बहुजन भारत को जरूरत है किसी नेल्सन मंडेला की
बहुजन भारत को जरूरत है किसी नेल्सन मंडेला की
एच एल दुसाध
2014 में केन्द्र की सत्ता दखल का सेमी फ़ाइनल माने जा रहे पाँच राज्यों का चुनाव परिणाम सामने आने के बाद आज बहुजन समाज का जागरूक तबका उद्भ्रान्त है; निराशा के सागर में गोते लगा रहा है। कारण, चुनाव परिणाम ने स्पष्ट संकेत दे दिया है कि सोलहवीं लोकसभा में देश के अल्पसंख्यक, बहुसंख्यक और बहुसंख्यक, अल्पसंख्यक के रूप में नज़र आने जा रहे हैं। निराशा की इस घड़ी में जरूरत है ऐसे किसी व्यक्तित्व से प्रेरणा लेने की जिसने भारत जैसे हालात में अपने देश के बहुजनों में उम्मीद की रोशनी जलाया हो। इस लिहाज़ से भारत के बहुजनों के लिये नेल्सन मंडेला से बड़ा कोई प्रेरणा का स्रोत हो ही नहीं सकता।
यह भारी आश्चर्य का विषय है कि विगत कुछ दशकों से मूलनिवासी समुदाय के लोगों में हिस्ट्री के पुनर्लेखन की चाह बढ़ी है और इस कार्य को अंजाम देने के क्रम में उन्होंने कई नए-नए सत्योद्घाटन भी किये हैं। किन्तु सब कुछ करने के बावजूद उन्होंने दक्षिण अफ्रीका से साम्यता स्थापित करने का अपेक्षित प्रयास नहीं किया। जबकि सचाई यही है कि भारत की सर्वाधिक साम्यता दक्षिण अफ्रीका से ही है। भारत भी अफ्रीका भी भाँति विविधतामय देश है। दक्षिण अफ्रीका में 9-10 प्रतिशत अल्पजन गोरों, प्रायः 79 प्रतिशत मूलनिवासी कालों और 10-11 प्रतिशत कलर्ड (एशियाई उपमहाद्वीप के लोगों) की आबादी रही है। ठीक वैसे ही विविधतामय भारत समाज अल्पजन सवर्णों, मूलनिवासी बहुजनों और धार्मिक अल्पसंख्यकों से निर्मित है। जिस तरह दक्षिण अफ्रीका में अल्पजन विदेशागत गोरों का शक्ति के स्रोतों (आर्थिक-राजनीतिक-धार्मिक) पर 80-85 प्रतिशत कब्ज़ा रहा है ठीक उसी तरह हजारों वर्ष पूर्व भारतभूमि पर कब्ज़ा जमाये आर्यों की वर्तमान पीढ़ी का शक्ति के स्रोतों पर 80-85प्रतिशत कब्ज़ा कायम है। जिस तरह दक्षिण अफ्रीका के मूलनिवासी विपुल संख्यक हो कर भी शक्ति के स्रोतों प्रायः पूरी तरह बहिष्कृत रहे, ठीक वैसे ही भारत के मूलनिवासी भी। जिस तरह दक्षिण अफ्रीका में सभी स्कूल, कालेज, होटल, क्लब, रास्ते मूलनिवासी कालों के लिए मुक्त नहीं रहे, लगभग वही स्थिति भारत के मूलनिवासियों की रही। जिस तरह द.अफीका में सभी सुख-सुविधाएँ गोरों के लिये सुलभ रही उससे भिन्न स्थिति भारत में भी नहीं रही। जिस तरह द.अफ्रीका का सम्पूर्ण शासन तंत्र गोरों द्वारा गोरों के हित में क्रियाशील रहा ठीक, उसी तरह भारत में शासन तंत्र द.अफ्रीका के शासकों के प्रतिरूप सवर्णों के हित में सक्रिय रहा है। इन दोनों देशों में मूलनिवासियों की दुर्दशा के मूल में बस एक ही प्रमुख कारण क्रियाशील रहा है और वह है शासक वर्गों का शासितों के प्रति अनात्मीय सम्बन्ध। इसके पीछे शासकों की उपनिवेशवादी सोच की क्रियाशीलता रही। दक्षिण अफ्रीका के गोरों ने जहाँ वहाँ दो सौ साल पहले उपनिवेश कायम किया वहीँ भारत के आर्यों ने यहाँ साढ़े तीन हज़ार वर्ष पूर्व दक्षिण अफ्रीका में गोरों ने जहाँ बन्दूक की नाल पर पुष्ट कानून के जरिये अपने उपनिवेश में मूलनिवासी कालों को जानवर जैसी स्थिति में पड़े रहने के लिए विवश किया था वहीँ भारत के मूलनिवासियों के शोषण में प्रयुक्त हुआ था धर्माधारित कानून, जिसमें मोक्ष को जीवन का चरम लक्ष्य घोषित करते हुए ऐसे प्रावधान तय किये गये जिससे मूलनिवासी शक्ति के स्रोतों से पूरी तरह बहिष्कृत होने के साथ ही निशुल्कदास में परिणत होने के लिये अभिशप्त हुये।
पाँच राज्यों के चुनाव के बाद बहुजन राजनीति का भविष्य अगर अंधकारमय दिख रहा है तो उसका अन्यतम कारण देश के बहुजनवादी नेताओं द्वारा गलत रोल मॉडल का चयन है। मंडलोत्तर काल में जब जाति चेतना से पुष्ट बहुजन राजनीति, यौवनलाभ कर रही थी,उन्ही दिनों अमेरिका के व्हाईट हाउस में काले ओबामा राष्ट्रपति बनकर पहुँचे। अमेरिका का राष्ट्रपति बनने पर ओबामा के प्रति जूनून पैदा करते हुये भारतीय मीडिया ने बड़ी चालाकी से ‘भारतीय ओबामा’ का मुद्दा उछाल दिया। उसके ऐसा करने पर अपने संघर्षों के बल पर ऊँचाई पर पहुँचे कई बहुजन नेताओं ने खुद को ओबामा के रूप में देखना शुरू किया। यह ‘ओबामेनिया’ बहुजन राजनीति के लिए काल साबित हुआ। चूँकि अमेरिका में ओबामा का उदय वहाँ बहुसंख्यक प्रभुवर्ग(गोरों) के सामाजिक विवेक अर्थात रहमो–करम से हुआ था इसलिए बहुजनवादी नेता भी ओबामा बनने के चक्कर में भारतीय प्रभु वर्ग की करुणा जय करने की नीति पर काम करने लगे। इससे देश में सवर्णपरस्ती का एक नया दौर शुरू हुआ। इससे उनके बहुजन हित का एजेण्डा पूरी तरह बदल गया। अब वे बहुजनों के हर क्षेत्र में भागीदारी की जगह गरीब सवर्णों को आरक्षण दिलाने की होड़ में उतर आये जो आज भी बदस्तूर जारी है। इससे उनकी स्थिति ‘माया मिली न राम’वाली हो गयी। अर्थात् सवर्ण जहाँ सवर्णवादी दलों को वोट देते रहे वहीँ बहुजन मतदाताओं में इनके प्रति विराट मोहभंग की प्रक्रिया शुरू हुयी जिसका परिणाम सेमी फाइनल माने जा रहे पाँच राज्यों के चुनाव में किस तरह सामने आया, उसका उल्लेख समय और कलम की स्याही की बर्बादी है। बहरहाल बराक ओबामा जैसे अनुपयुक्त हस्ती को रोल मॉडल बनाने से बहुजन राजनीति को हुयी क्षति की भरपाई का एक ही रास्ता बचता है, वह यह कि भारत में राष्ट्रपति नेल्सन मंडेला की उन नीतियों का जोर शोर से प्रचार-प्रसार हो जिसके कारण वहाँ शक्ति के स्रोतों पर सुदीर्घ काल 80-90 प्रतिशत कब्ज़ा कायम रखने वाला प्रभुवर्ग अपनी संख्यानुपात पर सिमटा और जिसके कारण आज वह दक्षिण अफ्रीका छोड़कर भागने की तैयारी कर रहा है। मंडेला की उस नीति का जोर-शोर से प्रसार इसलिए जरूरी है धरती की छाती पर यह एकमात्र भारत देश है जहाँ बाबा आदम के जमाने के अल्पजन शासक वर्ग का शक्ति स्रोतों 80-85 कब्ज़ा है, जैसा कि कभी दक्षिण अफ्रीका में रहा। शक्ति के स्रोतों पर बेनजीर कब्ज़ा कायम रखने के कारण ही अल्पजन शक्तिशाली वर्ग का जब तब बनने वाला नापाक गठजोड़ बहुजनों को बैक फुट पर आने के लिए मजबूर कर देता है। मंडेला की उपनिवेशवाद विरोधी नीतियों के प्रचार-प्रसार के फलस्वरूप बहुजनों में मिलिट्री, न्यायपालिका, सप्लाई, डीलरशिप, ठेकों, फिल्म-मीडिया, शिक्षा और राजनीति की सभी संस्थाओं और पौरोहित्य इत्यादि हर क्षेत्र में ही भागीदारी की प्रबल चाह पैदा होगी। इस चाह मात्र से ही भारत का सारा राजनीतिक परिदृश्य ही बदल जायेगा। फिर एनजीओ वालों का नापाक गठबंधन सस्ता बिजली, पानी इत्यादि जैसी टुच्ची सुविधाओं के नाम पर बहुजनों को नहीं बरगला पायेगा।


