नस्ली वर्चस्व का परमाणु राष्ट्रवाद अब हाइड्रोजन बम है
नस्ली वर्चस्व का परमाणु राष्ट्रवाद अब हाइड्रोजन बम है
रवींद्र का दलित विमर्श-सत्रह
नस्ली वर्चस्व के फासीवादी नाजी निरंकुश राष्ट्रवाद पश्चिम से और खासतौर पर यूरोप के साम्राज्यवादी राष्ट्रों से आयातित सबसे खतरनाक हाइड्रोजन बम है।
फासीवादी अंध राष्ट्रवाद की कीमत जापान को हिरोशिमा और नागासाकी के परमाणु विध्वंस से चुकानी पड़ी है।
रवींद्र नाथ ने जापान यात्रा के दौरान इस अंध राष्ट्रवाद के खिलाफ जापानियों को चेतावनी दी थी।हिरोशिमा और नागासाकी में परमाणु बम गिरने से पहले 1941 में ही रवींद्रनाथ दिवंगत हो गये लेकिन उनकी वह चेतावनी अब हाइड्रोजन बम की शक्ल में विभाजित कोरिया के साथ साथ परमाणु साम्राज्यवाद के रचनाकार महाबलि अमेरिका के लिए अस्तित्व संकट बन गया है।
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इसी अंध राष्ट्रवाद के कारण दो-दो विश्वयुद्ध हारने वाले जर्मनी का विभाजन हुआ लेकिन फासीवाद और नवनाजियों के प्रतिरोध में कामयाबी के बाद बर्लिन की दीवारे ढह गयीं और जर्मनी फिर अखंड जर्मनी है जो बार-बार नवनाजियों का प्रतिरोध जनता की पूरी ताकत के साथ कर रहे हैं।
कोरिया खुद जापानी साम्राज्यवाद का गुलाम रहा है और साम्राज्यवाद के हाथों खिलौना बनकर वह उत्तर और दक्षिण में ठीक उसी तरह विभाजित है जैसे अखंड भारत के तीन टुकड़े भारत पाकिस्तान और बांग्लादेश।
नस्ली वर्चस्व के राष्ट्रवाद और साम्राज्यवादियों के खेल की वजह से विभाजित भारतवर्ष के भविष्य को लेकर चिंतित थे रवींद्रनाथ।
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1890 में रवींद्रनाथ ने अपने समाज निबंधों की शृंखला में जूता व्यवस्था लिखकर औपनिवेशिक भारत में नस्ली वर्चस्व के राष्ट्रवाद की सामंती साम्राज्यवादपरस्ती की कड़ी आलोचना की थी और मृत्युपूर्व अंतिम निबंध सभ्यता के संकट तक सामंतवाद और साम्राज्यवाद के पिट्ठू आंतरिक उपनिवेशवाद के नस्ली वर्चस्ववाद पर उन्होंने लगातार प्रहार किये क्योंकि वे जानते थे कि पश्चिम के इस फासीवादी नाजी राष्ट्रवाद की अंतिम और निर्णा्यक नियति विभाजन की निरंतरता की त्रासदी है और अंतिम सांस तक रवींद्रनाथ ने नस्ली राष्ट्रीयताओं के सहअस्तित्व से बने अखंड दुर्भागा देश को इस भयंकर नियति के खिलाफ चेतावनी दी है।
ब्राजील और अर्जेंटीना में श्वेत अश्वेत संघर्ष के बारे में कहीं चर्चा नहीं होती। लातिन अमेरिका में यह रंगभेद उस तरह नजर नहीं आता जैसे दक्षिण अफ्रीका और अमेरिका में।
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रंगभेद की यह तीव्रता यूरोपीय देशों में अब बुहत ज्यादा नजर नहीं आती।बल्कि इस रंगभेद के प्रवर्तक इंग्लैंड में जीवन के हर क्षेत्र में अश्वेतों का ही वर्चस्व हो गया है।
इसके विपरीत भारत में जाति व्यवस्था के तहत असमानता और अन्याय की व्यवस्था अमेरिका की तरह नस्ली वर्चस्व के रंगभेद में तब्दील है।
अमेरिका का श्वेत आतंकवाद और ग्लोबल हिंदुत्व का नस्ली वर्चस्ववाद एकाकार है। फिरभी अमेरिका का विभाजन नहीं हुआ तो इसका सबसे बड़ा कारण अमेरिकी राष्ट्र का संघीय ढांचा है,जिसमें अमेरिका की बहुलता और विवधता का लोकतंत्र बना हुआ है जो श्वेत आतंकवाद का लगातार प्रतिरोध कर रहा है।
सोवियत संघ में जब तक संघीय ढांचा बना रहा और विविधताओं की बहुलता के खिलाफ राष्ट्रीयताओं का निर्मम दमन नहीं हुआ तब तक सोवियत संघ बना रहा और संघीय ढांचा टूटने के बाद ही सोवियत संघ का विभाजन हुआ।
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रवींद्र नाथ के विविधता के दलित विमर्श,गांधी के हिंद स्वराज और यहां तक कि नेताजी के आजाद हिंद फौज की संरचना में संघीय ढांचा के बीज हैं जहां केंद्र की निरंकुश नस्ली वर्चस्व की सत्ता के बजाय जनपदों के लोक गणराज्यों का लोकतंत्र है।
स्वतंत्रता सेनानियों से बनी भारत की संविधान सभा ने दो राष्ट्र के सिद्धांत के आधार बने भारत के संविधान के लिए विविधता और बहुलता के लोकतंत्र की रक्षा के लिए समानता और न्याय के लक्ष्यों को हासिल करने के लिए संविधान की प्रस्तावना में महात्मा गौतम बुद्ध के धम्म के सिद्धांतों के तहत नागरिक और मनवाधिकार की आधारशिला रखते हुए स्वतंत्र सार्वभौम लोक गणराज्य भारत के लिए संघीय ढांचा का विकल्प चुना जो राष्ट्रीयताओं की समस्या के समाधान का रास्ता था।
राम के नाम रामराज्य का स्वराज अब भगवा आतंकवाद में तब्दील है।
नस्ली वर्चस्व के राष्ट्रवाद ने उस संघीय ढांचा को तहस नहस करके दिल्ली केंद्रित निरंकुश फासीवादी सत्ता की स्थापना कर दी है,जिसके खिलाफ रवींद्रनाथ उन्नीसवीं सदी से अपने मृत्यु से पहले तक लगातार चेतावनी देते रहे हैं।
रवींद्र रचनाधर्मिता की यही मुख्यधारा है जो भारत की साझा संस्कृति की विरासत है जो बौद्धमय भारत के समता और लक्ष्यों के अनुरुप हैं।
बहुजन पुरखों और सामंतवादविरोधी मनुष्यता के धर्म के पक्षधर इस महान देश का धर्म और आध्यात्म भी सत्ता वर्ग के नस्ली वर्चस्व के विरुद्ध है लेकिन सवर्ण विद्वजतजनों की इसमें दिलचस्पी नहीं है तो पीड़ित शोषित अत्याचार के शिकार और नरसंहार संस्कृति के तहत वध्य बहुसंख्य जनगण इसे भारतीय इतिहास और संस्कृति,लोक और जनपद के नजरिये से समझने के लिए तैयार नहीं हैं।
गौरतलब है कि महात्मा ज्योतिबा फूले ने गुलामगिरी की प्रस्तावना में शुरुआती दो पैरा में इसी नस्ली वर्चस्व के विशुद्ध राष्ट्रवाद की चर्चा की हैः
“सैकड़ों साल से आज तक शूद्रादि-अतिशूद्र (अछूत) समाज, जब से इस देश में ब्राह्मणों की सत्ता कायम हुई तब से लगातार जुल्म और शोषण से शिकार हैं। ये लोग हर तरह की यातनाओं और कठिनाइयों में अपने दिन गुजार रहे हैं। इसलिए इन लोगों को इन बातों की ओर ध्यान देना चाहिए और गंभीरता से सोचना चाहिए। ये लोग अपने आपको ब्राह्मण-पंडा-पुरोहितों की जुल्म-ज्यादतियों से कैसे मुक्त कर सकते हैं, यही आज हमारे लिए सबसे महत्वपूर्ण सवाल हैं। यही इस ग्रंथ का उद्देश्य है।
यह कहा जाता है कि इस देश में ब्राह्मण-पुरोहितों की सत्ता कायम हुए लगभग तीन हजार साल से भी ज्यादा समय बीत गया होगा। वे लोग परदेश से यहाँ आए। उन्होंने इस देश के मूल निवासियों पर बर्बर हमले करके इन लोगों को अपने घर-बार से, जमीन-जायदाद से वंचित करके अपना गुलाम (दास) बना लिया। उन्होंने इनके साथ बड़ी अमावनीयता का रवैया अपनाया था। सैकड़ों साल बीत जाने के बाद भी इन लोगों में बीती घटनाओं की विस्मृतियाँ ताजी होती देख कर कि ब्राह्मणों ने यहाँ के मूल निवासियों को घर-बार, जमीन-जायदाद से बेदखल कर इन्हें अपना गुलाम बनाया है, इस बात के प्रमाणों को ब्राह्मण-पंडा-पुरोहितों ने तहस-नहस कर दिया। दफना कर नष्ट कर दिया।“
“उन ब्राह्मणों ने अपना प्रभाव, अपना वर्चस्व इन लोगों के दिलो-दिमाग पर कायम रखने के लिए, ताकि उनकी स्वार्थपूर्ति होती रहे, कई तरह के हथकंडे अपनाए और वे भी इसमें कामयाब भी होते रहे। चूँकि उस समय ये लोग सत्ता की दृष्टि से पहले ही पराधीन हुए थे और बाद में ब्राह्मण-पंडा-पुरोहितों ने उन्हें ज्ञानहीन-बुद्धिहीन बना दिया था, जिसका परिणाम यह हुआ कि ब्राह्मण-पंडा-पुरोहितों के दाँव-पेंच, उनकी जालसाजी इनमें से किसी के भी ध्यान में नहीं आ सकी। ब्राह्मण-पुरोहितों ने इन पर अपना वर्चस्व कायम करने के लिए, इन्हें हमेशा-हमेशा लिए अपना गुलाम बना कर रखने के लिए, केवल अपने निजी हितों को ही मद्देनजर रख कर, एक से अधिक बनावटी ग्रंथो की रचना करके कामयाबी हासिल की। उन नकली ग्रंथो में उन्होंने यह दिखाने की पूरी कोशिश की कि, उन्हें जो विशेष अधिकार प्राप्त हैं, वे सब ईश्वर द्वारा प्रदत्त हैं।
इस तरह का झूठा प्रचार उस समय के अनपढ़ लोगों में किया गया और उस समय के शूद्रादि-अतिशूद्रों में मानसिक गुलामी के बीज बोए गए। उन ग्रंथो में यह भी लिखा गया कि शूद्रों को (ब्रह्म द्वारा) पैदा करने का उद्देश्य बस इतना ही था कि शूद्रों को हमेशा-हमेशा के लिए ब्राह्मण-पुरोहितों की सेवा करने में ही लगे रहना चाहिए और ब्राह्मण-पुरोहितों की मर्जी के खिलाफ कुछ भी नहीं करना चाहिए। मतलब, तभी इन्हें ईश्वर प्राप्त होंगे और इनका जीवन सार्थक होगा।“
(साभारःहिंदी समय,महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय,वर्धा)
रवींद्रनाथ ने यूरोपीय सभ्यता के अनुकरण के तहत बंगाली भद्रलोक सवर्ण नस्ली राष्ट्र वाद पर तीखा प्रहार करते हुए जूता व्यवस्था निबंध में वैदिकी धर्म संस्कृति के यूरोपीय सभ्यता के साथ सामंजस्य बैठकर ब्रिटिश हुकूमत की नौकरी कर रहे भद्रलोक बिरादरी के ओहदे के हिसाब से बूट से लेकर भांति भाति के जूतों से पीटे जाने की अनिवार्यता का स्वीकार करने के तर्कों का ब्यौरा पेश किया है।पहले पहल जूता खाने की यूरोपीय सभ्यता में नजीर न होने की वजह से विरोध करनेवाले प्रभुवर्ग वर्ण के लोगों ने लाट साहेब के उन्हीं के हितों का हवाला देने पर उसी जूता व्यवस्था का कैसे महिमामंडन किया है,उसका सिलिसलेवार ब्यौरा दिया है।
भारतमाता का दुर्गावतार नस्ली मनुस्मृति राष्ट्रवाद का प्रतीक है तो महिषासुर वध आदिवासी भूगोल का सच
गौरतलब है कि बंकिम के आनंदमठ में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ आदिवासी किसानों के जनविद्रोह को मुसलमानों के खिलाफ हिंदुत्व के जिहाद बताकर कंपनी राज को हिंदू राष्ट्र बनने से पहले तक हिंदुओं का हित बताने की दैवी वार्ता के साथ वंदेमातरम का उद्घोष हुआ और हिंदुत्व राष्ट्रवादियों ने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान जूता व्यवस्था को अपनी नियति मान ली।अंग्रेजी हुकूमंत की जूताखोरी का महिमामंडन वैदिकी संस्कृति के हवाले से भद्रलोक बिरादरी ने निःसंकोच किया और वे दूसरों के मुकाबले अपने ऊंचे ओहदों को लेकर खुश रहे।यह गुलामगिरी का बांग्ला राष्ट्रवाद है जो आनंदमठ के जरिये हिंदुत्व का फासीवादी राष्ट्रवाद है।
সমাজ লিখেছেন রবীন্দ্রনাথ ঠাকুর
জুতা-ব্যবস্থা
লাটসাহেব রুখিয়া দরখাস্তের উত্তরে কহিলেন, 'তোমরা কিছু বোঝ না, আমরা যাহা করিয়াছি, তোমাদের ভালোর জন্যই করিয়াছি। আমাদের সিদ্ধান্ত ব্যবস্থা লইয়া বাগাড়ম্বর করাতে তোমাদের রাজ-ভক্তির অভাব প্রকাশ পাইতেছে। ইত্যাদি।'
নিয়ম প্রচলিত হইল। প্রতি গবর্নমেন্ট-কার্যশালায় একজন করিয়া ইংরাজ জুতা-প্রহর্তা নিযুক্ত হইল। উচ্চপদের কর্মচারীদের এক শত ঘা করিয়া বরাদ্দ হইল। পদের উচ্চ-নীচতা অনুসারে জুতা- প্রহার-সংখ্যার ন্যূনাধিক্য হইল। বিশেষ সম্মান-সূচক পদের জন্য বুট জুতা ও নিম্ন-শ্রেণীস্থ পদের জন্য নাগরা জুতা নির্দিষ্ট হইল।
हिंदू राष्ट्रवाद के धर्मोन्माद का भारतीय दर्शन परंपरा से कोई लेना देना नहीं
যখন নিয়ম ভালোরূপে জারি হইল, তখন বাঙালি কর্মচারীরা কহিল, 'যাহার নিমক খাইতেছি, তাহার জুতা খাইব, ইহাতে আর দোষ কী? ইহা লইয়া এত রাগই বা কেন, এত হাঙ্গামাই বা কেন? আমাদের দেশে তো প্রাচীনকাল হইতেই প্রবচন চলিয়া আসিতেছে, পেটে খাইলে পিঠে সয়। আমাদের পিতামহ-প্রপিতামহদের যদি পেটে খাইলে পিঠে সইত তবে আমরা এমনই কী চতুর্ভুজ হইয়াছি, যে আজ আমাদের সহিবে না? স্বধর্মে নিধনং শ্রেয়ঃ পরধর্মোভয়াবহঃ। জুতা খাইতে খাইতে মরাও ভালো, সে আমাদের স্বজাতি-প্রচলিত ধর্ম।' যুক্তিগুলি এমনই প্রবল বলিয়া বোধ হইল যে, যে যাহার কাজে অবিচলিত হইয়া রহিল। আমরা এমনই যুক্তির বশ! (একটা কথা এইখানে মনে হইতেছে। শব্দ-শাস্ত্র অনুসারে যুক্তির অপভ্রংশে জুতি শব্দের উৎপত্তি কি অসম্ভব? বাঙালিদের পক্ষে জুতির অপেক্ষা যুক্তি অতি অল্পই আছে, অতএব বাংলা ভাষায় যুক্তি শব্দ জুতি শব্দে পরিণত হওয়া সম্ভবপর বোধ হইতেছে!) কিছু দিন যায়। দশ ঘা জুতা যে খায়, সে একশো ঘা-ওয়ালাকে দেখিলে জোড় হাত করে, বুটজুতা যে খায় নাগরা-সেবকের সহিত সে কথাই কহে না। কন্যাকর্তারা বরকে জিজ্ঞাসা করে, কয় ঘা করিয়া তাহার জুতা বরাদ্দ। এমন শুনা গিয়াছে, যে দশ ঘা খায় সে ভাঁড়াইয়া বিশ ঘা বলিয়াছে ও এইরূপ অন্যায় প্রতারণা অবলম্বন করিয়া বিবাহ করিয়াছে। ধিক্, ধিক্, মনুষ্যেরা স্বার্থে অন্ধ হইয়া অধর্মাচরণে কিছুমাত্র সংকুচিত হয় না। একজন অপদার্থ অনেক উমেদারি করিয়াও গবর্নমেন্টে কাজ পায় নাই। সে ব্যক্তি একজন চাকর রাখিয়া প্রত্যহ প্রাতে বিশ ঘা করিয়া জুতা খাইত। নরাধম তাহার পিঠের দাগ দেখাইয়া দশ জায়গা জাঁক করিয়া বেড়াইত, এবং এই উপায়ে তাহার নিরীহ শ্বশুরের চক্ষে ধুলা দিয়া একটি পরমাসুন্দরী স্ত্রীরত্ন লাভ করে। কিন্তু শুনিতেছি সে স্ত্রীরত্নটি তাহার পিঠের দাগ বাড়াইতেছে বৈ কমাইতেছে না। আজকাল ট্রেনে হউক, সভায় হউক, লোকের সহিত দেখা হইলেই জিজ্ঞাসা করে, 'মহাশয়ের নাম? মহাশয়ের নিবাস? মহাশয়ের কয় ঘা করিয়া জুতা বরাদ্দ?' আজকালকার


