विद्या भूषण रावत अंबेडकरवादी मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं और देश के अहम सवालों पर बहुत साफ नज़र रखते हैं। अपने इस विचारोत्तेजक विश्लेषण में वह कह रहे हैं कि कांग्रेस आज की जरूरत है क्योंकि देश में दलित आदिवासियों मजदूरों की अभी कोई एक जुट आवाज नहीं दिखती जो हिंदुत्व को हरा सके। देश का यह कर्तव्य है कि हिंदुत्व की इन जातिवादी ताकतों को नेस्तनाबूद करें लेकिन उसके लिये कांग्रेस के सेक्यूलर होनी की गारंटी चाहिए और उसमे सभी वर्गों, दलितों, पिछड़ों, मुस्लिम और अन्य तबकों की भागीदारी देनी होगी। कांग्रेस को सॉफ्ट हिंदुत्व से साफ़ अपनी दूरी बनानी होगी और चिदंबरम, मोंटेक, मनमोहन की आर्थिक सोच को पूर्णतया तिलांजलि देनी होगी...
गुजरात में 2002 में मुसलमानों की मौत के सौदागर अक्सर 1984 के चुनावों का जिक्र करते हैं कि राजीव गाँधी सिखों की लाशों पर देश के प्रधानमंत्री बने। मैं अपने कई विश्लेषणों में कह चुका हूँ कि राजीव जिस मैंडेट से प्रधानमंत्री बने थे वह हिंदुत्व का मैंडेट था, पूर्णतया सांप्रदायिक था, वह चुनाव परिणाम असल में सिखों को सबक सिखाने के लिये ही था और राजीव हिन्दुओं के नायक बनकर उभर रहे थे, इंदिरा गांधी एक हिन्दू बन चुकी थीं जिनकी हत्या 'सिख आतंकवादियों' ने की थी। देश भर में सिखों के विरूद्ध जो हिंसा थी उसमे कांग्रेस के बड़े नेता जरूर शामिल थे लेकिन उनके लोगों ने इसको हवा नहीं दी। यह कहने का कोई कारण नहीं है क्योंकि जो दंगे हुये थे, वे कांग्रेस और सिखों के बीच नहीं हुये थे अपितु 'हिन्दुओं' ने इस हिंसा को अंजाम दिया और कांग्रेस हिन्दू राष्ट्रवाद की मुख्य पुरोधा बनकर उभरी जिसने भाजपा को मात्र दो सीटों पर ही सिमटा कर रख दिया।
... लेकिन राजीव की इस विशाल जीत में सेकुलरिज्म और संविधान की हार हुयी। साम्प्रदायिकता के मुख्य स्रोतों का इस्तेमाल कर कांग्रेस ने जीत तो हासिल
हिंदुत्व की ताकतों ने ब्राह्मणवादी अन्तर्विरोधों की राजनीति को अच्छे से समझा और इसलिये राम मंदिर के आन्दोलन को और मज़बूत किया क्योंकि फिर 'मुस्लिम' विरोध के नाम पर बाकि गैर मुसलमानों का एकीकरण हो जाये। जो जातियाँ सामाजिक न्याय की बातें करती और अपने लिये अधिकार माँगती वो मुस्लिम विरोध पर एक हो जातीं। हालाँकि उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा की सरकारें बनीं लेकिन हकीकत में वैचारिक तौर पैर वे ब्राह्मणवाद से समझौता करके ही काम चलाते रहे और हिंदुत्व की लम्बी दूरी के निशाने पर रहे। अब उत्तर प्रदेश में माया और मुलायम कभी एक नहीं हो सकते और ये क्यों हुआ इसके लिये हमे बहुत कुछ अलग से कहने की जरूरत नहीं। किसकी गलती है और कौन कैसा है, यह तो भविष्य के आँगन में है लेकिन सच्चाई यह कि इसने हिंदुत्व को और मज़बूत कर दिया।
मह्त्वाकाँक्षाएं ख़राब नहीं होतीं लेकिन एक शर्मनाक हालत में मंडल शक्तियों के बीच सांप्रदायीकरण,और जातियों की किलेबन्दी के चलते 2009 तक इन ताकतों की हार हो चुकी थी और हिंदुत्व का विषाक्त फन देश को डँसने के लिये तैयार खड़ा था। आज सभी मण्डल की ताकतें अलग-थलग और छितराई खड़ी हैं और किसी से भी समझौता करने को तैयार बैठी हैं। दलितों का इन शक्तियों पर ज्यादा भरोसा नहीं है क्योंकि किसानों के नाम पर जो लठैती दलितों के हितों पर हुयी है वोह भी सर्वव्याप्त है। लेकिन यह भी हकीकत है कि गाँव में भूमि सुधार और उसके पुनर्वितरण के बगैर सामाजिक परिवर्तन संभव नहीं है और इसके लिये हमारे मण्डलीय नेता तैयार नहीं हैं क़्योंकि उनकी गाँव की राजनीति जाति के झूठे अहंकारो पर खड़ी है जिसका मुख्य ध्येय दलित विरोध है क्योंकि जातियों के बड़प्पन का सिद्धांत दलितों को बराबर बैठने का हक़ नहीं देता और इसीलिये गाँव में हिंदुत्व की राजनीति की धुरी में पिछड़े नेता हैं।
मंदिर की पिछड़ी राजनीति ने कल्याण सिंह को उत्तर प्रदेश का मुख्य मंत्री बनाया और उनके हौसले इतने बुलंद हो गये कि उन्होंने अपनी संवैधानिक निष्ठा को भुलाकर बाबरी मस्जिद को गिरने दिया। हालाँकि उत्तर प्रदेश में उसके बाद भाजपा का सफाया हो गया लेकिन लम्बी दूरी चलने वाले संघ का पूरा पत्ता नहीं कटा था और पिक्चर अभी बाकी है। अयोध्या में बाबरी मस्जिद के ध्वँस और उसके बाद मुसलमानों पर हुयी हिंसा का परिणाम महाराष्ट्र में हुआ जहाँ शिव सेना को चुनाव में सरकार बनाने का मौका मिला। राजीव के पद्चिन्हों पर चलकर ही मोदी भी मुसलमानों को मरवाकर गुजरात में एकछत्र राज करते रहे। यानी अल्पसंख्यकों के खिलाफ आग उगल कर और उनकी देशभक्ति को हमेशा संदेह के घेरे में रखकर हम देश में शासन कर सकते हैं। कांग्रेस ने तो सिख विरोधी दंगों के लिये माफ़ी भी माँगी लेकिन मोदी तो हर चुनाव में एक मियाँ मुशर्रफ ढूँढते रहे ताकि मुसलमान पूर्णतया अलग-थलग रहे और गुजरात उसका उदहारण है जहाँ उन्होंने मुसलमानों को साफ तौर पर इतना अलग कर दिया है कि वे खुल के कुछ कह सकने की स्थिथि में नहीं हैं।
देश के सबसे बड़ी पार्टी का हिन्दुत्वीकरण इंदिरा गांधी के समय से शुरू हुआ। नेहरू की कांग्रेस ने तो सांप्रदायिक ताकतों से और पुरोहितवाद से दूरी रखी लेकिन इंदिरा गाँधी ने समय-समय पर बाबाओं और धर्मगुरूओं का कांग्रेसीकरण कर उनको मजबूती प्रदान की और हिन्दू साम्प्रदायिकता को हवा देने के लिये ऑपरेशन ब्लू स्टार किया गया क्योंकि जब कांग्रेस पर यह आरोप लगे कि वो सिख साम्प्रदायिकता को बढ़ावा दे रही है तो हिन्दुओ की 'भावनाओं' का आदर करने के लिये लिये स्वर्ण मंदिर में सेना भेजनी पड़ी।
सोनिया की कांग्रेस कई मामलो में भिन्न है। यह साझा सरकारों का समय है और भारत अब बदल भी चुका है इसलिये पहले की तरह हाथ हिलाकर यहाँ वोट भी नहीं मिलते। फिर भी सोनिया गाँधी को बहुत सी बातो के लिये श्रेय देना जरुरी है। कांग्रेस में लोकतान्त्रिक प्रक्रिया बढ़ी है, मुख्यमंत्री दिल्ली से आसानी से नहीं बदले जाते और पार्टी ने कुछ बेहतरीन कानून भी पारित करवाटे हैं, चाहे मनरेगा हो खाद्य सुरक्षा कानून, भूमि कानून हो या सूचना का अधिकार यह सभी ऐतिहासिक हैं, हालाँकि इनमें कमियाँ अपनी जगह व्याप्त हैं।
सोनिया की कांग्रेस असल में सरकार के आगे असहाय हो गयी और राज्य सभा के जरिये जुगाड़बाजी का शिकार हो गयी। पार्टी के ऊपर सरकार के हावी होने से जिस बेतरबी से सरकार ने सेज और अन्य कार्यो के लिये भूमि अधिग्रहण किया वो देश में भारी असंतोष का कारण बना। सरकार की आर्थिक नीतियाँ वो लोग बना रहे थे जो पूर्णतया पूंजीवादी व्यवस्था में यकीन करते थे और उनका हिंदुत्व से कोई बहुत बड़ा वैचारिक भेद नहीं था। इसीलिये प्लानिंग कमीशन ने बार-बार नरेन्द्र मोदी के गुजरात को अच्छा राज्य बताया और राजीव गाँधी फाउंडेशन के कई लोग आज मोदी की 'फाउंडेशन' बनाने में लगे हैं।
कांग्रेस आज की जरूरत है क्योंकि देश में दलित आदिवासियों मजदूरों की अभी कोई एक जुट आवाज नहीं दिखती जो हिंदुत्व को हरा सके। देश का यह कर्तव्य है कि हिंदुत्व की इन जातिवादी ताकतों को नेस्तनाबूद करें लेकिन उसके लिये कांग्रेस के सेक्यूलर होनी की गारंटी चाहिए और उसमे सभी वर्गों, दलितों, पिछड़ों, मुस्लिम और अन्य तबकों की भागीदारी देनी होगी। कांग्रेस को सॉफ्ट हिंदुत्व से साफ़ अपनी दूरी बनानी होगी और चिदंबरम, मोंटेक, मनमोहन की आर्थिक सोच को पूर्णतया तिलांजलि देनी होगी।
इसलिये राहुल जो बात कहे हैं वो महत्वपूर्ण है। जब न्याय नहीं मिलता तो व्यक्ति कुछ भी कर सकता है। साम्प्रदायिकता का सबसे बड़ा पहलू यह है कि वो लोगों में जहर घोलता है और जब इस देश के अन्दर मुसलमानों को न्याय नहीं मिलेगा तो कई लोग हिंसा का सहारा ले सकते हैं। आज देश की अधिकाँश जेलो में मुस्लिम युवा बन्द हैं। आतंकवाद के नाम पर उनको घसीटा जा रहा है। परिवार बर्बाद हो चुके हैं और हम हिंदुस्तान- पाकिस्तान की बात करते हैं। कांग्रेस के नेता यह समझ लें कि इंडिया केवल भारत है न कि हिंदुस्तान। भारत को गोलवलकर और सावरकर के हिंदुस्तान की तरफ न धकेले कांग्रेस। और उसके लिये जरुरी है कि सरकार अपना राजधर्म निभाए और पार्टी पूर्णतया संवैधानिक तंत्रों को मज़बूत करे। हिन्दू साम्प्रदायिकता के आगे घुटने टेक कर कांग्रेस ने पहले ही देश के धर्मनिरपेक्ष समाज को निराश किया है। आज भारत को बचाने की लड़ाई है। राहुल की बात के चाहें जो मतलब निकलें लेकिन एक बात की पुष्टि इतिहास ने की कि भारत की राजनीति इस वक़्त पूर्णतया हिंदूवादी है और सभी पार्टियाँ उसमे ही अपने उत्तर ढूँढ रही हैं और यही कारण है कि मुंबई के दंगो से पीड़ित मुसलमानों को न्याय तो नहीं मिलता लेकिन शिव सेना सत्ता में आती है, दाऊद और उसके साथी तो भाग गये और इसलिये पुलिस हजारो निर्दोष मुस्लिम युवाओं को जेल में ठूँसती है लेकिन हिंदुत्व के दंगाई कभी नहीं पकड़े जाते, जब निर्दोष मुसलमान जेल में जाते हैं तो समाज पर उसका असर होता है और असहायता की स्थिति होती है यह बहुत गंभीर है। चुनाव व्यवस्था ये कि हज़ारों मुसलमानों या सिखों, दलितों का कत्लेआम से आप देश के शासक बन जाते हैं या लाइन पर लगे हैं लेकिन उन लोगों को कभी न्याय नहीं मिलता जो हिन्दू साम्प्रदायिकता के शिकार रहे हैं। क्या कांग्रेस पार्टी एक साफ़ लाइन लेने को तैयार है ? क्या हरयाणा के दलितों को न्याय मिलेगा ? क्या महाराष्ट्र के 1993 के दंगा पीड़ितों को इन्साफ मिलेगा। दाऊद या आई एस आई को खत्म करने के लिये मुसलमानों को न्याय और सत्ता समाज में भागीदारी और इज्जत चाहिए न कि जुमलेबाजी और लफ्फाजी। राहुल ने स्वीकार किया कि न्याय नहीं मिलेगा तो मुस्लिम युवा भटक सकते हैं लेकिन प्रश्न यह है कि क्या केंद्र की उनकी पार्टी की सरकार और विभिन्न राज्यों में उनके मुख्यमंत्री ऐसा करेंगे कि मुसलमानों का उन पर भरोसा आये ? हिंदुत्व की चुनौती बड़ी है लेकिन केवल भय से काम नहीं चलेगा अब अपनी मानसिकता को भी साफ़ करना पड़ेगा।