तब जबरदस्ती भू अधिग्रहण के लिए तोप चलाई जाएगी!!!
तब जबरदस्ती भू अधिग्रहण के लिए तोप चलाई जाएगी!!!
नई दिल्ली। भू अधिग्रहण बिल पर गठित संयुक्त संसदीय समिति के समक्ष ‘‘भूमि अधिकार आंदोलन’’ के सात सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल नेअपनी आपत्तियों को दर्ज कराया। बीती 16 जून 2015 को आपतच्तियां दर्ज कराने वाली इस समिति में पाठा दलित अधिकार उ0प्र0 से मातादयाल, कनहर बचाओ आंदोलन उ0प्र0 से शिवप्रसाद खरवार, अखिल भारतीय किसान सभा से वीजू, दिल्ली समर्थक समूह से श्वेता और संजीव, आल इंडि़या कृषक खेत मज़दूर संगठन हरियाणा से सत्यवान व अखिल भारतीय वनजन श्रमजीवी यूनियन से रोमा, मौजूद थे। ‘‘ भूमि अधिकार आंदोलन’’, को दिल्ली के संसद मार्ग में भू अधिग्रहण अध्यादेश के विरोध में आयोजित कार्यक्रम में देश के कई जनसंगठन, वाम दलों से जुड़े किसान संगठन व कई नागरिक सगठनों द्वारा गठित किया गया था। संयुक्त सदस्यीय समिति द्वारा भूमि अधिकार आंदोलन के प्रतिनिधि मंड़ल को सुबह 11 बजे आंमत्रित कर अपने विचार प्रस्तुत करने का मौका दिया गया।
भूमि अधिकार आंदोलन की विज्ञप्ति में कहा गया है कि समिति के समक्ष प्रस्तुति की पहल करते हुए श्वेता त्रिपाठी ने कहा कि भूमि अधिकार आंदोलन द्वारा भू अधिग्रहण विधेयक 2015 में कई महत्वपूर्ण प्रावधानों पर विषय वार दो दस्तावेज़ तैयार किए गए हैं, जिसे समिति को सौंपा गया। विस्तृत रूप से कानून के आपत्तिजनक प्रावधानों को विजू कृष्णन ने बिन्दुवार प्रस्तुत किया। विजू द्वारा भू अध्यादेश को सरकार द्वारा तीसरी बार पेश करने के सम्बन्ध में विरोध किया गया जिस पर अध्यक्ष एस0एस आहलूवालिया की त्वरित टिप्पणी थी कि अध्यादेश सरकार द्वारा लाया जा रहा है, जिससे संयुक्त संसदीय समिति का कोई लेना देना नहीं है, उन्होंने कहा कि टिप्पणी केवल विधेयक के अंदर आपत्तियों को लेकर होनी चाहिए।
भू विधेयक 2015 को लेकर सामाजिक आंकलन, भूमि अधिग्रहित कर पांच वर्ष तक उपयोग न करने की स्थिति में भू मालिक को लौटाने सम्बन्धित, 13 विभिन्न कानूनों को इस कानून के दायरे में लाने, भू मालिकों की भू अर्जन की सहमति को 70 फीसदी से घटाने के मामले को लेकर काफी विस्तारपूर्वक प्रस्तुति विजू कृष्णन द्वारा की गई। औद्योगिक गलियारों जैसी महापरियोजनाओं के लिए भूमि अधिग्रहित में खाद्य सुरक्षा, पर्यावरण व सामाजिक सांस्कृतिक ताने बाने में संतुलन बनाए रखने की आवश्यकता को नए कानून द्वारा पूर्ण रूप से नजरअंदाज किया गया है। बहुफसली भूमि के बचाने के लिए कानून में किसी प्रकार के प्रावधान नहीं है। इन औद्योगिक गलियारों के लिए सार्वजनिक-निजी साझेदारी के तहत भूमि अधिग्रहित करना जिसमें सहमति एवं सामाजिक प्रभाव आंकलन की कोई मान्यता नहीं है इस पर काफी चिंता जताई। खेत मज़दूर परिवार के एक ही सदस्य को अनिवार्य रूप से रोज़गार मुहैया कराने सम्बन्धी प्रावधान जनविरोधी है जबकि किसी भी परियोजना को लगाए जाने पर परिवार के सभी सदस्यों को रोज़गार व पुर्नवासन के प्रावधान किए जाने चाहिए। व प्रभावित लोगों के रोज़गार के अवसर बढ़ाये जाना सुनिश्चित किया जाना चाहिए तथा न्यूनतम वेतन बढ़ती हुई महगाई को ध्यान में रखते हुए व जीवन जीने योग्य वेतन के मुताबिक होना चाहिए। लेकिन 2015 कानून में यह प्रावधान नहीं दिए गए हैं। विजू द्वारा देश में पास्को में चल रहे गैरकानूनी भूमि अधिग्रहण से उपजे जनप्रतिरोध को समिति के संज्ञान में लाया गया। श्वेता द्वारा वन एवं राजस्व भूमि में लाखों हैक्टर के विवादों का निपटारा अभी तक नहीं किए जाने वाले सवाल को भी उठाया।
सत्यवान द्वारा श्रीमति सुमित्रा महाजन की अध्यक्षता वाली ग्रामीण विकास संसदीय स्थायी समिति की सिफारिशों तथा भूमि अधिग्रहण् पुनर्वास एवं पुनस्थापन हेतू निष्पक्ष क्षतिपूर्ति एवं पारदर्शिता अधिकार अधिनियम 2013 के पिारित होने से पहले संसद में हुई चर्चाओं पर समिति को विचार करने का अनुरोध किया।
रोमा द्वारा अपनी प्रस्तुति में भू अधिग्रहण अध्यादेश को सरकार द्वारा पारित करने पर ही आपत्ति जताई गई कि पूरे देश में किसानों द्वारा आत्महत्याए व गंभीर संकट है, तो आखिर सरकार को इस अध्यादेश को पारित करने की क्या आपातकालीन जरूरत थी? उन्होंने कहा अध्यादेश को सरकार द्वारा बिना किसी आपातकालीन स्थिति के तीन बार पेश करना अपने आप में गैरसंवैधानिक एवं गैरसंसदीय परम्परा है। भूमि अधिकार आंदोलन संसद एवं संविधान की अवमामना का घौर विरोध करता है। देश के भूमि रिकार्ड आज़ादी से लेकर अभी तक दुरुस्त नहीं किए गए हैं, ऐसे में जो भी अधिग्रहण हो रहा है वह किसी भी मायने में वैधानिक नहीं है। आज़ादी के समय दिए गए नारे ‘‘ लैड टू टिलर’’ को अभी तक देश में सही मायने में लागू नहीं है, भूमि सुधार के मुद्दे अभी तक उनसुलझे हैं व भूमिहीनों को अभी तक भूमि वितरण नहीं की गई, भूमिहीनता जबकि बड़े पैमाने में दस गुना हो चुकी है। ऐसे में भूमि अधिग्रहण कानून को ही बार-बार बहस करना न्यायोचित नहीं है। देश के 67 साल बीतने पर भी सिवाय आज़ादी के समय जमींदारी उन्मूलन व भूमि सुधार कानून के अभी तक आज़ाद देश की सरकारों ने भूमि अधिेकार के उपर एक भी कानून नहीं बनाया। ऐसे में भूमि अधिग्रहण पर ही कानून बनाने का आखिर क्या औचित्य है?
रोमा ने अपने वक्तवय में कहा कि यू0पी0ए0 सरकार द्वारा 2013 के कानून ने राज्य के एकाधिकार ऐमिनेंट डोमेन को पहली बार चुनौती जरूर दी गई, लेकिन उस कानून को लागू करने की राजनैतिक इच्छा नहीं दिखाई गई। देश में ज्यादहतर अधिग्रहण बिना कानून के हो रहे हैं, भूमि रिकार्ड दुरस्त नहीं है, वनक्षेत्र एवं परती भूमि आदि में आदिवासी समुदाय के अधिकार अभी भी अभिलिखित नहीं है, 2006 का वनाधिकार कानून अभी तक प्रभावी रूप से लागू नहीं है व केवल व्यक्तिगत अधिकारों के लिए लागू किया जा रहा है, ऐसे में दबंगई व दमन से भूमि को लूटने का अभियान राज्यों में ज़ारी है।
समिति के अध्यक्ष श्री एस0एस0 आहलूवालिया द्वारा कई बार प्रतिनिधि मंडल के सदस्यों को बीच में टोका गया व उन्हें अपनी बात को समाप्त करने की बात तक कही गई। रोमा द्वारा कहा गया कि दूर दराज़ के इलाकों से चलकर आए प्रतिनिधि सदस्यों को बोलने से रोकना ठीक नहीं है। रोमा ने कहा कि हम अपनी बात पूरी कर के ही जाएंगे। उ0प्र0 के सोनभद्र जिले में कनहर बांध के लिए किए जा रहे अवैध भू अधिग्रहण के पर सवाल उठाते हुए रोमा ने समिति से सवाल किया कि अभी तो संशोधित कानून पारित ही नहीं हुआ है तो राज्यों में गोली चल रही है जब यह कानून पारित हो जाएगा तब जबरदस्ती भू अधिग्रहण के लिए तो लगता है कि तोप चलाई जाएगी।
प्रतिनिधि मंड़ल ने इस विधेयक को पूर्ण रूप से आमान्य करते हुए कहा कि इस भू अध्यादेश को फौरन रद्द किया जाना चाहिए अन्यथा इस मुददे पर देश के अंदर एक वृहद् जनांदोलन होगा।
कनहर बचाओ आंदोलन की तरफ से शिवप्रसाद खरवार द्वारा समिति के 30 सांसदों को कनहर गोली कांड के संदर्भ में एक दस्तावेज़ भी सौंपा।
समिति के अध्यक्ष द्वारा समुदाय से उपस्थित सदस्यों शिवप्रसाद खरवार जो कि सोनभद्र उ0प्र0 के कनहर बांध निर्माण में किए जा रहे अवैध भू अधिग्रहण में पुलिसिया हिंसा, दमन व गोलीकांड के शिकार हैं व बुदेलखंड म0प्र0 से प्रतिनिधित्व कर रहे मातादयाल को सुनवाई का मौका नहीं दिया गया। इस पर प्रतिनिधि मंडल सदस्या रोमा ने समिति को यह अवगत कराया गया कि समिति में समक्ष वैसे ही दो लोगों को प्रस्तुति करने की अनुमति दी गई थी, लेकिन काफी मशक्कत के बाद सात प्रतिनिधियों को समिति के समक्ष उपस्थित होने की अनुमति मिली। ऐसे में प्रतिनिधियों को बोलने का मौका न दिया जाना काफी निराशाजनक है। समिति से अनुरोध किया गया कि जहां-जहां पर भू अधिग्रहण को लेकर संघर्ष चल रहे हैं, समिति के सदस्य सांसदों को उन क्षेत्र में जा कर जनसुनवाई का आयोजन किया जाना चाहिए।
प्रतिनिधि मंडल का कहना है कि समिति के अध्यक्ष ज्यादा विरोध सुनने के पक्ष में नहीं थे, जबकि विपक्षी सदस्यों द्वारा प्रतिनिधि मंडल द्वारा उठाए गए सवालों को गौर से सुना गया व महत्वपूर्ण बिन्दुओं को नोट किया गया।
सुश्री रोमा ने बताया कि जे0पी0सी के अध्यक्ष का जोर था कि केवल कानूनों के संशोधनो पर ही बोला जाए न कि भू अधिग्रहण के राजनैतिक पृष्ठभूमि पर। इस लिए जब भी प्रतिनिधि मंडल द्वारा कानून के राजनैतिक परिप्रेक्ष्य पर बोलने की कोशिश की गई, तब उनके द्वारा प्रतिनिधि मंडल के सदस्यों को बीच में टोका गया। जबकि भूमि अधिकार आंदोलन का मानना है कि संयुक्त संसदीय समिति सांसदों की है जो कि राजनैतिक लोगों की समिति है, इसलिए राजनैतिक बिन्दुओं को प्रकाश में लाना बेहद ही जरूरी है। लेकिन अध्यक्ष द्वारा प्रतिनिधि मंडल की प्रस्तुति को कानून की शब्दावलियों में संशोधनों के दायरे तक ही सीमित रखने की कोशिश की जा रही थी जबकि संशोधनों को भू अधिग्रहण के राजनैतिक परिपेक्ष्य में देखना चाहिए। ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे यह राजनैतिक समिति नहीं, बल्कि केवल कानून के शब्दावलीयों में संशोधनो तक ही सीमित समिति है, कानून के सारवस्तु यानि कनटेंट में कोई संशोधन नहीं चाहती। जबकि हम सब जानते हैं कि इन संशोधनों को लाने के पीछे कई राजनैतिक कारण हैं, जिसमें सबसे बड़ी वजह कारपोरिटी हितों के लिए भू अधिग्रहण करना मुख्य मकसद है। इस अध्यादेश को बार बार पारित करने से देश में काफी गंभीर राजनैतिक प्रभाव भी पड़ रहा है।
रोमा ने याद दिलाया कि वनाधिकार कानून को बनाने के लिए जो संयुक्त संसदीय समिति किशोर चंद्र देव की अध्यक्षता में गठित हुई थी, उस समिति ने कानून के पहले ड्राफ्ट था, जिसमें केवल अनुसूचित जनजाति के अधिकारों को मान्यता दी गई थी, उसे जनांदोलनों की मांग पर बदल कर सारतत्व में बदल कर केवल अनु0 जनजाति के लिए नहीं, बल्कि तमाम वनाश्रित समुदाय के लिए पारित किया गया था। जो आज एक ऐतिहासिक कानून के रूप में संसद द्वारा पारित किया गया है। संयुक्त संसदीय समिति को गठित करने की एक मुख्य वजह देश में व संसद र्माग पर हो रहे किसानों व मज़दूरों के हो रहे प्रतिरोध भी था। 2015 के भूअधिग्रहण कानून को लेकर देश में साफ तौर पर एक राजनैतिक उथलपुथल हो रही है, लेकिन समिति के अध्यक्ष द्वारा इस महत्वपूर्ण राजनैतिक सच्चाई को नज़रअंदाज किया जाना काफी चिंता की बात है। साफ ज़ाहिर है कि सत्ता पक्ष कुछ बचाना चाह रही है तथा वो राजनैतिक बहस के लिए तैयार नहीं हैं। यह मसहला बुनियादी रूप से राजनैतिक है, जिसमें करोड़ों खेतिहर और ग़रीब किसानों के आस्तित्व का सवाल है। इसलिए भविष्य में भूमि अधिकार आंदोलन को राजनैतिक पक्ष को मजबूत करना होगा चूंकि यह कानूनी शब्दावली के दावंपेच की लड़ाई नहीं है। भूमि अधिकार आंदोलन के कई महत्वपूर्ण घटक संगठनों ने अलग से अपने प्रतिवेदन दिए हैं और दे रहे हैं, उम्मीद है कि सभी संगठन संशोधन के राजनैतिक पक्ष को मजबूती से उठाएंगे। ताकि भविष्य में भूमि अधिकार आंदोलन एक सशक्त जन राजनैतिक आंदोलन के रूप से उभर सके जिसकी पहल भूमिहीन और दलित आदिवासी किसानो व उनके साथ जुड़े हुए संगठनों के द्वारा होगी जोकि देश के सामने एक वैक्लिपक भूमि व्यवस्था का स्वरूप भी प्रस्तुत करेगें।
गौर तलब है कि 17 जून की एक अंग्रेज़ी के मुख्य दैनिक अख़बार द हिन्दू में संयुक्त संसदीय समिति के समक्ष हुई तमाम प्रस्तुतियों की एक विस्तृत रिपोर्ट है, जिसमें कहा गया है कि अभी तक समिति के समक्ष 400 प्रतिवेदन आए हैं और यह सभी प्रतिवेदन नए भूमि विधेयक के खिलाफ हैं।


