नोटबंदी का पर्यावरण और बहुजनों का हिंदुत्व खतरनाक हैं दोनों
पलाश विश्वास

हम शुरु से जल जंगल जमीन के हक हकूक को पर्यावरण के मुद्दे मानते रहे हैं। हम यह भी मानते रहे हैं कि मुक्तबाजारी अर्थव्यवस्था से प्रकृति, मनुष्यता, संस्कृति और सभ्यता के अलावा धर्म कर्म को खतरा है।

सभ्यता के विकास में मनुष्य और प्रकृति के संबंध हमेशा निर्णायक रहे हैं तो सभ्यता के विकास में पर्याववरण चेतना आधार रहा है। यही हमारे उत्पादन संबंधों का इतिहास हैं और इन्हीं उत्पादक संबंधों से भारतीय अर्थव्यवस्था बनी है, जिसका आधार कृषि है। धर्म कर्म और आध्यात्म का आधार भी वहीं पर्यावरण चेतना है।

ईश्वर कही हैं तो प्रकृति में ही उसकी सर्वोत्तम अभिव्यक्ति है। आस्था का आधार भी यही है।

मुक्तबाजारी हिंदुत्व को इसीलिए हम धर्म मानने से इंकार करते रहे हैं। यह विशुद कारपोरेट राजनीति है, अधर्म है। अंधकार का कारोबार है। नस्ली नरसंहार है।

भारत में पर्यावरण का पहरुआ हिमालय है तो सारे तीर्थस्थान वहीं हैं और वहां के सारे लोग आस्तिक हैं।

यह आस्था दरअसल उनकी पर्यावरण चेतना है। पर्यावरण चेतना के बिना धर्म जैसा कुछ होता ही नहीं है, ऐसा हम मानते हैं।

नोटबंदी के डिजिटल कैशलैस मुक्तबाजारी नस्ली नरसंहार अभियान के निशाने पर प्रकृति, मनुष्यता, संस्कृति, सभ्यता के अलावा मनुष्य की आस्था, परंपरा, इतिहास के साथ साथ धर्म कर्म भी है।

नोटबंदी के पचास दिन पूरे होते न होते डिजिटल कैशलैस इंडिया की हवा निकल गयी है। सामने नकदी संकट भयावह है।

देश के चार टकसालों में शालबनी में कर्मचारियों ने ओवर टाइम काम करने से मना कर दिया है, जहं रात दिन नोटों की छपाई के बाद कैशलैस लेनदेन तीन चार सौ गुणा बढ़ने के बावजूद बैंक अपने ग्राहकों को नकदी देने असमर्थ हैं।

बाकी तीन टकसालों में भी देर सवेर शालबनी की स्थिति बन गयी तो इंटरनेट और मोबाइल से बाहर भारत के अधिकरांश जनगण का क्या होगा, यह पीएम एटीएम और एफएम कारपोरेट के तुगलकी राजकाज और राजकरण पर निर्भर है।

यूपी में चुनाव है तो वहां नोट, मोटर साईकिलें और ट्रक भी आसमान से बरस रहे हैं। बंगाल बिहार ओड़ीशा और बाकी देश में जहां चुनाव नहीं है, आम जनता की सुधि लेने वाला कोई नहीं है।

राष्ट्र के नाम संदेश, शोक संदेश से हालात नहीं बदलने वाले हैं।

नोटबंदी सिरे से फेल हो जाने के बाद नोटबंदी का पर्यावरण बेहद खतरनाक हो गया है।

इस देश की जनसंख्या में सवर्ण हिंदू बमुश्किल आठ फीसद हैं।

बाकी बानब्वे फीसद बहुजन हैं।

ब्राह्मणों और सवर्णों को अपनी दुर्गति के लिए गरियाने वाले ये बानब्वे फीसद बहुजन ही देश के असल भाग्यविधाता हैं।

पढ़े लिखे सवर्णों में ज्यादातर नास्तिक हैं।

पढ़े लिखे ब्राह्मण भी अब जनेऊ धारण नहीं करते।

इसके विपरीत पढ़े लिखे बहुजन कहीं ज्यादा हिंदू हो गये हैं और कर्मकांड में बहुजन सवर्णों से मीलों आगे हैं।

मंत्र तंत्र यंत्र के शिकंजे में भी ओनली बहुजन हैं।

हिंदुत्व सुनामी में जो साधू संत साध्वी ब्रिगेड हैं, उनमें भी बहुजन कहीं ज्यादा हैं।

बहुजनों के धर्मोन्माद से ही हिंदुत्व का यह विजय रथ अपराजेय है और यही मुक्तबाजार का सबसे बड़ा तिलिस्म है।

कारपोरेट हिंदुत्व का सबसे बड़ा प्रायोजक है। अब तो रतन टाटा भी हिंदुत्व की शरण में नागपुर में शरणागत हैं।

जाहिर है कि नोटबंदी का पर्यावरण और बहुजनों का हिंदुत्व खतरनाक हैं दोनों। बेहद खतरनाक हैं और यही डिजिटल कैशलैस सैन्यतंत्र सैन्यराष्ट्र का चरित्र है।

नोटबंदी के पचास दिन पूरे होने से पहले मुंबई से लेकर उत्तराखंड तक जो हिंदुत्व का एजंडा लागू हो रहा है, उस पर गौर करना बेहद जरूरी है।

गढ़वाल में भूंकप क्षेत्र भागीरथी और अलकनंदा घाटियों के आस पास चारधामों तक राजमार्ग पर्यटन विकास के लिए नहीं है।

उत्तराखंड में चुनाव जीतने का रणकौशल भी यह नहीं है।

हिमाचल और उत्तराखंड का केसरियाकरण बहुत पहले हो गया है। अब बाकी देश के केसरियाकरण के सिलसिले में यह राममंदिर आंदोलन रिलांच है जैसे केजरीवाल अन्ना ब्रिगेड का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन सिरे से आरक्षणविरोधी है, वैसे ही हिंदुत्व का यह एजंडा विशुध कारपोरेट एजंडा है।

हिंदुत्व के इस कारपोरेट एजंडा ने तो शिवसेना को भी अनाथ करके शिवाजी महाराज की विरासत पर कब्जा करने के लिए अरब सागर में शिवाजी भसान कर दिया है और मुंबई में राममंदिर का निर्माण भी हो गया है।

संघ परिवार बाबासाहेब अंबेडकर के अंबेडकर भवन ढहाकर, कब्जा करके उसी जमीन पर बहुजनों का नया राममंदिर बाबासाहेब के नाम बना रहा है।

हम जहां हैं, उस कोलकाता के जलमग्न हो जाने का खतरा गहरा रहा है।

हुगली नदी के दोनों किनारे कोलकाता और हावड़ा हुगली में भी टूट रहे हैं जैसे मुर्शिदाबाद और मालदह में टूट रहे हैं। तो सुंदर वन के सारे द्वीप डूबने वाले हैं।

पर्यावरण महासंकट में नोटबंदी का पाप धोने के लिए समुद्रतट से लेकर हिमालय तक मुक्तबाजारी कारपोरेट हमला तेज है।

सुंदरवन और पहाड़ों में रोजगार की तलाश में पलायन का परिदृश्य एक जैसा है।

अभी सुंदर वन के गोसाबा में मशहूर पर्यावरण कार्यकर्ता तुषार कांजिलाल की टैगोर सोसाइटी फार रूरल डेवलपमेंट ने चार गांवों आनंदपुर, लाहिड़ीपुर, हैमिल्टनबाद और लाटबागान में घर घर जाकर समीक्षा की है। इन गांवों के पांच हजार तीन सौ एक सक्षम पुरुषों में दो हजार पांच सौ छसठ पुरुषों ने रोजगार की तलाश में गांव छोड़ दिया है। 618 महिलाओं ने भी गांव छोड़ दिया है।

यह एक नमूना है। सुंदरवन ही नहीं उत्तराखंड के पहाड़ों के गांवों की तस्वीर यही है।

पर्यटन विकास की ही बात करें तो उत्तराखंड को बहुत कम निवेश पर मौजूदा रेलवे नेटवर्क के जरिये पूरे देश से जोड़ा जा सकता है जबकि नैनीताल जैसे पर्यटन स्थल तक पहुंचने के लिए अब सिर्फ कोलकाता और नई दिल्ली से सीधी ट्रेनें हैं। मुंबई, चेन्नै, बेंगलुरु, जयपुर, अबहमदाबाद, नागपुर, भोपाल, रायपुर, भुवनेश्वर से अगर नैनीताल के लिए सीधी ट्रेन सेवा हो तो कुमायूं में पर्यटन विकास बहुत बढ़ सकता है।

देहरादून हरिद्वार देशभर से जुड़ा है, वहां से रेलवे नोटवर्क को पूरे उत्तराखंड हिमाचल तक ले जाना फौरी जरूरत है।

सरकार ऐसा कुछ न करके गढवाल के केदार जलसुनामी इलाकों में बारहमहीने धर्म पर्यटन का बंदोबस्त कर रही है, तो इसका असल मकसद समझना जरूरी है।

हिमालय के बारे में चेतावनियां सत्तर के दशक से जारी होती रही हैं।

अब वर्ल्डवाइल्ड लाइफ फंड की 2011 की रपट के मुताबिक सुंदरवन इलाके के लिए डूब के खतरे की चेतावनी भी बासी हो चुकी है जबकि भारत के सारे समुद्रतट को परमाणु भट्टी में तब्दील करने का अश्वमेध अभियान जारी है।

शिवसेना ने मुंबई के सीने पर जैतापुर में पांच-पांच परमाणु संयंत्र लगाने का अभी तक विरोध नहीं किया है जबकि शिवाजी की विरासत छिनने पर मराठी मानुष के जीवन मरण के दावेदार बौखला रहे हैं।

चेतावनी है कि अगले तीस सालों में सुंदरवन के पंद्रह लाख लोग बेघर होंगे और सुंदरवन के तमाम द्वीप डूब में शामिल होंगे।

हम अपने लिखे कहे में लगातार मुक्त बाजार के खिलाफ पर्यावरण आंदोलन तेज करने की बात करते रहे हैं।

हम बहुजन आंदोलन को भी पर्यावरण आंदोलन में बदलने के पक्षधर हैं। क्योंकि बहुजनों के हकहकूक के तमाम मामले जल जंगल जमीन आजीविका और रोजगार से जुड़े हैं और पार्कृति संसाधन उन्ही से छीने जा रहे हैं। क्योंकि कृषि भारत में पर्यावरण, जलवायु, जीवन चक्र और मौसम केसंतुलन का आधार है और भारत में कृषिजीवी आम जनता बहुजन हैं। हमारी किसी ने नहीं सुनी है।

अब हमारे लिए यह बहुत बड़ा संकट है कि कमसकम पहाड़ों में लगभग सारे राजनेता चिपको आंदोलन से जुड़े होने के बाद उनमें से ज्यादातर लोग अब कारपोरेट दल्ला बन गये हैं और हिमालय के हत्यारों में वे शामिल हैं।

जाहिर है कि सामाजिक कार्यकर्ता और पर्यावरण कार्यकर्ता का चरित्र भी राजनीतिक संक्रमण से पूरी तरह बदल जाता है। आम जनता के बजाय उन्हें बिल्डरों, माफिया, प्रोमोटरों, कारपोरेट बहुराष्ट्रीय कंपनियों की ज्यादा चिंता लगी रहती है।

यह बेहद खतरनाक स्थिति है।

बहुजनों के केसरियाकरण और बहुजनों के हिंदुत्व से ही सारा का सारा राजनीतिक वर्ग इस देश में बहुजनों के नस्ली नरसंहार के हिंदुत्व एजंडा को अंजाम दे रहा है। इसका प्रतिरोध न हुआ तो आगे सत्यानाश है।

डीएसबी जमाने के हमारे प्राचीन मित्र राजा बहुगुणा का ताजा स्टेटस हैः

हरीश रावत ने केदारधाम तो मोदी ने चारधाम से सिक्का जमाया ? उत्तराखंड की कौन कहे ?

राजा बहुगुणा आपातकाल के बाद नैनीताल जिला युवा जनता दल के अध्यक्ष थे। वनों की नीलामी के खिलाफ आंदोलन में वे जनतादल छोड़कर उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी के कार्यकर्ता बने।

28 नवंबर, 1977 को नैनीताल में छात्रों पर लाठीचार्ज, पुलिस फायरिंग, नैनीताल क्लब अग्निकांड के मध्य वनों की नीलामी के खिलाफ शेखर दाज्यू, गिरदा, राजीव लोचन शाह और दूसरे लोगों के साथ जेल जाने वालों में उत्तराखंड के मौजूदा मुख्यमंत्री हरीश रावत भी शामिल थे।

हरीश रावत जेल से निकलकर सीधे राजनीति में चले गये।

गौरतलब है कि इसीलिए हरीश रावत के मुख्यमंत्री बनने पर वाहिनी के चिपकोकालीन अध्यक्ष शमशेर सिंह बिष्ट ने एक आंदोलनकारी के हाथों में सत्ता की बागडोर होने की बात कहकर हलचल मचा दी थी।

तब डीएसबी के छात्र आज के सांसद प्रदीप टमटा भी वाहिनी के बेहद सक्रिय कार्यकर्ता थे। वह लंघम हास्टल में रहता था, जहां पहले राजा रहते थे। लंघम में रहते हुए ही राजा के साथ महेंद्र सिंह पाल की भारी भिड़ंत हो गयी थी।

नैनीताल के सबसे धांसू छात्र नेता महेंद्र सिंह पाल भी हम लोगों के ही साथ थे। हम लोग ब्रुकहिल्स में रहनेवाले काशी सिंह ऐरी के साथ थे तो प्रदीप लंघम के ही शेर सिंह नौलिया के साथ।

चिपको ने हम सभी को एकसाथ कर दिया।

चिपको के दौरान प्रदीप के डेरे थे बंगाल होटल में मेरा कमरा, गिर्दा का लिहाफ और नैनीताल समाचार का दफ्तर। तो काशी सिंह ऐरी भी चिपकों के दौरान डीडी पंत और विपिन त्रिपाठी के साथ उत्तराखंडआंदोलन का हिस्सा बनने से पहले हमारे साथ थे।

मतलब यह खास बात है कि उत्तराखंड की राजनीति में सक्रिय तमाम लोग चिपको आंदोलन से जुड़े थे।

अब सामाजिक कार्यकर्ता और आंदोलनकारी से राजनेता, मुख्यमंत्री से लेकर सांसद तक बनने वाले प्राचीन साथियों की पर्यावरण चेतना पर हमें शक है।

हमारे साथी, हमें माफ करें। मैं जन्मजात तराई का मैदानी हूं। मातृभाषा भी बांग्ला है। ऊपर से शरणार्थी किसान परिवार से हूं। खांटी उत्तराखंडी होने का दावा कर नहीं सकता।

हमें जितनी फिक्र उत्तराखंड की कोलकाता में 25 साल गुजारने के बावजूद हो रही है, उतनी फिक्र भी हमारे साथियों को उत्तराखंड की नहीं है, यह हमारे लिए गहरा सदमा है।

वैसे उत्तराखंड की राजनीति और विधानसभा में भी हमारे पुराने साथी कम नहीं हैं। लेकिन महिला आंदोलनकारियों की बेमिसाल शहादतों और उत्तराखंड वासियों की आकांक्षा और संघर्षों से बने नये राज्य में वे क्या कर रहे हैं, समझ से परे हैं।

बारह महीने चार धाम यात्रा के हिंदुत्व प्रोजेक्ट पर राजा के सिवाय किसी का पोस्ट नहीं मिला है।

आदरणीय सुंदरलाल बहुगुणा फेसबुक या सोशल मीडिया पर नहीं हैं। चार धाम हिंदुत्व के सिलसिले में उनकी प्रतिक्रिया या कोई उनका मंतव्य हमारे सामने नहीं है। पत्रकारों को तुरंत उनसे देहरादून में साक्षात्कार करना चाहिए।

सुंदरलाल बहुगुणा हमारी तरह नास्तिक नहीं हैं। विशुद्ध गांधीवादी हैं। वे धार्मिक हैं। पर्यावरण और जल जंगल जमीन के मसलों को वे सीधे आध्यात्म से जोड़कर देखते हैं। उनके विरोध का हथियार भी उपवास है। पर्यावरण संकट के मद्देनजर बरसों से वे पहाड़ों पर चढ़ नहीं रहे हैं और गोमुख पर रेगिस्तान बनते देख भविष्य में जल संकट के मद्देनजर उन्होंने बरसों से अन्नजल छोड़ दिया है। गंगा की अविराम जलधारा को बनाये रखने का नारा उन्होंने ही सबसे पहले दिया था।

आदरणीय सुंदर लाल बहुगुणा हमें कोई दिशा दें तो बेहतर। मुख्यमंत्री हरीश रावत या फिर केंद्र सरकार या प्रधानमंत्री को भी वे सलाह देने की हालत में हैं।

अभी हिमालय में तमाम ग्लेशियर पिघलने लगे हैं और एक-एक इंच जमीन भूमाफिया ने दखल कर लिया है। बारह मास धर्म पर्यटन में पहाड़ियों का क्या हिस्सा होगा, मौजूदा पर्यटन वाणिज्य में पहाड़ियों की हिस्सेदारी के मद्देनजर इसे समझा जा सकता है। पर्यावरण, मौसम और जलवायु के परिदृश्य में माउंट एवरेस्ट पर्वतारोहण पर्यटन का नजारा सामने हैं।

इसी सिलसिले में पहाड़ से ही इंद्रेश मैखुरी का यह स्टेटस भी उत्तराखंड में हिंदुत्व के जलवे को समझने के लिए मददगार हैः

हरीश रावत जी ने बुजुर्गों के मुफ्त तीर्थ घूमने की योजना निकाली, भूत-मसाण पूजने वालों को पेंशन की घोषणा की। छठ, करवाचौथ की छुट्टी कर डाली और अब जुमे की नमाज के लिए सरकारी कर्मचारियों को 90 मिनट की छुट्टी दे रहे हैं।

हरीश रावत जी बुजुर्ग हैं, तीर्थ करने की उनकी उम्र है, छुट्टी की जरूरत है, उनको। तो क्यूँ न उनकी ही छुट्टी करके तीर्थ यात्रा पर रवाना कर दिया जाए। नहीं तो वे राज्य को ही मसाण बना कर उसकी पुजई करते रहेंगे!