पुण्य प्रसून बाजपेयी
सिल्वर स्क्रीन पर कथक करते कमल हासन.... और सिल्वर स्क्रीन पर ही बारूद में समाया आंतक। यही दो दृश्य विश्वरूपम के प्रोमो में सामने आये और फिल्म देखकर कोई भी कह सकता है कि सिर्फ यह दो दृश्य भर नहीं है विश्वरूपम। विश्वरूपम 9-11 के बाद अलकायदा की जमीन पर रेंगती ऐसी फिल्म है जो अफगानिस्तान के भीतर जेहाद के जरिये ज़िन्दगी जीने की कहानी कहती है। तो दूसरी तरफ अफगानिस्तान में नाटो सैनिक के युद्द से लेकर अलकायदा के खिलाफ चलाया जा रहा भारत का मिशन है जिसकी अगुवाई और कोई नहीं विश्वरूप यानी कमल हासन ही कह रहे हैं।

मिट्टी और रेत के बड़े-बड़े टिहो से पटे पड़े खूबसूरत अपगानिस्तान में नाटो सैनिकों और अलकायदा के बीच बारूद की जंग कितनी खतरनाक है अगर यह हिसंक दृश्यो के जरिये दिखाया गया है तो यह कमल हासन का ही कमाल है कि अफगानिस्तान की बस्तियो में वह तराजू में तौल कर बेचे जा रहे कारतूस और हथियारों के जखीरे के बीच आँखों पर पट्टी डाल बच्चों की नन्हीं अँगुलियों के सहारे हथियारों का ककहरा पढ़ते-पढ़ाते हुये आंतक के स्कूल की एक नयी सोच महज चंद सीन में दिखा देते हैं।

दरअसल 9-11 के बाद बनी कई लोकप्रिय फिल्मों की कतारों में विश्वरूपम एकदम नयी लकीर खींचती है। यह ना तो सिलव्सटर स्टेलोन की फर्स्ट ब्लड जैसे अमेरिकी सोच को देखती है जो बंधक बनाये गये अमेरिकियों की रिहाई का मिशन है। साथ ही यह फिल्म ना ही काबुल एक्सप्रेस, खुदा के लिये और माई नेम इज़ खान की तरह सिर्फ इस्लाम या मुस्लिम मन के भीतर की जद्दोजहद को समेटती है। बल्कि विश्वरूपम ओसामा के मारे जाने पर ओबामा के भाषण को दिखाकर अमेरिकी जश्न पर भी चोट करती है और अफगानी महिला के संवाद के जरिये अंग्रेज, रूस, अमेरिका और अब अलकायदा से घायल होते अफगानिस्तान की उस त्रासदी को भी उभारते हैं जिसमें युद्द तो हर कोई कर रहा है लेकिन हर युद्द में घायल आम आफगानी हो रहा है।....और उसे यह समझ नहीं आ रहा है कि रूसी सैनिकों के बाद नाटो सैनिक और अलकायदा के लड़ाकों में अंतर क्या है। बावजूद इसके युवा पीढ़ी के हाथों में बंदूक और फिदायीन बनकर ज़िन्दगी को अंजाम तक पहुँचाने की खूशबू कैसे हर रग में दौड़ती है। इसका एहसास भी विश्वरूप कराती है और मारे जाने के बाद परिजनों के आँख से बहते आंसू पर यह कटाक्ष भी करती है कि जेहाद में सिर्फ खून बहता है आंसू नहीं।

जेहाद कैसे खुदा या धर्म की छांव में खुद को परिभाषित करता है और अपने समूचे आंतक को खुदा के लिये जेहाद का नाम देता है इसे बेहद बारिकी से विस्वरूपम ने पकड़ा है और संभवतः यही वह दृश्य है जिनसे तमिलनाडु में हंगामा मचा है। कुरान को पढ़ने या नमाज के उठे हाथ ही अगर बंदूक उठाते हैं तो उसके पीछे ज़िन्दगी की जद्दोजहद को भी विश्वरूपम उभारती है। जाहिर है इन दृश्यों के काँट-छाँट का मतलब है ज़िन्दगी और जेहाद के बीच जुड़ते तारों से आँख मूँद लेना और फिल्म विशवरूप के लेखक डायरेक्टर, प्रोड्यूसर और कलाकार के तौर पर कमल हासन कही आँख नहीं मूँदते। और तो और फिल्म महज एक मिशन को सफल दिखाती है। जेहाद और अलकायदा मौजूद हैं और फिल्म आखिर में यह कहकर खत्म होती है कि अगली बार अमेरिका में नहीं भारत में मिलेंगे। लेकिन फिल्म का वह क्षण अद्भूत है जब ओसामा बिन लादेन को 30 सेकेंड के लिये यह कहकर दिखाया जाता है मानो फरिश्ते को देख लिया।