तो मोदी को बचाने के लिए जनवरी में अमित शाह सूली पर चढ़ेंगे !
तो मोदी को बचाने के लिए जनवरी में अमित शाह सूली पर चढ़ेंगे !
तो मोदी को बचाने के लिए जनवरी में अमित शाह सूली पर चढ़ेंगे !
अमित शाह की अध्यक्ष के तौर पर नौकरी अब पूरी हो चली है
जनवरी में बीजेपी का संविधान संशोधन होगा या अमित शाह अध्यक्ष पद की कुर्सी छोड देंगें ..
नई दिल्ली, 25 दिसंबर। क्या भारतीय जनता पार्टी के लगातार गिरते ग्राफ से अब भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के बोरिया बिस्तर बांधने के दिन आ गए हैं? यह सवाल चर्चित एंकर पुण्य प्रसून बाजपेयी ने उठाया है।
पुण्य प्रसून बाजपेयी ने अपने ब्लॉग पर जो लिखा है उसके संपादित अंश हम साभार दे रहे हैं… आप भी पढ़ें…
गुजरात में कांग्रेस नाक के करीब पहुंच गई। कर्नाटक में बीजेपी जीत नहीं पाई। कांग्रेस को देवेगौडा का साथ मिल गया। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ में पन्द्रह बरस की सत्ता बीजेपी ने गंवा दी। राजस्थान में बीजेपी हार गई। तेलंगाना में हिंदुत्व की छतरी तले भी बीजेपी की कोई पहचान नहीं और नॉर्थ इस्ट में संघ की शाखाओं के विस्तार के बावजूद मिजोरम में बीजेपी की कोई राजनीतिक जमीन नहीं। तो फिर पन्ने- पन्ने थमा कर पन्ना प्रमुख बनाना या बूथ-बूथ बांट कर रणनीति की सोचना। या मोटरसाईकिल थमा कर कार्यकत्ता में रफ्तार ला देना। या फिर संगठन के लिए अथाह पूंजी खर्च कर हर रैली को सफल बना देना। और बेरोजगारी के दौर में नारों के शोर को ही रोजगार में बदलने का खेल कर देना। फिर भी जीत ना मिले तो क्या बीजेपी के चाणक्य फेल हो गए हैं या जिस रणनीति को साध कर लोकतंत्र को ही अपनी हथेलियों पर नचाने का सपना अपनों में बांटा अब उसके दिन पूरे हो गए हैं। क्योंकि अर्से बाद संघ के भीतर ही नहीं बीजेपी के अंदरखाने भी ये सवाल तेजी से पनप रहा है कि अमित शाह की अध्यक्ष के तौर पर नौकरी अब पूरी हो चली है और जनवरी में अमित साह को स्वतः ही अधयक्ष की कुर्सी खाली कर देनी चाहिये। यानी बीजेपी के संविधान में संशोधन कर अब जितने दिन अमित शाह अध्यक्ष बने रहे तो फिर बीजेपी में अनुशासन। संघ के राजनीतिक शुद्धिकरण की ही धज्जियां उड़ती चली जाएंगी। यानी जो सवाल 2015 में बिहार के चुनाव में हार के बाद उठा था और तब अमित शाह ने तो हार पर ना बोलने की कसम खाकर खामोशी बरत ली थी। पर तब राजनाथ सिंह ने मोदी-शाह की उड़ान को देखते हुये कहा था कि अगले छह बरस तक शाह बीजेपी अध्यक्ष बने रहेंगें। लेकिन संयोग से 2014 में 22 सीटें जीतने वाली बीजेपी के पर उसकी अपनी रणनीति के तहत अमित साह ने ही कतर कर 17 सीटो पर समझौता कर लिया। तो उससे संकेत साफ उभरे कि अमित शाह के ही वक्त रणनीति ही नहीं बिसात भी कमजोर हो चली है। जो रामविलास पासवान से कहीं ज्यादा बड़ा दांव खेल कर अमित शाह किसी तरह गंठबंधन के साथियों को साथ खड़ा रखना चाहते हैं। क्योंकि हार का ठीकरा समूह के बीच फूटेगा तो दोष किसे दिया जाए इस पर तर्क गढ़े जा सकते हैं, लेकिन अपने बूते चुनाव लडना। अपने बूते चुनाव ल़डकर जीतने का दावा करना। और हार होने पर खामोशी बरत कर अगली रणनीति में जुट जाना। ये सब 2014 की सबसे बड़ी मोदी जीत के साथ 2018 तक तो चलता रहा। लेकिन 2019 में बेड़ा पार कैसे लगेगा। इस पर अब संघ में चिंतन मनन तो बीजेपी के भीतरी कंकड़ों की आवाज सुनाई देने लगी है। और साथी सहयोगी तो खुल कर बीजेपी के ही एजेंडे की बोली लगाने लगे हैं।
शिवसेना को लगने लगा है कि जब बीजेपी की धार ही कुंद हो चली है तो फिर बीजेपी हिंदुत्व का बोझ भी नहीं उठा पाएगी और राम मंदिर तो कंघो को ही झुका देगा। तो शिवसेना खुद को अयोध्या का द्वारपाल बताने से चूक नहीं रही है। और खुद को ही राममंदिर का सबसे बड़ा हिमायती बताते वक्त ये ध्यान दे रही है कि बीजेपी का बंटाधार हिंदुत्व तले ही हो जाए। जिससे एक वक्त शिवसेना को वसूली पार्टी कहने वाले गुजरातियों को वह दो तरफा मार दे सके। यानी एक तरफ मुबंई में रहने वाले गुजरातियों को बता सके कि अब मोदी-शाह की जोड़ी चलेगी नहीं तो शिवसेना की छांव तले सभी को आना होगा और दूसरा धारा-370 से लेकर अयोध्या तक के मुद्दे को जब शिवसेना ज्यादा तेवर के साथ उठा सकने में सक्षम है तो फिर सरसंघचालक मोहन भागवत सिर्फ प्रणव मुखर्जी पर प्रेम दिखाकर अपना विस्तार क्यों कर रहे हैं। उनसे तो बेहतर है कि शिवसेना के साथ संघ भी खडा हो जाए यानी अमित शाह का बोरिया बिस्तर बांध कर उनकी जगह नितिन गडकरी को ले आए। जिनकी ना सिर्फ शिवसेना से बल्कि राजठाकरे से भी पटती है और भगोडे कारपोरेट को भी समेटने में गडकरी कही ज्यादा माहिर है। और गडकरी की चाल से फडनवीस को भी पटरी पर लाया जा सकता है जो अभी भी मोदी-शाह की शह पर गडकरी को टिकने नहीं देते और लड़ाई मुबंई से नागपुर तक खुले तौर पर नजर आती है।
यूं ये सवाल संघ के भीतर ही नहीं बीजेपी के अंदरखाने भी कुलांचे मारने लगा है कि मोदी-शाह की जोड़ी चेहरे और आईने वाली है। यानी कभी सामाजिक-आर्थिक या राजनीतिक तौर पर भी बैलेंस करने की जरूरत आ पडी तो हालात संभलेगें नहीं। लेकिन अब अगर अमित शाह की जगह गडकरी को अध्यक्ष की कुर्सी सौंप दी जाती है तो उससे एनडीए के पुराने साथियो में भी अच्छा मैसेज जाएगा। क्योंकि जिस तरह कांग्रेस तीन राज्यों में जीत के बाद समूचे विपक्ष को समेट रही है और विपक्ष, जो क्षत्रपों का समूह है, वह भी हर हाल में मोदी-शाह की हराने के लिए कांग्रेस से अपने अंतर्विरोधों का भी दरकिनार कर कांग्रेस के पीछ खडा हो रहा है। उसे अगर साधा जा सकता है तो शाह की जगह गडकरी को लाने का वक्त यही है। क्योंकि ममता बनर्जी हों या चन्द्रबाबू नायडू, डीएमके हो या टीआरएस या बीजू जनता दल। सभी वाजपेयी-आडवाानी -जोशी के दौर में बीजेपी के साथ इस लिए गए क्योंकि बीजेपी ने इन्हें साथ लिया और इन्होंने साथ इसलिए दिया क्योंकि सभी को कांग्रेस से अपनी राजनीतिक जमीन के छिनने का खतरा था। लेकिन मोदी-शाह की राजनाीतिक सोच ने तो क्षत्रपों को ही खत्म करने की ठान ली। और पैसा, जांच एंजेसी, कानूनी कार्रवाई के जरीये क्षत्रपों का हुक्का-पानी तक बंद कर दिया। पासवान भी अपने अंतर्विरोधों की गठरी उठाये बीजेपी के साथ खडे हैं। सत्ता से हटते ही कानूनी कार्रवाई के खतरे उन्हें भी हैं। और सत्ता छोडने के बाद सत्ता में भागेदारी का हिस्सा सूई की नोंक से भी कम हो सकता है। लेकिन यहां सवाल सत्ता के लिए बिक कर राजनीति करने वाले क्षत्रपों की कतार भी कितनी पाररदर्शी हो चुकी है और वोटर भी कैसे इस हकीकत को समझ चुका है ये मायावती के सिमटते आधार तले मध्यप्रदेश, राजस्थान व छत्तीसगढ में बखूबी उभर गया।
लेकिन आखरी सवाल यही है कि क्या नये बरस में बीजेपी और संघ अपनी ही बिसात जो मोदी-शाह पर टिकी है उसे बदल कर नई बिसात बिछाने की ताकत रखती है या नहीं।
उहापोह इस बात को लेकर है कि शाह हटते तो नैतिक तौर पर बीजेपी कार्यकत्ता इसे बीजेपी की हार मान लेगा या रणनीति बदलने को जश्न के तौर पर लेगा। क्योंकि इसे तो हर कोई जान रहा है कि 2019 में जीत के लिए बिसात बदलने की जरूरत आ चुकी है। अन्यथा मोदी की हार बीजेपी को बीस बरस पीछे ले जाएगी।
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