हम आजादी का जश्न बहुत बेशर्मी से मना रहे हैं, हमारी त्रासदी ओलंपिक त्रासदी है
हम आजादी का जश्न बहुत बेशर्मी से मना रहे हैं, हमारी त्रासदी ओलंपिक त्रासदी है
पलाश विश्वास
सिर्फ ऐलान कर देने से आजादी मिलती नहीं है। कश्मीर के दोनों हिस्से में आजादी के नाम अभूतपूर्व हिंसा है तो इस आजाद देश में सन 1947 के बाद आजादी का नारा भी कोई नया नहीं है और नया नहीं है आजादी का आंदोलन।
मोहनजोदोड़ो और हड़प्पा में पराजित होने के बाद से लगातार हमारी हजारों पीढ़िया आजादी के ख्वाब जीते हुए हजारों साल से आजादी की जंग लड़ती रही हैं।
हजारों पीढ़ियों ने कुर्बानियां दी है और महात्मा गौतम बुद्ध की क्रांति से गुलामी की जो जंजीरें टूट गयी थीं, प्रतिक्रांति के जरिये तब से लेकर आज तक गुलामी का अनंत सिलसिला है और जंग आजादी की हमेशा आधी अधूरी रही है।
हमें न आर्थिक आजादी मिली है और न सामाजिक और न सांस्कृतिक आजादी।
पिछले सात दशक से हम राजनीतिक आजादी का जश्न मना रहे हैं। राजनीति जो मुकम्मल नरसंहारी अश्वमेधी रंगभेदी अलगाववादी और राष्ट्रविरोधी, समाज विरोधी, मनुष्यविरोधी और प्रकृति विरोधी भी है, उस राजनीतिक आजादी का जश्न हम मना रहे हैं और आजादी के ख्वाब जमींदोज हैं।
आजादी कोई रोटी नहीं है। जो आटा गूंथ लिया फिर उसे आग पर सेंककर पृथ्वी की शक्ल दे दी। उस पृथ्वी से भी हम अब बेदखल हैं।
हम रोजी रोटी से भी बेदखल है। रोटी के लिए अनिवार्य आग के भी हम मोहताज हैं। अनाज अब भी उग रहे हैं।
कायनात की रहमतें, बरकतें और नियामतें भी वहीं हैं लेकिन इतनी आजादी भी नहीं है कि सबको रोटी नसीब हो जाये। इतनी आजादी भी नहीं है कि हर शख्स के हिस्से में उसकी अपनी कोई दुनिया हो। हम सिर्फ झंडे फहराकर आजादी का जश्न मनाने वाले लोग हैं।
आदिवासी भूगोल के विध्वंस के खिलाफ आवाज तक दर्ज नहीं कर सके हैं हम।
कश्मीर में रोज-रोज हो रहे मानवाधिकार हनन के खिलाफ हम गूंगे बहरे हैं।
ये हालात हैं।
फिरभी हम महज झंडा फहराकर आजादी का ऐलान कर रहे हैं और आजादी की जंग में हम कहीं हैं ही नहीं।
आज फिर वहीं झंडा हमने गुजरात के ऊना में धूम धड़ाके के साथ फहरा दिया।
संस्थागत हत्या के शिकार रोहित वेमुला की बमौत मौत ने बगावत पैदा कर दी है और हम कह सकते हैं कि एक जलजला आया है और थोड़ी हलचल मची है। इससे बड़ी लड़ाई तो हजारों साल के दरम्यान हजारों दफा लड़ी गयी है।
ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ दो सौ साल की हमारे पुरखों की कुर्बानियों से हमें हासिल एक खंडित भूगोल मिला है और हम उसे भी बेचने लगे हैं। हम उसकी भी हिफाजत कर नहीं पा रहे हैं।
पलासी की लड़ाई के बाद पूर्वी भारत और मद्यभारत के बड़े हिस्से में चुआड़ विद्रोह का सिलसिला बना। फिर संथाल, भील, मुंडा, गोंड और आदिवासी विद्रोह का सिलसिला।
कंपनी राज के खिलाफ संन्यासी विद्रोह के तहत इस देश के प्रजाजनों ने जाति धर्म नस्ल की दीवारें तोड़कर आजादी की लड़ाई शुरु की।
नील विद्रोह हुआ और उसके बाद 1857 की अधूरी क्रांति।
भक्ति आंदोलन के तहत साधुओं, संतों, पीर, फकीरों, गुरुओं और बाउलों ने सामंतवाद से आजादी की जमीन तैयार की और आज तक हम उसे पका नहीं सके हैं। उस विरासत से हम धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद के तिलिस्म में अंधियारे की गुलामी जीने लगे हैं।
ब्रह्मसमाज के जरिये हमने ज्यादातर कुप्रथाओं से कानूनी निजात पा ली है लेकिन हमारा समाज अभीतक उन्हीं कुप्रथाओं के शिकंजे में है।
एकजुट होकर भारत की स्वतंत्रता संग्राम के माऱ्फत हमने खंडित आजादी खंडित देश के लिए हासिल कर ली और संविधान की प्रस्तावना में समता और न्याय का लक्ष्य धम्म के आधार पर तय किया और कुछ चुनिंदा इलाकों को छोड़कर देश में कहीं संविधान लागू नहीं है।
हमने सत्ता और राजनीति रंगभेदी असंवैधानिक तत्वों को भेंट कर दिया और बाहुबलियों धनपशुओं को हम नेतृत्व देते रहे हैं और वे ही हमारे जनप्रतिनिधि हैं।
जीवन के हर क्षेत्र में रंगभेदी मनुस्मृति शासन का वर्चस्व तकनीक और विज्ञान के बावजूद अभूतपूर्व है।
.... और मौजूदा कयामत की फिजां वैदिकी हिंसा से ज्यादा खतरनाक है क्योंकि यह पूरा स्थाई बंदोबस्त अब ग्लोबल है और किसी स्थानीय विरोध से कयामत का यह मंजर बदलेगा नहीं।
हम उत्त्तर भारत की गायपट्टी में सामाजिक न्याय के दावे के साथ सत्ता में भागेदारी का सिलसिला और उसका हश्र देख चुके हैं।
हम संपूर्ण क्रांति से लेकर आम आदमी की क्राति का जलवा देख चुके हैं और जन आंदोलन के साथी क्रांति का एकतम ताजा ब्रांड स्वराज लेकर मुक्तबाजार में बदलाव के ख्वाब बेच रहे हैं।
कोई शक नहीं कि छात्रों और युवाओं की पहल से मनुस्मृति दहन का देशव्यापी अभूतपूर्व माहौल है लेकिन यह कुल मिलाकर छात्रों और युवाओं के आंदोलन में सीमाबद्ध है।
विश्वविद्यालयों और उच्चतर वातानुकूलित संस्थानों में सीमाबद्ध है।
जो न बिरसा मुंडा, न सिधु कान्हों का आंदोलन है और न बशेश्वर या मतुआ या चंडाल आंदोलन है, जिसका आधार जनसमाज हो।
यह दक्षिण भारत का आत्मसम्मान का द्रविड़आंदोलन भी नहीं है और न यह मणिपुर में सैन्यशासन के खिलाफ व्यापक जनविद्रोह का आकार ले पाया है।
जनता जाग रही होती तो बाबा साहेब की विचारधारा और उनके आंदोलन का बंटाधार न हुआ होता।
जनता जाग रही होती तो बाबासाहेब वोटबैंक एटीएम में बदल नहीं दिये गये होते।
जनता जाग रही होती तो बाबासाहेब का अंबेडकर भवन जमींदोज होने के बावजूद उत्तर प्रदेश तक में भी कुछ हलचल रही होती जहां इसकी आम जनता को कोई खबर नहीं है तो महाराष्ट्र में बहुजन आपस में मारामारी कर नहीं रहे होते।
जेएनयू के लगातार आंदोलन का दिल्ली और उत्तरप्रदेश में क्याअसर हुआ हमें मालूम नहीं है। हैदराबाद विश्वविद्यालय से उठे तूफान से आंध्र या तेलंगाना में जनता कितनी लामबंद हुई हमें मालूम नहीं है।
कोलकाता के विश्वविद्यालयों में सुनामी का माहौल है और बंगाल की जनता सीधे मनुस्मृति राजकाज के के यंत्रणा शिविर में अपनी अपनी हत्या की बारी के इंतजार में है।
देवभूमि के जयघोष से अघा नहीं रही हिमालयी जनता को खबर ही नहीं है कि हिमालय मर रहा है।
कुडनकुलम और नर्मदा घाटी से लेकर टिहरी घाटी और नैनीझील का भी काम तमाम है और समुद्रतट वासी भारतीयजनता को परमामु भट्टियों में झुलसने के लिए छोड़ दिया गया है लेकिन इस रेडियोएक्टिव तबाही की खबर किसी को नहीं है।
आपदाओं का सृजन रोज रोज हो रहा है और हम मुकाबले के हालात में नहीं है।
जल जंगल जमीन रोजी रोटी श्रम आजीविका नागरिकता खाद्य सुरक्षा शिक्षा चिकित्सा लोकतंत्र की बहाली नागरिक और मानवाधिकार अमन चैन विविधता बहुलता की कोई लड़ाई हम कायदे से शुरु भी नहीं कर सकें।
देशभर में बेहद जरूरी मानवबंधन की कोई पहल भी नहीं कर सके हैं हम।
आदिवासी भूगोल के विध्वंस के खिलाफ आवाज तक दर्ज नहीं कर सके हैं हम।
ये हालात हैं।
मन बेहद भारी है। कल देर रात तक हम दीपा कर्मकार की कामयाबी का इंतजार कर रहे थे। लेकिन सीमोन बाइ्ल्स की तैयारी के मुकाबले दीपा सर्वोत्तम प्रयास करके भी पिछड़ गयी, चूंकि सीमोन को तैयारी और कामयाबी का जो मौका मिला वह दीपा को नहीं मिला और ओलंपिक क्वालीफाई करने से पहले हम दीपा को जानते भी नहीं थे और अगले चार साल और न जाने कितने साल उषा और मिल्खा सिंह के साथ उसे याद करके हम अपनी देशभक्ति दर्ज कराते रहेंगे और कभी नहीं सोचेंगे कि मंजिल के इतने करीब होकर भी वे आखिर जीत क्यों न सके।
हमारी हाकी टीमें बहुत अच्छा खेलकर भी एकदम आखिरी मौके पर विपक्षी टीम को जीत का तोहफा देकर घर वापसी कर चुकी है। तीरंदाजी, शूटिंग, टेनिस बैडमिंटन, मुक्केबाजी वगैरह वगैरह में हमारे बच्चे मुंह की खाकर घर वापस हैं।
जबकि ओलंपिक मैदान पर अश्वेतों का वर्चस्व है और हम भी वहीं अश्वेत है।
इसकी खास वजह हममें आजादी और कामयाबी का, लड़ाई का और जीतने का जज्बा है ही नहीं और न कामयाबी की कोई तैयारी है हमारी। वेस्ट इंडीज, अफ्रीका और एशिया के दूसरे देशों के मुकाबले हम खेल में भी रंगभेद, जाति वर्चस्व, पितृसत्ता और सत्ता के खुल्ला खेसल फर्रूखाबादी के शिकार हैं और सात दशक बाद हाकी में अपनी जमीन बेदखल होने के बाद केल की दुनिया में हमारी कोई हैसियत है नहीं।
फिर भी हम आजादी का जश्न बहुत बेशर्मी से मना रहे हैं और आजादी का मतलब समझने से साफ इंकार कर रहे हैं। हमारी त्रासदी ओलंपिक त्रासदी है।
आम जनता की भागेदारी, आम जनता की एकता और आम जनता की कुर्बानियों के बगैर आजादी कोई मसीहा किसी से छानकर हमें तोहफे में दे देंगे और हम आजादी का ज्शन मनाते हुए जंडे फहराकर लड्डू बांटेंगे, सबसे पहले इस कैद से निकलने की जरुरत है।
कोई मसीहा हमें आजादी दे नहीं सकता और न मोक्ष का रास्ता दिखा सकता है कोई अवतार।
मनुष्यता के भूगोल और मनुष्यता के इतिहास की जड़ों से जुड़े बगैर बदलाव का यह दिवास्वप्न बेमानी है।
हम शुरू से दुर्मुख हैं और जश्न में मजा किरकिरा करने के लिए माफी चाहते हैं वरना आप आजाद हैं हमें गरियाने को। आपकी गालियां हमारे सर माथे। यही हमारी विरासत है।


