संघम् शरणम् गच्छामि! जब तक आरक्षण है, तब तक हिंदुत्व का तिलिस्म अटूट है
संघम् शरणम् गच्छामि! जब तक आरक्षण है, तब तक हिंदुत्व का तिलिस्म अटूट है
संघम् शरणम् गच्छामि! जब तक आरक्षण है, तब तक हिंदुत्व का तिलिस्म अटूट है 💡
पलाश विश्वास
बोधगया धम्म संदेश के तहत हिंदुत्व में निष्णात धम्म और पंचशील और बुद्धमय भारत को नवजागरण आंदोलन में बदलना भारत में सक्रिय तमाम अंबेडकरी आंदोलनकारियों, बहुजन संगठनों और बौद्ध संगठनों का साझा कार्यक्रम बने, तो शायद हम फासिज्म के मुकाबले, अधर्म और नरसंहार के मुकाबले राष्ट्र और समाज को ब्राह्मणवादी निरंकुश रंगभेदी नस्ली सत्ता के शिकंजे से रिहा कर सकते हैं।
अधर्म के फासिस्ट राजकाज, राजकरण, राजनय और नरमेधी राजधर्म के मुकाबले के लिए धम्म ही एकमात्र रास्ता आम जनता और बहुजनों के लिए बचा है, इस पर हम सिलसिलेवार चर्चा जो कर रहे हैं, वह हवा हवाई वैचारिक कवायद नहीं है, बल्कि उसे जमीनी हकीकत में बदलकर विध्वंस और विनाश के मुकाबले खड़ा होने की जरुरत है।
हम इतिहास से सबक लें तो भारत की आजादी के बाद भारत के ब्राह्मणवादी सत्ता वर्चस्व के विपरीत तमाम एशियाई देशों में व्यापक जन आंदोलनों ने विभिन्न देशों के विश्वभर में सक्रिय बुद्ध धम्म संघों और संप्रदायों के समन्वय की प्रक्रिया निरंतर तेज की है और 1950 में ही श्रीलंका के कोलंबो में हुए विश्व बौद्ध सम्मेलन में विश्व बौद्ध संघ की स्थापना हो गयी।
भारत में धम्म और पंचशील को बहुजनों ने त्यागकर ब्राह्मणवादी वर्चस्व की व्यवस्था में खुद को हिंदू दर्ज करा लिया है और इसीलिए अब उनका कोई वजूद रहा नहीं है और वे वास्तव में जी जीकर या मर मरकर नर्क जी रहे हैं।
भारत में अब तक बौद्ध संगठन अलग-अलग सक्रिय रहे हैं लेकिन बाकी देशों के मुकाबले बौद्ध संगठनों का आपसी समन्वय कम रहा है। मिथ्या अहंकार, निजी स्वार्थ, मिथ्या विपश्यना में बौद्ध संघों, विहारों, मठों, संस्थानों और बहुजन अंबेडकरी संगठनों की सामाजिक निष्क्रियता और सम्यक दृष्टि के वैज्ञानिक इतिहासबोध का अभाव इसके बड़े कारण हो सकते हैं, लेकिन सबसे बड़ा कारण है ब्राह्मणधर्म के हिंदुत्व के सनातन छलावे के तहत ब्राह्मणवाद के पुनरुत्थान में बहुजनों के वानरसेना में तब्दील हो जाना। जो इस रंगभेदी नरसंहारी संस्कृति की असल ताकत भी है।
यह सबसे बड़ी समस्या है तो ब्राह्मणवादी पुनरूत्थान के मुकाबले फिर धम्मचक्र प्रवर्तन ही प्रतिरोध और समाधान दोनों हैं।
आम जनता के जिंदा बचने का एक ही रास्ता है ढाई हजार साल पहले हुई सामाजिक क्रांति का वह धम्मचक्र प्रवर्तन। ➡
इसी प्रसंग और संदर्भ में बौद्ध संगठनों की समन्वय समिति का गठन और बोधगया में धम्म संसद का आयोजन भविष्य की कार्य योजना के तहत संवैधानिक लड़ाई के एजंडा के साथ बौद्ध संगठनों का राष्ट्रीय संगठन और समन्वय बहुत खास इसीलिए है।
तथागत गौतम बुद्ध ने जिस ब्राह्मण धर्म और ब्राह्मणवाद के खिलाफ समाज और राष्ट्र के चरित्र में बुनियादी परिवर्तन के लिए धम्म और पंचशील की सम्यक दृष्टि से बौद्ध संघों की संस्थागत संरचना के तहत ज्ञान विज्ञान सम्मत सामाजिक क्रांति को अंजाम दिया, आज का समाजिक यथार्थ फिर वही ब्राह्मणवादी अधर्म और नरमेधी फासिस्ट राजकाज है।
साफ जाहिर है कि जनांदोलनों के लिए इस निरंकुश ब्राह्मणवादी नस्ली सत्ता के खिलाफ प्रतिरोध का एकमात्र विकल्प फिर वही तथागत गौतम बुद्ध का धम्म है और धम्म चक्र के प्रवर्तन के तहत बौद्ध विहारों, मठों और संघों को फिर ज्ञान विज्ञान के केंद्रों, विश्वविद्यालयों में तब्दील करके ही हिंदुत्व की निरंकुश संस्थागत सत्ता और एकाधिकार नस्ली वर्चस्व को खत्म करके समता और न्याय संभव है। वरना नहीं।
गौरतलब है कि बोधगया धम्म संदेश में सबसे ज्यादा जोर बुद्धिस्ट पर्सनल ला और बुद्धिस्ट मैरेज एक्ट पर है क्योंकि बौद्धों के लिए हिंदू पर्सनल ला और हिंदू मैरेज एक्ट लागू होने से संवैधानिक और कानूनी तौर पर तमाम बौद्ध हिंदू ही माने जायेंगे और धर्म दीक्षा का कोई मतलब नहीं रह जाता क्योंकि जनसंख्या में धर्मांतरित बौद्ध भी विष्णु के अवतार तथागत गौतम बुद्ध की तरह हिंदू ही बने रहेंगे।
वैसे ही वे हिंदू बने हुए हैं और हिंदुओं की तरह ही जात पांत की नर्क जी रहे हैं। 🙄
धर्मदीक्षा बेमतलब हो गयी अंदर बाहर इसी हिंदुत्व अस्मिता की निरंतरता के लिए। पहले इसे समझ लें। फिर धर्म दीक्षा।
बौद्ध संगठनों की समन्वय समिति सुप्रीम कोर्ट में यह कानूनी लड़ाई लड़ रही है। भारतीय बौद्ध संगठनों की राष्ट्रीय समन्वय समिति की भविष्य की कार्य योजना के तहत भारतीय संविधान की धारा -25 उपखंड बी के भाग दो के तहत बौद्धों की स्वतंत्र पहचान और संवैधानिक मान्यता दिलाना समिति का मुख्य एजंडा है।
पुरातत्व विभाग को सौंपे गये तमाम बुद्ध धम्म के धर्म स्थलों को बुद्ध धर्म के अनुयायियों को सौंपने के लिए आंदोलन राष्ट्रीय बौद्ध धम्म संसद के एजंडा में खास तौर पर शामिल है। इसके तहत बौद्ध स्मारकों को पुरातत्व विभाग से भिक्षु संघ को हस्तांतरित करने के लिए समिति संवैधानिक लड़ाई कर रही है। इसके लिए धम्म संसद ने बुद्ध विहार (Buddhist Monastery Bill) विधेयक लाकर कानूनी हक की मांग की है।
विडंबना है कि संघम् शरणम् गच्छामि का मतलब अब ब्राहमणधर्म के हिंदुत्व के संस्थागत संघ यानी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शरण में जाना हो गया है।
जाहिर है कि जब तक आरक्षण है, तब तक हिंदुत्व का यह तिलिस्म अटूट है क्योंकि आरक्षण की वजह से गैर हिंदू तमाम समुदाय अनुसूचित होने का लाभ उठाने से चूकते नहीं हैं और लगातार हिंदुत्व को मजबूत करते हुए ब्राहमणवादी सत्ता और राष्ट्र को निरंकुश बना रहे हैं।
विडंबना है कि अल्पसंख्यकों के धर्म के बजाय बहुसंख्यकों के धर्म हिंदुत्व से जुड़कार लाभ का इकलौता सौदा अनुसूचित तमगा है, जिसे छोड़कर कोई बौद्ध हो नहीं सकता।
तथागत गौतम बुद्ध की सामाजिक क्रांति कोई आध्यात्मिक उपलब्धि नहीं है।
तथागत गौतम बुद्ध का धम्म दुःखों से भागने के लिए दिव्य ईश्वर के अनुसंधान में समाधि नहीं है, बल्कि दुःखों के निराकरण का विज्ञान है।
तथागत गौतम बुद्ध का धम्म मानव कल्याण, बहुजन हिताय समर्पित सामाजिक सक्रियता की निरंतरता का यथार्थ है और समानता और न्याय की परिकल्पना है, जिसे संघों की शरण में जाकर ज्ञान विज्ञान की सम्यक दृष्टि, सही गलत को समझकर पंचशील अनुशीलन की प्रज्ञा के तहत अंजाम देना है।
भारत से बाहर सर्वत्र बुद्ध धम्म का विकास की निरंतरता जारी है
जैसा कि बहुप्रचारित है, उसके विपरीत सच यह है कि बुद्ध के धम्म का अवसान नहीं हुआ है बल्कि बुद्ध धम्म का विश्वभर में विस्तार हुआ है और भारत से बाहर सर्वत्र बुद्ध धम्म का विकास की निरंतरता जारी है क्योंकि बाकी दुनिया में ब्राह्मणवाद की अटूट संघीय जाति व्यवस्था की संस्थागत संरचना ने संघों और भिक्षुओं का विनाश नहीं किया है।
बुद्ध धम्म विश्वभर में मनुष्य और प्रकृति, समस्त जीवों और जीवन चक्र के हित में सत्य, शांति, अहिंसा, प्रेम, करुणा, बंधुता, भ्रातृत्व, मैत्री का पर्यावरण आंदोलन है।
बुद्धमय भारत के अवसान को ब्राह्मणवादी इतिहासकार अपनी जीत का परचम लहराते हुए बुद्ध के धम्म का अवसान बता रहे हैं।
बुद्धमय भारत के अवसान की नींव पर तामीर हुआ है ब्राह्मण धर्म का नस्ली हिंदुत्व का पुनरुत्थान, मुक्तबाजारी नरसंहारी सैन्य राष्ट्र और असमानता, अन्याय, असहिष्णुता, घृणा, हिंसा, नरसंहार, मिथ्य़ा, शत्रुता, विवाद, आतंक, युद्ध और गृहयुद्ध का राजकाज, राजधर्म, राजकरण और राजनय।
इतिहास और विचारधारा, माध्यमों और विधाओं की मृत्युघोषणा जैसे वर्चस्वी साम्राज्यवादी रंगभेद का शंखनिनाद है, वैसे ही भारत में धम्म के अवसान का ऐलान ब्राह्मण धर्म के हिंदुत्व के तिलिस्म में बदलने का सच है। जो किसी वसंत के वज्रनिनाद से भी बदला नहीं है। जो धम्म क्रांति के बिना बदलेगा भी नहीं।
ब्राह्मणधर्म के हिंदुत्व ने संघ का हिंदुत्वकरण कर दिया
विडंबना है कि बुद्धधम्म की सामाजिक क्रांति की नींव जो संघ है, ब्राह्मणधर्म के हिंदुत्व के संस्थागत संघ ने धम्म को पंथ में बदलकर, उपासना और आस्था और निष्क्रिय विपश्यना में बदलकर उसी संघ का हिंदुत्वकरण कर दिया है।
संघ का मतलब अब ब्राह्मणवाद का संस्थागत संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ है तो धम्म और पंचशील का न कोई संघ बचा है और न कोई संस्था है।
बुद्धमय भारत का हश्र यह बुद्धमय भारत का अवसान है जो हिंदू राष्ट्र में तब्दील है।
लेकिन यह बुद्धधम्म का अवसान नहीं है और संस्थागत संघों के पुनर्निर्माण के तहत हम बुद्धमय भारत फिर बना सकते हैं।
इसलिए बौद्ध अनुयायी ही नहीं, भारत के समस्त उत्पीड़ित वंचित बहुजनों को तथागत गौतम बुद्ध की तरह संगठित करना होगा और वह संगठन भी संस्थागत संघ संरचना बनाना होगा।
कोई और विकल्प है नहीं।
इस कर्मकांडी तंत्र मंत्र यंत्र पंथ और निष्क्रिय विपश्यना में भारत में बुद्ध धर्म के ज्ञान विज्ञान के केंद्र बने बिहार, मठ और संघों की विश्वविद्यालयी संरचना का ढहता जाना ही बुद्धमय भारत का अवसान है।
बुद्धधम्म का अवसान यह कतई नहीं, नहीं है।
बुद्ध का धम्म ही उत्पीड़ितों, वंचितों, शरणार्थियों, बहुजनों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों, गैरहिंदुओं, दलितों, पिछड़ों.पीड़ितों निरंकुश सत्ताऔर सैन्यराष्ट्र के अधर्म का प्रतिरोध विकल्प है। जिसे तथागत बुद्ध के धम्म प्रवर्तन के मार्ग पर संस्थागत बौद्धसंघों, विहारों, मठों, विश्वविद्यालयों को पुनर्जीवित करके ही तैयार किया जा सकता है। मुक्ति मार्ग है यह एकमात्र।
भारत में बौद्ध संगठनों के लिए और उनके समन्वय समिति के लिए संघ संरचना बनाने की यह सबसे बड़ी चुनौती है तो सच यही है कि बुद्ध का धम्म ही उत्पीड़ितों, वंचितों, शरणार्थियों, बहुजनों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों, गैरहिंदुओं, दलितों, पिछड़ों.पीड़ितों निरंकुश सत्ताऔर सैन्यराष्ट्र के अधर्म का प्रतिरोध विकल्प है।
मुक्ति मार्ग है यह एकमात्र। संगठन और व्यक्ति के स्तर पर पंचशील की यह अग्निपरीक्षा है।
समझ लें कि भारतीय इतिहास में बहुजनों और प्रजाजनों के हकहकूक की लड़ाई और उनके वर्गीय ध्रुवीकरण के आंदोलन को तथागत बुद्ध ने जिसतरह ज्ञान विज्ञान और समाजिक यथार्थ की सम्यक दृष्टि के तहत सत्य और अहिंसा के मार्ग पर सामाजिक क्रांति में तब्दील कर दिया, वह दरअसल समाज और राष्ट्र का पुनर्निर्माण है।
बुद्धमय भारत के अवसान की पृष्ठभूमि में मनुस्मृति अनुशासन की निरंतरता ब्राह्मण धर्म के हिंदुत्व अस्मिता के तहत समता और न्याय आधारित समाज और राष्ट्र के विखंडन का अटूट सिलसिला है और उसका नतीजा यह अभूतपूर्व हिंसा, आतंक, घृणा, युद्ध और गृहयुद्ध का घना अंधियारा है कटकटेला।
ब्राहमण धर्म का पालन करने वाले ब्राह्मणों का रंगभेदी नस्लवादी कर्मकांडी हिंदुत्व बाकी लोगों ने हिंदुत्व के नाम अंगीकार किया है जबकि इतिहास और यथार्थ में हिंदू धर्म दरअसल ब्राह्मणधर्म है और इसकी सबसे बड़ी संस्था जाति व्यवस्था है।
जातिव्यवस्था की वंशगत असमान लेकिन दूसरे किसी न किसी से ऊंची हैसियत के हिंदुत्व के तहत गैरब्राह्मणों ने ब्राह्मणवाद को जो हिंदुत्व मान लिया, वहीं समानता और न्याय का अंत है।
जिसके तहत सारे गैर ब्राह्मण, ब्राह्मणों के गुलाम हैं।
बोधगया में आदरणीय भिक्खु भंतों से हमारी यही चर्चा रही है कि बोधिसत्व बाबासाहेब डा.भीमराव अंबेडकर के लाखों अनुयायियों ने जो धर्म दीक्षा ली है, वे अबतक 22 प्रतिज्ञाओं के बावजूद ब्राह्मण धर्म का ही पालन कर रहे हैं जाति का परित्याग किये बिना जबकि बाबासाहेब ने इसी जाति व्यवस्था से मुक्ति पाने के लिए ही धर्म दीक्षा का विकल्प चुना है।
बोधगया में आदरणीय भिक्खु भंतों से हमारी यही चर्चा रही है कि जाति बनी हुई है तो धर्म दीक्षा का मतलब क्या है।
धर्म दीक्षा से पहले जाति उन्मूलन अनिवार्य है वरना धर्म दीक्षा भी वैदिकी कर्मकांड है।
दरअसल भारत में तथागत बुद्ध के धम्म का वास्तविक संकट जो मनुस्मृति अनुशासन की निरंतरता के साथ जारी है, वह यही है कि जाति के दायरे में कैद है धम्म और 22 प्रतिज्ञाओं के तहत धम्म और पंचशील से धर्मांतरित बौद्धों का कोई नाता नहीं है।
वे अनुसूचित बने रहकर हिंदुत्व के संघीय संस्थागत ढांचे की शरण में बने रहकर हिंदुत्व का लाभ उठाने के चक्कर में खुद को बौद्ध भी नहीं दर्ज कराते और भारत में जनगणना में बौद्धों की संख्या जो दर्ज हुई है, वह धर्मदीक्षा के तहत नवबौद्धों की संख्या से काफी कम है।
जाहिर है कि भारत में बौद्ध संगठनों के लिए और उनके समन्वय समिति के लिए संघ संरचना बनाने की यह सबसे बड़ी चुनौती है तो सच यही है कि बुद्ध का धम्म ही उत्पीड़ितों, वंचितों, शरणार्थियों, बहुजनों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों, गैरहिंदुओं, दलितों, पिछड़ों.पीड़ितों निरंकुश सत्ताऔर सैन्यराष्ट्र के अधर्म का प्रतिरोध विकल्प है।
मुक्ति मार्ग है यह एकमात्र।
संगठन और व्यक्ति के स्तर पर पंचशील की यह अग्निपरीक्षा है।


