डॉक्टरों की कमी से जूझता देश
डॉक्टरों की कमी से जूझता देश

Health News in Hindi
भारत दुनिया के प्रमुख देशों को सबसे अधिक डॉक्टरों की आपूर्ति करता है (India supplies maximum number of doctors to major countries of the world)
स्वास्थ्य सेवाएँ मुनाफा पसंदों के हवाले... आजादी के बाद के दौर में निजी अस्पताल संख्या के लिहाज से 8 से बढ़कर 93 फीसदी हो गयी
नई दिल्ली। आबादी के हिसाब से दुनिया के दूसरे सबसे बड़े देश भारत में स्वास्थ्य सेवायें (health services in india) भयावह रूप से लचर हैं और यह लगभग अराजकता की स्थिति में पहुँच चुकी है।
सार्वजनिक स्वास्थ्य का भारत में तेजी से निजीकरण हुआ
भारत उन देशों में अग्रणीय है जिन्होंने अपने सार्वजनिक स्वास्थ्य का तेजी से निजीकरण (Public health rapidly privatized in India) किया है और सेहत पर सबसे कम खर्च करने वाले देशों की सूची में बहुत ऊपर है. दूसरी तरफ ‘‘विश्व स्वास्थ्य संगठन” के मानकों के अनुसार प्रति 1000 आबादी पर एक डाक्टर होने चाहिए लेकिन भारत इस अनुपात को हासिल करने में बहुत पीछे है और यह अनुपात 2.5 के मुकाबले मात्र 0.65 ही है. पिछले 10 सालों में यह कमी तीन गुना तक बढ़ी है.
भारत में कितने डॉक्टरों की कमी है? | How many doctors have shortage in India?
केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जे.पी. नड्ढा ने फरवरी 2015 को राज्यसभा में बताया था कि देश भर में 14 लाख डॉक्टरों की कमी है और प्रतिवर्ष लगभग 5500 डाक्टर ही तैयार हो पाते हैं।’’
विशेषज्ञ डॉक्टरों के मामले में तो स्थिति और भी बदतर है, राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन की हालिया रिपोर्ट (Recent report of National Health Mission) के अनुसार सर्जरी, स्त्री रोग और शिशु रोग जैसे चिकित्सा के बुनियादी क्षेत्रों में 50 फीसदी डॉक्टरों की कमी है. ग्रामीण इलाकों में तो यह आंकड़ा 82 फीसदी तक पहुंच जाता है. यानी कुल मिलाकर हमारा देश ही बहुत बुनियादी क्षेत्रों में भी डॉक्टरों की कमी से जूझ रहा है. यह स्थिति एक चेतावनी की तरह है.
डॉक्टरों को विदेश में बसने की सरकार अनुमति क्यों नहीं दे रही?
शायद इसी को ध्यान में रखते हुए केंद्र सरकार ने अगस्त 2015 में यह फैसला लिया था कि वह विदेशों में पढ़ाई करने वाले डॉक्टरों को ‘नो ऑब्लिगेशन टू रिटर्न टू इंडिया (एनओआरआई)’ सर्टिफिकेट जारी नहीं करेगी जिससे वो हमेशा के लिए विदेशों में रह सकते थे. इसके बाद महाराष्ट्र के रेजिडेंट डॉक्टर्स एसोसिएशन ने सरकार के इस फैसले को मानवीय अधिकार और जीने के अधिकार का उल्लंघन बताकर हाईकोर्ट में फैसले के खिलाफ याचिका दायर की थी।
एसोसिएशन द्वारा दायर की गई इसी याचिका के जवाब में स्वास्थ मंत्रालय हलफनामा दायर कर कहा है कि ‘देश खुद डॉक्टरों की भारी कमी का सामना कर रहा है। ऐसे में सरकार से उम्मीद नहीं की जा सकती है कि डॉक्टरों को विदेश में बसने की अनुमति दे और यह सर्टिफाई करेगी कि देश को उनकी सेवा की जरूरत नहीं है’.
भूमंडलीकरण के बाद विदेश जाकर पढ़ने वाले भारतीयों की तादाद भी बढ़ी है, चीन के बाद भारत से ही सबसे ज्यादा लोग पढ़ने के लिए विदेश जाते हैं. एसोचैम के अनुसार हर साल करीब चार लाख से ज्यादा भारतीय विदेशों में पढ़ाई के लिए जा रहे हैं। उनका मकसद केवल विदेशों से डिग्री लेकर लेना ही नहीं बल्कि डिग्री मिलने के बाद उनकी प्राथमिकता दुनिया के किसी भी हिस्से में ज्यादा पैकेज और चमकीले कैरियर की होती है. सरकार का यह निर्णय देश से प्रतिभा पलायन 2012 में लिए गए नीतिगत फैसले की एक कड़ी है।
एक अनुमान के मुताबिक देश के करीब 32% इंजीनियर, 28% डॉक्टर और 5% वैज्ञानिक विदेशों में काम कर रहे हैं. भारत दुनिया के प्रमुख देशों, को सबसे अधिक डॉक्टरों की आपूर्ति करता है.
विदेशों में कार्यरत भारतीय डॉक्टरों की संख्या कितनी है? | What is the number of Indian doctors working abroad?
‘इंटरनैशनल माइग्रेशन आऊटलुक (2015)’ के अनुसार विदेशों में कार्यरत भारतीय डॉक्टरों की संख्या साल 2000 में 56,000 थी जो 2010 में 55 प्रतिशत बढ़कर 86,680 हो गई। इनमें से 60 प्रतिशत भारतीय डाक्टर अकेले अमरीका में ही कार्यरत हैं।
भारत में डॉक्टरों की कमी के कारण? | Reasons for shortage of doctors in India?
केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय डॉक्टरों की कमी को देखते हुए अपने इस फैसले से विदेशों में बसने वाले डॉक्टरों पर रोक लगाना चाहती थी लेकिन डॉक्टरों की कमी का एक मात्र कारण यह नहीं है.
एक अनुमान के मुताबिक देश में इस समय 412 मेडिकल कालेज हैं, इनमें से 45 प्रतिशत सरकारी क्षेत्र में और 55 प्रतिशत निजी क्षेत्र में हैं। हमारे देश के कुल 640 जिलों में से मात्र 193 जिलों में ही मेडिकल कालेज हैं और शेष 447 जिलों में चिकित्सा अध्ययन की कोई व्यवस्था ही नहीं है।
मौजूदा समय में डॉक्टर बनना बहुत महंगा सौदा हो गया है और एक तरह से यह आम आदमी की पहुंच से बाहर ही हो गया है। सीमित सरकारी कालेजों में एडमीशन पाना एवेरस्ट पर चढ़ने के बराबर हो गया है और प्राईवेट संस्थानों में दाखिले के लिए डोनेशन करोड़ों तक चुका है, ऐसे में अगर कोई कर्ज लेकर पढ़ाई पूरी कर भी लेता है, तो वह इस पर हुए खर्चे को ब्याज सहित वसूलने की जल्दी में रहता है. यह एक तरह से निजीकरण को भी बढ़ावा देता है क्योंकि इस वसूली में उसे दवा कंपनियां पूरी मदद करती हैं. डॉक्टरों को लालच दिया जाता है या उन्हें मजबूर किया जाता है कि कि महंगी और गैर-जरूरी दवाईयां और जांच लिखें.
What are the concerns of private hospitals
निजी अस्पतालों के क्या सरोकार हैं उसे पिछले दिनों हुई एक खबर से समझा जा सकता है, घटना बिलासपुर की है जहाँ इसी साल मार्च में तीरंदाजी की राष्ट्रीय खिलाड़ी शांति घांघी की मौत के बाद उनका शव एक मशहूर अस्पताल ने इसलिए देने से मना कर दिया था क्योंकि उनके इलाज में खर्च हुए दो लाख रुपये का बिल बकाया था. दुर्भाग्य से भारत के नीति निर्माताओं ने स्वास्थ्य सेवाओं को इन्हें मुनाफा पसंदों के हवाले कर दिया है, हमारे देश में आजादी के बाद के दौर में निजी अस्पताल संख्या के लिहाज से 8 से बढ़कर 93 फीसदी हो गयी है.
चूंकि सरकारी स्वास्थ्य सुविधाएं पर्याप्त नहीं हैं या अक्षम बना दी गयी हैं इसीलिए आज ग्रामीण इलाकों में कम से कम 58 फीसदी और शहरी इलाकों में 68 फीसदी भारतीय निजी क्षेत्र की स्वास्थ्य सुविधाओं पर निर्भर है. आंकड़े बताते हैं कि स्वास्थ्य सुविधाओं पर बढ़ते खर्च की वजह से हर साल 3.9 करोड़ लोग वापस गरीबी में पहुंच जाते हैं.
भारत की सबसे बड़ी समस्याओं में से एक है सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था (One of the biggest problems of India is the public health system.)
सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था भारत की सबसे बड़ी समस्याओं में से एक है फिर भी इसके बजट में कटौती की जाती है. केंद्र सरकार द्वारा अपने मौजूदा बजट में स्वास्थ्य में 20 फीसदी की कटौती की है, जानकार बताते हैं कि इस कटौती से नये डॉक्टरों की नियुक्ति करना और स्वास्थ्य केंद्रों को बेहतर सुविधाओं कराने जैसे कामों पर असर पड़ेगा .
विदेशों में कार्यरत भारतीय मूल के डॉक्टरों को वापस लाना एक अच्छा कदम हो सकता है लेकिन यह कोई हल नहीं है. बुनियादी समस्याओं पर ध्यान रखना होगा और यह देखना होगा कि समस्या की असली जड़ कहाँ पर है. भारत का स्वास्थ्य क्षेत्र पर्याप्त और अच्छी चिकित्सा सुविधाओं की उपलब्धता के मामले में गहरे संकट के दौर से गुजर रहा है.
अभी तक कोई ऐसी सरकार नहीं आई है जिसके प्राथमिकताओं में सावर्जनिक स्वास्थ्य का क्षेत्र हो, आने वाली सरकारों को जरूरत के मुताबिक नए मेडिकल कालेजों में सार्वजनिक निवेश करके इनकी संख्या बढ़ाकर नए डॉक्टर तैयार करने वाली व्यवस्था का विस्तार करना होगा. निजी मेडिकल और अस्पतालों को भी किसी ऐसे व्यवस्था के अंतर्गत लाना होगा जिससे उन पर नियंत्रण रखा जा सके.
जावेद अनीस


