संविधान के मार्गदर्शक सिद्धांतों का त्याग ही कर दिया शासन ने
संविधान के मार्गदर्शक सिद्धांतों का त्याग ही कर दिया शासन ने
घेराव में गणतंत्र
अब जबकि भारतीय गणतंत्र की 66वीं सालगिरह के समारोह संपन्न हो चुके हैं, देश के हालात पर जरा निर्ममता से नजर डाल लेना जरूरी है। 26 जनवरी 1950 को एक गणतांत्रिक संविधान का स्वीकार किया जाना, स्वतंत्र भारत की एक बड़ी उपलब्धि थी। इस गणतांत्रिक संविधान के तहत ही हमारे देश में एक संसदीय जनतांत्रिक व्यवस्था स्थापित की गयी थी।
यह जनतांत्रिक व्यवस्था, अगर भारतीय राज्य के पंजीवादी-भूस्वामी चरित्र के चलते पैदा होने वाली सीमाओं के बावजूद कायम रही है, तो ऐसा भारतीय जनता की जनतांत्रिक प्रतिबद्घता के चलते और जनसंघर्षों तथा जनतांत्रिक संघर्षों के चलते ही हुआ है।
भारतीय संविधान में प्रतिष्ठापित मार्गदर्शक सिद्धांत शासन को यह निर्देश देते हैं कि, ‘‘एक ऐसी समाज व्यवस्था, जिसमें राष्ट्रीय जीवन की सभी संस्थाओं में सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक न्याय समाया हो’’ सुनिश्चित कर, जनता के कल्याण को आगे बढ़ाएं। वह शासन पर यह सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी भी सौंपता है कि, ‘‘समुदाय के भौतिक संसाधनों पर नियंत्रण ऐसे तरीके से वितरित हो, जो सार्वजनिक हित पूरे करने के लिए बेहतरीन हो’’ और यह सुनिश्चित करे कि, ‘‘आर्थिक व्यवस्था इस तरह काम न करती हो कि इसके नतीजे में संपदा तथा उत्पादन के साधनों का केंद्रीयकरण हो, जो साझा हितों को हानि पहुंचाए।’’ इसमें, शासन से इसका तकाजा भी किया गया है कि इसका प्रयत्न करे कि, ‘‘आय की असमानताओं को कम से कम किया जाए...।’’
संविधान के मार्गदर्शक सिद्धांतों का त्याग ही कर दिया शासन ने
इसी में अंतर्विरोध निहित है। इस संविधान के अपनाए जाने के बाद गुजरे साढ़े छ: दशकों में, शासन ने इन मार्गदर्शक सिद्धांतों का त्याग ही कर दिया है। शासन तथा नीति निर्धारण की दिशा, हमारे संविधान में सूत्रबद्घ इन लक्ष्यों से एकदम उल्टी है। हमारी व्यवस्था के टकरावों तथा संकटों का मुख्य कारण इस अंतर्विरोध में ही निहित है कि राजनीतिक जनतंत्र के साथ-साथ, संपदा का केंद्रीयकरण तथा आर्थिक असमानताएं भी चल रहे हैं।
2015 में देश भर में किसानों की आत्महत्याओं में चौंकाने वाली तेजी आयी
नवउदारवादी पूंजीवाद के अंतर्गत असमानताओं को कम से कम किए जाने के बजाए, पोसा जा रहा है और बढ़ाया जा रहा है। सबसे धनी एक फीसद भारतीयों के हाथों में इस समय देश की संपदा के 53 फीसद का स्वामित्व है। दूसरी ओर, दुनिया के तमाम गरीबों का पांचवां हिस्सा, भारत में ही रहता है। 2015 में देश भर में किसानों की आत्महत्याओं में चौंकाने वाली तेजी आयी है। कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, ओडिशा तथा अन्य राज्यों में हजारों किसानों ने आत्महत्या की है। अकेले महाराष्टï्र मेें ही 3,228 किसानों की आत्महत्याएं दर्ज हुई हैं, जो वास्तविकता को कम कर के दिखाने वाला आंकड़ा है। कृषि संकट के चलते ग्रामीण गरीबों की तादाद बढ़ती ही जा रही है।
भारतीय गणतंत्र जनतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, सामाजिक न्याय तथा संघीय व्यवस्था के हमारे मूलाधारीय सिद्घांतों पर खड़ा है, हालांकि इनकी अपनी अंतर्निहित सीमाएं भी हैं। उदारीकरण तथा निजीकरण के बाद गुजरी चौथाई सदी में इन चारों का ही अवमूल्यन हुआ है और उनकी हालत खस्ता नजर आ रही है। आज सत्तातंत्र पर जिन ताकतों का कब्जा है, भारतीय राज्य की जितनी भी धर्मनिरपेक्ष अंतर्वस्तु थी, उसे कमजोर करने की कोशिशें में लगे हुए हैं। भाजपा-आरएसएस के राज में, राज्य व समाज के गैर-धर्मनिरपेक्षीकरण की परियोजना चल रही है। जनतंत्र का मूलाधार है, धर्म, लिंग या जाति के विभाजनों से ऊपर उठकर, सभी नागरिकों के अधिकारों की समानता। इसे सिर्फ धर्मनिरपेक्ष राज्य ही सुनिश्चित कर सकता है। आज सत्ता में बैठे लोग ऐसी विचारधारा में विश्वास करते हैं, जो हिंदू पहचान को राष्ट्रवाद का और अंतत: नागरिकता का ही पर्याय बनाना चाहती है। ‘हिंदू राष्ट्र’ की अवधारणा, अन्य धर्मों को मानने वाले लोगों को दूसरे दर्जे के नागरिक बना देना चाहती है। आरएसएस के प्रवक्ता खुल्लमखुल्ला, भारतीय संविधान में धर्मनिरपेक्षता के प्रावधान पर सवाल उठाते आए हैं।
दक्षिणपंथी हिंदू कट्टरपंथियों के सत्ता तक पहुंचने के साथ, दलितों का उत्पीडऩ और बढ़ गया है
हमारे संविधान की एक खासियत यह है कि इसमें सामाजिक भेदभाव को और छुआछूत जैसी निर्योग्यताओं को दूर करने के लिए, सकारात्मक कदमों का प्रावधान किया गया है। यह सामाजिक न्याय की ऐसी परिकल्पना है, जो असमानतापूर्ण जाति व्यवस्था को, सुधारवादी तरीके से मिटाना चाहती है। हमारे संविधान के स्वीकार किए जाने के 65 साल बाद भी हमारे समाज में जातिवादी उत्पीड़ऩ के विभिन्न रूपों का बोलबाला है और इनमें छुआछूत की बुराई भी शामिल है। हिंदुत्व के पैरोकार इस सिलसिले में हिंदू शास्त्रों की दुहाई देते हैं। भारतीय शासन की सबसे बड़ी विफलता, समाज के सबसे उत्पीड़ित तबके, दलितों को न्याय दिलाने में उसकी विफलता है। दक्षिणपंथी हिंदू कट्टरपंथियों के सत्ता तक पहुंचने के साथ, उनका उत्पीडऩ और बढ़ गया है। फरीदाबाद में दो दलित बच्चों का जिंदा जलाया जाना और रोहित वेमुला का दु:खद अंत, जिसे हैदराबाद विश्वविद्यालय में आत्महत्या करने पर मजबूर कर दिया गया, इस जातिवादी कट्टïरता के ही दो उदाहरण हैं।
गणतंत्र दिवस से चंद रोज पहले ही उडुपी के पेजावर मठ में एक बहुत बड़े धार्मिक समारोह का आयोजन किया गया। यहीं पर कृष्ण मंदिर में आज भी पंक्ति भेद (ब्राह्मणों को तथा अन्य जातियों को भोजन के लिए अलग-अलग पंक्तियों में बैठाने) और मडे स्नानम (ब्राह्मणों के आशीर्वाद की आशा से लेागों के उनकी झूठी पत्तलों पर लोटने) जैसे रिवाज चल रहे हैं, जो दलितों तथा निचली जातियों के साथ खुल्लमखुल्ला भेदभाव करते हैं। इस आयोजन में भाजपा के केंद्रीय मंत्रियों ने, आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री ने और कर्नाटक के पूर्व-मुख्यमंत्रियों तथा पूर्व-मंत्रियों ने भी हिस्सा लिया था। लेकिन, उनमें से किसी ने भी उक्त खुल्लमखुल्ला जातिवादी भेदभाव करने वाले आचारों के बारे में एक शब्द तक नहीं कहा।
वास्तव में अब तो बढ़ते पैमाने पर शासन सार्वजनिक जगत में धार्मिकता को संरक्षण तथा बढ़ावा देने में ही लगा नजर आता है जबकि देश का संविधान नागरिकों को यह जिम्मेदारी सौंपता है कि, ‘‘वैज्ञानिक मानस, मानवतावाद और प्रश्नाकुलता तथा सुधार की भावना विकसित करें।’’ लेकिन, वैज्ञानिक मानस को बढ़ावा देना तो दूर रहा, खुद देश का प्रधानमंत्री प्राचीन विज्ञान की उपलब्धियों की सराहना करने के नाम पर यह दावा करता है कि उसी जमाने में हमारे देश में प्लास्टिक सर्जरी का इतना विकास हो चुका था कि गणेश के मनुष्य के धड़ पर, हाथी का सिर लगा दिया गया!
चाहे सीमित ही सही, हमारे संघीय संविधान में जो भी संघात्मक सिद्धांत मौजूद हैं, उन्हें भी लगातार कमजोर किया गया और नवउदारवादी निजाम में यह गिरावट और बढ़ गयी है। राज्यों को, संसाधनों तथा पूँजी के लिए बाजार में आपस में होड़ कर रही सत्ताओं में बदल कर रखा दिया गया है। शक्तियों से वंचित तथा साधनों की कमी के मारे राज्यों को ऐसी स्थिति में पहुंचा दिया गया है जहां वे या तो विशेष दर्जा दिए जाने के लिए केंद्र के आगे याचक बने रहते हैं या फिर एक एआइआइएमएस या एक आइआइटी के रूप में केंद्र की कृपा हासिल करने के लिए हाथ फैलाते रहते हैं। योजना आयोग के खात्मे और राष्ट्रीय विकास परिषद के अंत ने राज्यों को और भी ज्यादा केंद्र के रहमो-करम पर निर्भर बनाकर छोड़ दिया है।
नवउदारवादी राजनीति संसदीय जनतांत्रिक व्यवस्था को भीतर से खोखला कर रही है।
पूंजीवादी पार्टियों में धनबल का और पूंजीपति-राजनीतिज्ञ गठजोड़ का बोलबाला है। यह इसकी गारंटी करता है कि चाहे कोई भी सत्ता में आए और चाहे सरकार बदल जाए, नीतियां ज्यों की त्यों बनी रहेंगी। इस तरह, विकल्पों का चुनाव करने में पहलू से जनता को शक्तिहीन बनाया जा रहा है। डा0 आंबेडकर ने राजनीतिक समता और सामाजिक व आर्थिक बराबरी का नाता टूट जाने की जो चेतावनी दी थी, वह सच हो रही है।
जनतंत्र का कमजोर किया जाना विभिन्न रूपों में अभिव्यक्त हो रहा है। यूनियनें तथा संगठन बनाने के अधिकार को, जोकि संविधान के अंतर्गत एक मौलिक अधिकार है, कतरा जा रहा है और उसके व्यवहार के मुश्किल बनाया जा रहा है। शासन की मिलीभगत से मजदूरों को यूनियन बनाने के अधिकार से वंचित किया जा रहा है और विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) आदि के नाम पर इसे वैधता प्रदान की जा रही है। संविधान में निवारक नजरबंदी के प्रावधान का जो छिद्र है, उसका अंधाधुंध इस्तेमाल कर के ऐसे दमनकारी कानून बनाए जा रहे हैं जो निजी स्वतंत्रताओं को सीमित करते हैं। मौजूदा निजाम असहमति की आवाजों को और अल्पसंख्यकों द्वारा विरोध को ही, राष्टï्रविरोधी करार दे देता है और बेरोक-टोक राजद्रोह के कानून का सहारा लिया जा रहा है। नवउदारवाद और राज्य-प्रायोजित हिंदुत्ववादी सांप्रदायिकता का योग, तानाशाही का रास्ता तैयार कर रहा है। गणतंत्र के ही संवैधानिक तानाशाही बनाकर रख दिए जाने का खतरा है।
नवउदारवाद तथा सांप्रदायिकता के खिलाफ एक साथ संघर्ष वक्त का तकाजा
जनतंत्र तथा धर्मनिरपेक्षता की हिफाजत करने की लड़ाई का तकाजा है कि नवउदारवाद तथा सांप्रदायिकता के खिलाफ एकसाथ तथा परस्पर जोड़क़र संघर्ष किया जाए। सामाजिक न्याय तथा जनतांत्रिक अधिकारों के लिए संघर्ष, हिंदुत्ववादी तानाशाही की ताकतों के खिलाफ संघर्ष की एक केंद्रीय कड़ी है। हमारे गणतंत्र के जनतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष आधार पर होने वाले हरेक हमले को विफल करना होगा। इस गणतंत्र दिवस पर भारत के नागरिकों का यही संकल्प होना चाहिए। 0


