इक शाम थी

उनके नाम की,

मगर वो चुप थे

गिरती दीवारों से

लगा के कान

सुना जा रहा था

वो कह रही थी

धड़कनों पर

धरे कान

कि वो ऐसे दिखते थे

कि वो वैसे दिखते थे,

मगर वो चुप थे

ख़ामोशी से तस्वीर में

तस्वीर बने

देख रहे थे तमाशा

भीड़ थी

शोर था

जश्न तो बेजोड़ था,

मगर

उनसे ख़ुद को जोड़ने की

क़वायदों में

उलझे थे लोग ..

सबको लगा था

इक सामूहिक रोग

कि वो किसके

कितने क़रीब थे,

कितने क़दम ..

कब, कहाँ,

किनके साथ चले,

कौन दिन भर के

थे साथी

कौन थे शाम ढले

वो कब हँसे

कब मुस्काये

अजब से झूठे सच्चे

क़िस्से थे

ग़ज़ब ढहाय

फूल मालाओं के

दौर चल रहे थे

जो मंच पर नहीं थे वो

जल रहे थे,

मगर तस्वीर में

फूलों की माला के पीछे

वो चुप थे

बेतुकी समीक्षाएँ जारी थीं

उन पर बोलने वालों की

भीड़ भारी थी,

आत्ममुग्धता का प्रदर्शन

वक्ताओं का गर्व

वो जन्मशती का

सामूहिक पर्व

थी शाम

उनके नाम की

मगर ख़ुद को

साबित करते-करते

कोई भी

उन तक नहीं पहुँचा ..

वो देखते रहे

कोई तो देखे उन्हें

इक बार तो झाँके

तस्वीर में बोलती रही

दो लाचार सी आँखें ...

डॉ. कविता अरोरा