सांसत में मोदी सरकार
सांसत में मोदी सरकार
सलीम अख्तर सिद्दीकी
केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ऐसे झंझावतों में फंस गई है, जिसकी कल्पना उसने नहीं की होगी। जैसे ही मोदी सरकार अस्तित्व में आई थी, वैसे ही आरएसएस और उससे जुड़े संगठनों ने अपना एजेंडा कुछ इस तरह चलाया कि देश में अफरा-तफरी का माहौल बन गया है। इसमें कोई शक नहीं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बिल्कुल भी नहीं चाहते होंगे कि जिस विकास के एजेंडे को लेकर वह चल रहे हैं और जिसका वादा उन्होंने देश से किया है, वह पीछे चला जाए और बीफ जैसा मुद्दा राष्ट्रीय फलक से आगे निकलकर पूरी दुनिया में छा जाए। बात हद से बढ़ने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के हाथों उन बयानवीरों के पेंच कसे जरूर जो भाजपा को असहज कर रहे थे, लेकिन लगता नहीं कि बयानवीर कोई सबक लेंगे।
दरअसल, दादरी कांड के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लंबी चुप्पी ने न सिर्फ भाजपा, बल्कि देश का भी बड़ा नुकसान किया है। मोदी की चुप्पी को अजब-गजब बयान देने वाले नेता अपने लिए ‘मौन समर्थन’ समझ बैठे थे या वास्तव में ही मोदी उन्हें मूक समर्थन दे रहे थे, इस सवाल का जवाब नहीं दिया जा सकता। लेकिन इतना तय है कि दोनों ही सूरतों में नुकसान भाजपा का ही हुआ है और दुनिया में देश की छवि पर धब्बा लगा है।
दरअसल, जब नरेंद्र मोदी को भाजपा का प्रधानमंत्री का उम्मीदवार चुना गया था, तब भी और उनके भारी बहुमत से जीतकर आने के बाद भी देश के बुद्धिजीवियों ने शंका जाहिर की थी कि देश में अतिवादी हिंदू संगठन मुखर होकर सामने आ सकते हैं। दुर्भाग्य से उनकी शंका सही साबित हुई। कन्नड़ लेखक एमएम कुलबर्गी की हत्या के बाद यह साफ हो गया कि देश में तर्कवादियों और अंधविश्वास के खिलाफ लड़ने वालों के लिए बुरा समय शुरू हो गया है। इसी बीच दादरी कांड हुआ और देश एक तरह से सकते में आ गया। सबसे बुरी बात यह हुई कि भाजपा के कुछ नेताओं ने दादरी कांड को सही ठहराने की कोशिश की, जिसका खंडन भाजपा के शीर्ष नेतृत्व की तरफ से इस तरह नहीं आया, जैसा आना चाहिए था। हर छोटी-बड़ी और अच्छी-बुरी घटना पर ट्वीट करने वाले प्रधानमंत्री दादरी कांड पर चुप्पी लगा गए।
दस दिन बाद जब प्रधानमंत्री की चुप्पी टूटी तो वह बेमायने थी। नतीजा यह हुआ हरियाणा के मुख्यमंत्री खट्टर ने मुसलिमों और बीफ के बारे में ऐसा बयान दिया कि भाजपा का शीर्ष नेतृत्व भी उसे पचा नहीं सका और उसने बिना वक्त गंवाए उससे अपने को अलग कर लिया।
इसी समय आरएसएस के मुखपत्र कहे जाने वाले साप्ताहिक समाचार पत्र ‘पांचजन्य’ की उस कवर स्टोरी ने भाजपा नेतृत्व को बैकफुट पर आने को मजबूर कर दिया, जिसमें दादरी कांड को सही ठहराया गया था और बाकायदा वेदों का हवाला देकर अखलाक की हत्या को सही ठहराया गया था। ‘पांचजन्य’ की उस कवर स्टोरी से तो भाजपा इतनी असहज हुई कि उसने ‘पांचजन्य’ और ‘आर्गेनाइजर’ को अपना मुखपत्र मानने से ही इंकार कर दिया और कवर स्टोरी को भी गलत और बेकार बता दिया। यही वह वक्त था, जब भाजपा आलाकमान को हालात की गंभीरता का एहसास हुआ और उसने भाजपा सांसद साक्षी महाराज, केंद्रीय संस्कृति मंत्री महेश शर्मा और भाजपा विधायक संगीत सोम को दिल्ली तलब करके उन्हें बीफ मुद्दे पर उल्टे-सीधे बयान न देने की सख्त ताकीद की।
इससे कोई भी इंकार नहीं कर सकता कि यदि दादरी कांड के फौरन बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उसकी निंदा कर देते और भाजपा के सांसद और मंत्री बीफ मुद्दे को इतना हाइप नहीं करते तो हालात इतने गंभीर नहीं होते। लेकिन ऐसा लगता है कि भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने यह सब जानबूझ कर होने दिया। संभवत: वह समझ रहा था कि बीफ मुद्दे का बिहार चुनाव में फायदा मिल सकता है। लेकिन बिहार में इसके नकारात्मक प्रभाव सामने आने के बाद भाजपा आलाकमान को होश आया।
बहरहाल, कन्नड लेखक एमएम कुलबर्गी और दादरी कांड पर प्रधानमंत्री की चुप्पी ने देश के साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों को इतना असहज कर दिया कि उन्होंने विरोधस्वरूप अपने साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने शुरू किए तो उनका सिलसिला रुकने का नाम नहीं ले रहा है। आजाद भारत के इतिहास में यह पहला मौका है, जब किसी घटना के विरोध में इतनी बड़ी तादाद में साहित्यकारों ने अपने पुरस्कार लौटाए हैं। पुरस्कार लौटाने वाले साहित्यकारों को भी भाजपा नेताओं और संघ परिवार ने निशाने पर लिया और उनका तिरस्कार किया। सोशल मीडिया में तो उन पर भद्दे कमेंट तक किए गए।
साहित्यकारों के विरोध हवा में उड़ा देने वाली भाजपा को शायद अभी एहसास नहीं है कि इसका दुनिया के देशों में क्या प्रभाव पड़ रहा है। अगले महीने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ब्रिटेन समेत चार देशों की यात्रा पर जाना है। वहां उन्हें असहज सवालों का सामना कर पड़ सकता है।
एक अमेरिकी संस्था ने अपनी रिपोर्ट में हाल में ही कहा है कि मोदी सरकार के आने के बाद भारत में धार्मिक असहिष्णुता बढ़ी है, जिससे वहां के अल्पसंख्यक असुरक्षित महसूस कर रहे हैं। देश के मौजूदा हालात से प्रधानमंत्री के ‘मेक इन इंडिया’ जैसे महत्वाकांक्षी कार्यक्रमों पर भी ग्रहण लग सकता है। विदेशी निवेश उसी देश में आ सकता है, जब वहां के हालात सही हों।
मोदी सरकार सिर्फ बढ़ती धार्मिक असहिष्णुता को लेकर ही कठघरे में नहीं है। महंगाई भी उसके लिए सिरदर्द है। अरहर की दाल जहां 200 रुपये को पार कर गई है, वहीं अन्य सभी दालें सौ रुपये से ऊपर पहुंच गई हैं। खाद्य तेलों में 40 फीसदी तक की बढ़ोतरी हुई है। अच्छे दिन लाने का वादा करने वाली मोदी सरकार में आम आदमी को एक तरह से बुरे दिन देखने पड़ रहे हैं। आम आदमी अर्थशास्त्र नहीं समझता। उसे शेयर बाजार के सेंसेक्स से भी कुछ लेना-देना नहीं होता। उसे इतना समझ में आता है कि पहले के मुकाबले उसका खाना महंगा होता जा रहा है और उसका जीवन स्तर नीचे जा रहा है।
अजब विडंबना है कि जो देश अमेरिका की तरह अति विकसति बनना चाहता है, संयुक्त राष्ट्र संघ में स्थाई सदस्यता के लिए दावेदारी पेश कर रहा है, वह उन मुद्दों पर उलझ गया है, जो देश को पीछे ही ले जाएंगे। लोगों के मुंह पर स्याही डाली जा रही है। गांधीवादी तरीके से किए गए विरोध का हिंसा से विरोध किया जा रहा है। देश के जो हालात हैं, उनसे प्रधानमंत्री की साख पर संकट है। क्या प्रधानमंत्री मोदी आगे बढ़कर हालात को काबू में करने की पहल करेंगे?


