नेहरू की मौत की खबर सुनकर फूट-फूट कर रोये थे शेख अब्दुल्ला
नेहरू की मौत की खबर सुनकर फूट-फूट कर रोये थे शेख अब्दुल्ला
शेष नारायण सिंह
1947 में कश्मीर का मसला जब संयुक्त राष्ट्र में ले जाया गया तो संयुक्त राष्ट्र में एक प्रस्ताव पास हुआ कि कश्मीरी जनता से पूछ कर तय किया जाय कि वे किधर जाना चाहते हैं। भारत ने इस प्रस्ताव का खुले दिल से समर्थन किया लेकिन पाकिस्तान वाले भागते रहे, उस दौर में पाकिस्तान अपनी पूरी ताक़त से कश्मीर में जनमत संग्रह का विरोध करता था।
शेख अब्दुल्ला कश्मीरियों के हीरो थे और वे जिधर चाहते उधर ही कश्मीर की जनता जाती। उस दौर में शेख पूरी तरह से महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू के साथ थे। लेकिन 1953 के बाद यह हालात भी बदल गए। बाद में पाकिस्तान जनमत संग्रह के पक्ष में हो गया और भारत उस से पीछा छुड़ाने लगा।
इन हालात के पैदा होने में बहुत सारे कारण हैं।
बात यहाँ तक बिगड़ गयी कि शेख अब्दुल्ला की सरकार बर्खास्त की गयी, और शेख अब्दुल्ला को 9 अगस्त 1953 के दिन गिरफ्तार कर लिया गया। उसके बाद तो फिर वह बात कभी नहीं रही। बीच में राजा के वफादार नेताओं की टोली, जिसे प्रजा परिषद् के नाम से जाना जाता था, ने हालात को बहुत बिगाड़ा।
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अपने अंतिम दिनों में जवाहरलाल नेहरु ने शेख अब्दुल्ला से बात करके स्थिति को दुरुस्त करने की कोशिश फिर से शुरू कर दिया था।
6 अप्रैल 1964 को शेख अब्दुल्ला को जम्मू जेल से रिहा किया गया और नेहरू से उनकी मुलाक़ात हुई। शेख अब्दुल्ला ने एक बयान दिया। बयान को लिखा था कश्मीरी मामलों के जानकार बलराज पुरी ने।
शेख ने कहा कि उनके नेतृत्व में ही जम्मू कश्मीर का विलय भारत में हुआ था। वे हर उस बात को अपनी बात मानते हैं जो उन्होंने अपनी गिरफ्तारी के पहले 8 अगस्त 1953 तक कहा था।
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नेहरू भी पाकिस्तान से बात करना चाहते थे और किसी तरह से समस्या को हल करना चाहते थे। नेहरू ने इसी सिलसिले में शेख अब्दुल्ला को पाकिस्तान जाकर संभावना तलाशने का काम सौंपा.. शेख गए।
27 मई 1964 के दिन पाक अधिकृत कश्मीर के मुज़फ्फराबाद में उनके लिए दोपहर के भोजन के लिए व्यवस्था की गयी थी। वहां उनके पुराने दोस्त मौजूद थे। उसी वक़्त जवाहरलाल नेहरू की मौत की खबर आई।
बताते हैं कि खबर सुन कर शेख अब्दुल्ला फूट फूट कर रोये थे।
नेहरू के मरने के बाद तो हालात बहुत तेज़ी से बिगड़ने लगे। कश्मीर के मामलों में नेहरू के बाद के नेताओं ने कानूनी हस्तक्षेप की तैयारी शुरू कर दी,..वहां संविधान की धारा 356 और 357 लागू कर दी गयी। इसके बाद शेख अब्दुल्ला को एक बार फिर गिरफ्तार कर लिया गया।
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इस बीच पाकिस्तान ने एक बार फिर कश्मीर पर हमला करके उसे कब्जाने की कोशिश की लेकिन पाकिस्तानी फौज ने मुंह की खाई और ताशकंद में जाकर रूसी दखल से सुलह हुई।
भारत में उसके बाद अदूरदर्शी शासक आते गए। हद तो तब हुए जब राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व के दौरान अरुण नेहरू ने शेख साहेब के दामाद, गुल शाह को मुख्यमंत्री बनवाकर फारूक अब्दुल्ला से बदला लेने की कोशिश की। एक बार फिर साफ़ हो गया कि दिल्ली वाले कश्मीरी अवाम के पक्षधर नहीं हैं, वे तो कश्मीर पर हुकूमत करना चाहते हैं।
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उसके बाद एक से एक गलतियाँ होती गयीं।
जगमोहन को राज्य का गवर्नर बनाकर भेजा गया। उन्होंने जो कुछ भी किया उसे कश्मीरी जनता ने पसंद नहीं किया।
वी पी सिंह सरकार में गृहमंत्री रहे मुफ्ती मुहम्मद सईद की बेटी का अपहरण करके आतंकवादियों ने साबित कर दिया कि वे कश्मीरी जनता को भारत के खिलाफ कर चुके हैं।
बाद में तो भारत की सेना ने ही कश्मीर को सम्भाला और हालात बद से बदतर होते गए। ज़रुरत इस बात की है कि कश्मीर में वही माहौल एक बार फिर पैदा हो जो 1953 के पहले था, वरना पता नहीं कब तक कश्मीर का आम आदमी राजनीतिक स्वार्थों का शिकार होता रहेगा।
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