— क़मर वहीद नक़वी
यह वही हैं दीनानाथ बतरा। शिक्षा बचाओ आन्दोलन समिति वाले दीनानाथ बतरा जी! अभी लगातार सुर्ख़ियों में रहे हैं। गुजरात में 1969 से दंगों के दौरान कैसे महिलाएँ यौन हिंसा का शिकार होती रही हैं, इस विषय पर डा. मेघा कुमार के एक शोध अध्य्यन को उसके प्रकाशक ने बतरा जी के दबाव में प्रेस में जाने से अभी हाल में रोक दिया था! इसी के कुछ दिनों पहले, इसी फ़रवरी में पेंगुइन ने बतरा जी के चलते अमेरिकी लेखिका वेंडी डोनिगर की किताब ‘ द हिन्दूज़: ऐन आल्टरनेटिव हिस्ट्री’ को बाज़ार से वापस ले लिया था।

तो अब गुजरात के स्कूलों में बतरा जी भी पढ़ाये जायेंगे! बच्चों को पढ़ाया जायेगा, प्यारे बच्चो, मोमबत्तियाँ जला कर, उन्हें फूँक मार कर बुझा कर, केक काट कर जन्मदिन मनाना ग़लत है! यह पश्चिमी संस्कृति है। इसे बन्द करो। अपने जन्मदिन पर स्वदेशी वस्त्र धारण करो। अपने इष्टदेव का पूजन करो, हवन करो, मंत्रों का जाप करो, वस्त्र दान करो, प्रसाद वितरण करो और अन्त में ‘विद्या भारती’ के रचे गीतों का गान करो!

‘अखंड भारत ही सत्य है!’

और बतरा जी का अगला पाठ है। प्यारे बच्चो भारत का मानचित्र बनाओ! न न, यह मानचित्र वह नहीं है, जो भारत का सरकारी मानचित्र है। बतरा जी का भारत तो ‘अखंड भारत’ है। इसलिए बच्चो, तुम जब भारत का मानचित्र बनाओगे तो उसमें पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान, नेपाल, भूटान, तिब्बत, बांग्लादेश, श्रीलंका और म्यांमार को भी शामिल करोगे। ये सब ‘अखंड भारत’ का हिस्सा हैं! बतरा जी पढ़ाते हैं कि ‘अखंड भारत ही सत्य है, विभाजित भारत एक झूठ है। भारत का विभाजन अस्वाभाविक है और इसे फिर से मिला कर एक किया जा सकता है!”

बतरा जी की नौ किताबें ‘पूरक साहित्य’ के तौर पर गुजरात के सभी 42 हज़ार प्राइमरी और माध्यमिक स्कूलों को मुफ़्त दी जा रही हैं ताकि बच्चों को ‘उत्तम शिक्षा’ मिल सके, उनमें ‘नैतिक मूल्यों’ का विकास हो सके और बच्चे भारतीय इतिहास व संस्कृति को अच्छी तरह समझ सकें। वैसे सिर्फ़ सरकारी स्कूल ही नहीं, कोई भी यह किताबें राज्य के स्कूली पाठ्यपुस्तक बोर्ड से बिलकुल मुफ़्त ले सकता है।

कौन हैं यह बतरा जी?

कौन हैं यह बतरा जी, जिन पर गुजरात सरकार इस क़दर मेहरबान है? यह वही हैं दीनानाथ बतरा। शिक्षा बचाओ आन्दोलन समिति वाले दीनानाथ बतरा जी! राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संगठन ‘विद्या भारती’ के पूर्व महासचिव! याद आया। अभी लगातार सुर्ख़ियों में रहे हैं। गुजरात में 1969 से दंगों के दौरान कैसे महिलाएँ यौन हिंसा का शिकार होती रही हैं, इस विषय पर डा. मेघा कुमार के एक शोध अध्य्यन को उसके प्रकाशक ने बतरा जी के दबाव में प्रेस में जाने से ‘फ़िलहाल’ रोक लिया! इसी के कुछ दिनों पहले, इसी फ़रवरी में पेंगुइन ने बतरा जी के चलते अमेरिकी लेखिका वेंडी डोनिगर की किताब ‘ द हिन्दूज़: ऐन आल्टरनेटिव हिस्ट्री’ को बाज़ार से वापस ले लिया था। किताब कई साल से भारत में बिक रही थी। लेकिन किताब जब रोकी गयी, उस समय दिल्ली के दरवाज़े पर मोदी की थाप साफ़ सुनाई देने लगी थी!

इतिहास गवाह है कि कट्टरपंथी धार्मिक पुनरूत्थान की शुरुआत हमेशा ‘स्व-संस्कृति’ की रक्षा के नारों से ही होती है। और संस्कृति की ‘रक्षा’ के निशाने पर आ गये आधुनिक से आधुनिक शहर भी कैसे बदल जाते हैं, यह जिन्हें देखना हो, वह चालीस-पचास बरस पहले के । क़ाबुल और तेहरान के जीवन की झलक का जायज़ा कहीं से ले लें ।

बतरा जी की किताब को गुजरात के स्कूलों में पढ़ाया जाना ‘संस्कारीकरण’ की शुरुआत है। वैसे तो ऊपर से देखने में इसमें क्या बुराई दिखती है कि बच्चों का जन्मदिन ‘भारतीय संस्कृति’ के तौर-तरीक़ों से मनाया जाय? पश्चिमी संस्कृति के अन्धानुकरण की लोग गाहे-बगाहे आलोचना करते ही रहते हैं। और बहुत से ‘ग़ैर-संघी’ भी शिद्दत से इस आलोचना में शामिल होते हैं। बहुत-से लोगों को पब, पार्टी, डाँस-डिस्को, वाइन ऐंड डाइन संस्कृति नहीं जमती। हो सकता है बहुतों को वैलेंटाइन डे मनाना समझ में न आता हो। ऐसे ही मदर्स डे, फ़ादर्स डे और न जाने क्या-क्या ‘डे’ की संस्कृति बहुतों को हज़म नहीं होती। वह ख़ुद ये सब नहीं मनाते, लेकिन उनको रोकते भी नहीं जो इन्हें मनाते हैं! इस तथाकथित पश्चिमी संस्कृति को न पसन्द करनेवाले बहुतेरे लोग आधुनिक हो कर भी कहीं न कहीं अपनी परम्पराओं को ज़्यादा अपने निकट, ज़्यादा अपना, ज़्यादा सहज पाते हैं। इसलिए उन्हें मानते हैं। लेकिन वे अतीतजीवी नहीं होते। वे चार-पाँच सौ या हज़ार-दो हज़ार साल पुराने किसी अतीत को खींच कर आज वर्तमान में नहीं लाना चाहते!

हिन्दू राष्ट्र का स्वप्न!

लेकिन संघ की तो मूल परिकल्पना ही अतीतजीवी है! भारतीय संस्कृति से लेकर भारत की भौगोलिक सीमाओं तक संघ अतीत में जीता है। अखंड भारत की उसकी परिकल्पना इस बात का सबूत है। भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाना उसका स्वप्न है। और अपने इस ‘परम वैभव’ के स्वप्न को अगले तीस बरसों में पा लेने की उसकी योजना है! इसलिए बतरा जी की किताबों के ज़रिए जब गुजरात के सरकारी स्कूलों में पढ़ रहे बच्चों के ‘संस्कारीकरण’ की शुरुआत की जाती है, तो साफ़ हो जाता है कि ‘परम वैभव’ की योजना पर काम शुरू हो चुका है!

इतिहास गवाह है कि कट्टरपंथी धार्मिक पुनरूत्थान की शुरुआत हमेशा ही ‘स्व-संस्कृति’ की रक्षा के नारों से ही होती है। इसलिए जब गोवा का एक मंत्री वहाँ के समुद्र तटों पर बिकनी पहनने पर रोक लगाने की माँग करता है और उसके कुछ ही दिनों बाद उसी का भाई और गोवा सरकार का एक और मंत्री उम्मीद ज़ाहिर करता है कि मोदी जी प्रधानमंत्री बन गये हैं, इसलिए भारत को अब हिन्दू राष्ट्र बनने से कोई रोक नहीं सकता, तो आश्चर्य नहीं होता! आश्चर्य अब इस पर भी नहीं हो रहा है कि कैसे प्रवीण तोगड़िया और अशोक सिंहल जैसे लोग अचानक फिर से प्रकट हो गये हैं। आश्चर्य इस पर भी नहीं होता कि कैसे जगह-जगह अचानक तमाम तरह के हिन्दूवादी संगठनों और छुटभैये नेताओं का हौसला बढ़ने लगा है। और आश्चर्य इस पर भी नहीं होता कि सरकार, पार्टी और संघ हमेशा ऐसे बयानों और मामलों पर प्रायः चुप क्यों रहते हैं?

धार्मिक प्रतिष्ठान के हाथ में सत्ता!

70 के दशक में ईरान की कुछ महिला सांसद

और इतिहास इस बात का भी गवाह है कि पुनरोत्थानवाद और लोकतंत्र में हमेशा छत्तीस का आँकड़ा होता है। जहाँ पुनरोत्थानवादी ताक़तें सत्ता पर क़ाबिज़ होती हैं, वहाँ या तो लोकतंत्र होता नहीं और अगर कहीं उसका दिखावटी ढाँचा होता भी है तो सत्ता की नकेल अन्ततः धार्मिक प्रतिष्ठान के हाथ में होती है। ईरान इसकी ताज़ा मिसाल है, जहाँ वास्तविक सत्ता किसके पास है, सबको पता है। और संस्कृति की ‘रक्षा’ के निशाने पर आ गये आधुनिक से आधुनिक शहर भी कैसे बदल जाते हैं, यह जिन्हें देखना हो, वह चालीस-पचास बरस पहले के क़ाबुल और तेहरान के जीवन की झलक का जायज़ा कहीं से ले लें।

इसलिए हिन्दू राष्ट्र की अचानक से मुखर होने लग गयी ध्वनियों से चिन्तित होना स्वाभाविक है। क्योंकि कोई भी पुरातनपंथी विचार, कोई भी अतीतजीवी अवधारणा मूल रूप से आधुनिकता विरोधी होती है। पिछले कुछ वर्षों में इक्का-दुक्का घटनाओं में, कभी वैलेंटाइन डे के विरोध में, कभी कर्नाटक में पब संस्कृति के विरोध में और कभी गोवा में बिकनी संस्कृति के विरोध के तौर पर इसके संकेत मिलते ही रहे हैं। लेकिन आज के मौजूदा समय में इसके उभार की शुरुआत कहीं ज़्यादा डरावनी है। ख़ास कर इसलिए कि इराक़ और सीरिया में इसलामी पुनरोत्थानवाद की ख़तरनाक आहट देखी जा रही है। उधर, पश्चिमी और इस्लामी दुनिया के बीच पहले से चल-बढ़ रहे ‘सभ्यता के टकराव’ के बीच इज़रायल-फ़लस्तीन विवाद ने आग में घी का काम किया है। अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान पहले ही तालिबान समस्या से जूझ रहे हैं। पड़ोसी बांग्लादेश में हसीना वाजेद सरकार अपने यहाँ के कट्टरपंथियों से जूझ रही है। ऐसे विकट समय में भारत में हिन्दू राष्ट्र और ‘अखंड भारत’ जैसे विचारों और नारों का उठना क़तई शुभ संकेत नहीं है। बतरा जी के पाठ किसी अच्छे दिन के संकेत नहीं देते!

(लोकमत समाचार, 26 जुलाई 2014)

क़मर वहीद नक़वी। वरिष्ठ पत्रकार व हिंदी टेलीविजन पत्रकारिता के जनक में से एक हैं। हिंदी को गढ़ने में अखबारों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। सही अर्थों में कहा जाए तो आधुनिक हिंदी को अखबारों ने ही गढ़ा (यह दीगर बात है कि वही अखबार अब हिंदी की चिंदियां बिखेर रहे हैं), और यह भी उतना ही सत्य है कि हिंदी टेलीविजन पत्रकारिता को भाषा की तमीज़ सिखाने का काम क़मर वहीद नक़वी ने किया है। उनका दिया गया वाक्य – यह थीं खबरें आज तक इंतजार कीजिए कल तक – निजी टीवी पत्रकारिता का सर्वाधिक पसंदीदा नारा रहा। रविवार, चौथी दुनिया, नवभारत टाइम्स और आज तक जैसे संस्थानों में शीर्ष पदों पर रहे नक़वी साहब इंडिया टीवी में भी संपादकीय निदेशक रहे हैं। नागपुर से प्रकाशित लोकमत समाचार में हर हफ्ते उनका साप्ताहिक कॉलम राग देश प्रकाशित होता है।

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