प्रो. कलबुर्गी की शहादत: कट्टरपंथ की बौखलाहट
विचार मरते नहीं फैलते हैं तथा इतिहास को दिशा देते हैं.
ईश मिश्र
30 अगस्त को धारवाड़ में प्रोफेसर मल्लेशप्पा मदिवलप्पा कलबुर्गी की हिंदू तालिबानों द्वारा कायराना हत्या, अंध-आस्था तथा विवेक के द्वंद्व की अनादिकाल काल से चली आ रही प्रक्रिया की ताजी कड़ी है. विवेकजन्य तर्कशीलता से अंध-आस्था आहत महसूस करती है तथा आस्था के रखवाले बौखलाहट में विचारक की हत्या कर देते हैं, वे जानते नहीं कि विचार मरते नहीं फैलते हैं तथा इतिहास को दिशा देते हैं. हंपी विश्वविद्यालय के कुलपति रह चुके, लेखक, कवि, शोधकर्त्ता कलबुर्गी की ख्याति प्रांतीय-राष् से अंतरराष्ट्रींतरराष्ट्रीय हो गयी. दुनिया के तमाम शहरों में प्रतिरोध मार्च तथा प्रतिरोध सभाएं आयोजित हुईं. कन्नड़ के कवि तथा नाटकर कार, जवाहरलाल विश्वविद्यालय के प्रोफेसर, यचयस शिवप्रकाश के अनुसार, प्रो. कलबुर्गी, “पूर्वाग्रहों से मुक्त, खुले दिमाग के, एक विशाल हृदय, प्रगतिशील इंसान थे, परिणाम की परवाह किए बिना अप्रिय सत्य कहने का साहस करते थे “.
इसके पहले डाभोलकर तथा गोविंद पनसरे की हत्याएं भी अंध आस्था, अंधविश्वास तथा निराधार कुतार्किक सामाजिक मूल्यों के विरुद्ध खुल कर बोलने-लिखने के कारण इन्हीं बददिमाग हिंदुत्ववादी तालिबानों ने किया. चिंतक यू. आर. अनंतमूर्ति की मृत्यु पर जश्न मनाने वाले हिंदुत्ववादी तालिबानों, कलबुर्गी की हत्या के बाद एक अन्य तर्कवादी लेखक को चिन्हित कर उन्ही की परिणति की धमकी दी है. सरकारें न तो अभी तक डोभालकर के हत्यारों को पकड़ पाई है न गोविंद पनसरे के हत्यारों को. कलबुर्गी के हत्यारों के पकड़े जाने की उम्मीद कम है. लेकिन क्या कलबुर्गी को गोली मारने वाला ही कलबुर्गी का असली हत्यारा है? कलबुर्गी की हत्या इसलिए नहीं की गयी कि उनसे किसी की निजी दुश्मनी थी या उनकी किसीसे निजी दुश्मनी थी. उनकी दुश्मनी प्रतिगामी सामाजाजिक मूल्य-मान्यताओं, 12वीं शताब्दी के दार्शनिक बासव की शिक्षा की गलत व्याख्या से थी.
उल्लेखनीय है कि बासव
का दर्शन प्रो. कलबुर्गी के शोध का प्रमुख विषय रहा है. इसीलिए धार्मिक अंधविश्वासों तथा रूढ़ियों का सहारा लेकर लोगों की धार्मिक भावनाओं के शोषण की सियासत करने वाली हिंदुत्ववादी ताकतों की आंख की किरकिरी बने हुए थे. उन्हें धमकियां भी मिलती थीं. सरकार ने सुरक्षा मुहैया कराया. उन्होने लौटा दिया था.
सत्य का अन्वेषी निर्भीक होता है, न भगवान से डरता है न मौत से. उन्होने सुरक्षा लौटा दिया. दाभोलकर तथा पंसारे की शहादत का भी मुख्यतः यही कारण है. बांग्लादेश में इस्लामी कट्टरपंथियों द्वारा वहां के तर्कवादी ब्लॉगरों की हत्याओं के पीछे भी यही कारण हैं.
वैचारिक दिवालियेपन की शिकार, अंर्निहित तनाशाही प्रवृत्तियों वाले दल तथा समूह जो लोगों की धार्मिक, जातीय, नस्लीय, राष्ट्रीय भावनाओं के शोषण से जनविरोधी राजनीति को अंजाम देते हैं, वे विचारों से खुद को बेनकाब़ होते देख, घबराकर, बौखलाहट में विचारक की हत्या कर देते हैं. लेकिन विचार मरते नहीं, फैलते हैं. अमर रहेंगे कलबुर्गी अपने विचारों में, चार्वाक, सुकरात, गैलेलिओ की तरह.
28 नवंबर 1938 को जन्मे जाने माने साहित्यकार और शोधकर्ता, हम्पी के कन्नड़ विश्वविद्यालय के कुलपति रहे प्रोफेसर कल्बुर्गी ने अपने लंबे शैक्षणिक जीवन में 103 किताबें और 400 से अधिक शोध आलेख लिखे. साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित, प्रो. कलबुर्गी की पुरातत्वविज्ञान तथा पुराने अभिलेखों में विशेष रुचि थी.
दर-असल इन ताकतों का मकसद पोंगापंथ तथा धर्मांधता के विरोधी, विवेकशील बुद्धिजीविओं को डराना है. लेकिन कलबुर्गी की शहादत के प्रतिरोध में देश के कोने कोने में हुए प्रतिरोध कार्यक्रम इस बात के गवाह हैं के सत्य के पक्षधर डरते नहीं. अपनी रचनाओं में मूर्तिपूजा के निरंतर विरोध के चलते वे निरंतर हिन्दू कट्टरपंथी संगठनों के निशाने पर थे. 1989 में उनकी लिखी एक पुस्तक में लिंगायत मत के संस्थापक संत बसवेश्वर (जिन्होंने स्वयं अंधश्रद्धा, जाति-प्रथा, साम्प्रदायिक और लैंगिक भेद-भाव के विरुद्ध 12वीं सदी में ही युद्ध छेड़ा था) के जीवन-प्रसंग से सम्बंधित दो अध्यायों को उन्हें कट्टरपंथियों के दबाव में वापस लेना पड़ा था. इस घटना पर व्यथित होकर उन्होंने इंडिया टूडे को दिये इंटरविव में कहा था, ‘मैंने अपने परिवार की सुरक्षा के लिए यह किया, लेकिन इसी दिन मेरी बौद्धिक मृत्यु हो गयी.’ कलबुर्गी खुद लिंगायत थे तथा वचन (दार्शनिक बासव की शिक्षा का साहित्य) के जाने माने विद्वान लेकिन ग्रंथों की उनकी व्याख्या लिंगायतवादियों को नागवार लगी.
2014 में कर्नाटक में ‘अंधश्रद्धा विरोधी विधेयक’ पर बहस में प्रो कलबुर्गी के मूर्ति-पूजा विरोधी विचारों से क्रुद्ध विश्व हिन्दू परिषद और बजरंग दल से उन्हें धमकियां मिलने लगी थीं. अनंतमूर्ति पर जब हमले हो रहे थे तब भी कल्बुर्गी उन लेखकों में शामिल थे, जिन्होंने मुखर होकर उनका पक्ष लिया. कुछ समय तक उन्हें पुलिस सुरक्षा भी सरकार ने उपलब्ध कराई थी. लेकिन लगातार धमकियों के बावजूद यह सुरक्षा हटा ली गई और इसके तुरत बाद पिछले रविवार को सुबह-सुबह उनके घर के दरवाजे पर दो युवकों ने उनके सर में गोली मारकर उनकी हत्या कर दी.
ज़ाहिर है, देश में एक तरफ दुनिया भर से पूंजी आ रही है, नई नई तकनीक आ रही है, हर चीज़ डिजिटल हुई जा रही है, वहीं दूसरी तरफ असहिष्णुता बढ़ती चली जा रही है और तर्क तथा विज्ञान के प्रति अवज्ञा इस स्तर की है कि वैचारिक असहमति का जवाब लिखकर देने की जगह गोली से दिया जा रहा है. 1962 के फ्रांस के प्रसिद्ध छात्र आंदोलन को याद कीजिये जब वहाँ के तत्कालीन राष्ट्रपति के सामने आंदोलनों में बेहद सक्रिय सार्त्र की गिरफ्तारी का प्रस्ताव रखा गया तो उन्होंने कहा, “नहीं, सार्त्र फ्रांस की चेतना है, उसे गिरफ्तार नहीं किया जा सकता.’’ इसके उलट आज हमारे देश में जब सबसे उन्नत मेधाओं की चुन चुन के हत्या हो रही है. अच्छे दिनों की अगली कड़ियों के और भयानक होने के ये संकेत हैं. आवाम को लंबे संघर्ष के लिए तैयार रहना है.
कलबुर्गी लिंगायतों के धार्मिक कर्मकांडों तथा रूढ़ियों के साथ साथ लिंगायतमठ के भी विरुद्ध थे जिस पर वे वासव की विचाऱधारा को विकृत करने का आरोप लगाते थे. इसके अलावा कलबुर्गी अखिल भारतीय वीरशैव सभा जैसे संगठनों की, वैदिक परंपरा से अलग मूल के आधार पर, हिंदू धर्म से अलग अल्पसंख्यक समूह के रूप में मान्यता की मांग के भी समर्थक थे. लंबे समय से लिंगायतों के निशाने पर रहे कलबुर्गी यूआर अनंतमूर्ति का समर्थन करने के बाद से हिंदुत्ववादी कट्टरपंथियों के निशाने पर आ गये.
गौर तलब है कि अनंतमूर्ति द्वारा बचपन में आत्मा की मूर्ति पर पेशाब करने की स्वीकारोक्ति के बाद से ही उन्हें संघ परिवार से धमकियां मिलने लगीं थी तथा उनकी मृत्यु पर संघपरिवारियों ने मिठाई बांट कर जश्न मनाया था. आश्चर्य होता है कि क्या हम विवेकशील युग में जी रहे हैं. प्रो कलबुर्गी की हत्या एक व्यक्ति ही हत्या नहीं यह शैक्षणिक तथा विचारों की स्वतंत्रता तथा अभिव्यक्ति के अधिकार पर हमलों का सिलसिला है जिसके रुकने के नहीं बढ़ने के आसार नज़र आ रहे हैं. दक्षिणपंथी हमले बढ़ रहे हैं, दुनिया की जनवादी ताकतों को एकजुट होकर सामना करने की जरूरत भी बढ़ गयी है.
ईश मिश्र, लेखक प्रसिद्ध वामपंथी विचारक हैं।