मुझे याद है, वहां पहले से मौजूद एक पत्रकार मित्र और कमल स्‍वरूप की टीम के अनिवार्य सदस्‍य अविनाश दास ने पूरे आत्‍मविश्‍वास से कहा था- केजरीवाल की जबरदस्‍त जीत हो रही है।
बनारस में ऐसा मानने वाले बहुत से लोग उस वक्‍त मौजूद थे। अधिकतर वे ही थे जो दिल्‍ली आदि जगहों से आम आदमी पार्टी की ओर से प्रचार करने आए थे। उनके अलावा कोई नहीं मानता था कि केजरीवाल जीतेंगे। ठीक वैसे ही जैसे आजकल दिल्‍ली में बनारस से आए चेहरे भाजपा की जीत का दावा कर रहे हैं और अगले ही पल बियर की बोतलों व कनॉट प्‍लेस की रंगीनियों में खो जा रहे हैं। हो सकता है दिल्‍ली की इस जंग पर भी कोई फिल्‍म बना रहा हो। बेहतर तो यह होता कि खुद कमल स्‍वरूप ऐसा करते। अधूरी और पुरानी कहानियों से अब लोगों को भरमाना कठिन है, फिर मई 2014 तो इतिहास बन चुका है जबकि लोकतंत्र का तांडव अब भी जारी है।
भटकाव के लिए माफी चाहूंगा, लेकिन कनॉट प्‍लेस की सड़कों पर उस दिन नूपुर शर्मा के रोड शो में बनारस-जौनपुर के लोगों को उछलता देखकर बिलकुल नौ महीने पहले के बनारस की याद आ गई थी। तो यह तय रहा कि बाहरियों के कहने से बहुत कुछ नहीं होता। जो जिसका गांजा पीता है, उसी का धुआं भी उगलता है। असल सवाल स्‍थानीय बाशिंदों का है- उन बेआवाज़ बेचेहरा नागरिकों का, जो किसी शहर को बनता-बिगड़ता देख रहे हैं, महसूस कर रहे हैं। सवेरे से ऐसे ही लोगों से मैं मिल रहा था, फिर भी उस दिन मेरे भीतर ऐसे ही किसी और शख्‍स की तलाश बची हुई थी। जाने क्‍यों लगता था कि बात मुकम्‍मल नहीं हो पा रही है।
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