सांप्रदायिक हिंसा के पीछे अलगाववादी राजनीति नहीं बल्कि वोट बैंक की राजनीति
सांप्रदायिक हिंसा के पीछे अलगाववादी राजनीति नहीं बल्कि वोट बैंक की राजनीति
सांप्रदायिक हिंसा 2013
(भाग-2)
इरफान इंजीनियर
किश्तवार, जम्मू एवं कश्मीर
9 अगस्त को ईद-उल-फितर की नमाज के बाद अचानक पत्थरबाजी शुरू हो गयी। नमाज के बाद बाहर निकल रहे लोगों का सामना अफजल गुरू और मकबूल भट्ट को फाँसी दिये जाने से सम्बंधित भड़काऊ पोस्टरों से हुआ। कुछ अन्य लोगों का कहना है कि मस्जिद से निकल रहे लोग, भारत-विरोधी नारे लगा रहे थे जिसके कारण पत्थरबाजी हुयी। यह बात अधिक विश्वसनीय नहीं लगती क्योंकि जम्मू में रहने वाले मुसलमानों का कश्मीरी राष्ट्रवादियों की स्व-निर्णय की माँग से बहुत लेना देना नहीं है। बाद में भड़के दंगों में हिदयाल गाँव में तीन व्यक्ति मारे गये और 80 घायल हुये। मृतकों में 23 साल का अरविंद कुमार भगत शामिल था, जो गोली लगने से मारा गया। हिन्दुओं का कहना है कि उसे किसी व्यक्ति ने गोली मारी जबकि मुसलमान कहते हैं कि वह पुलिस की गोली से मारा गया। बशर अहमद मोची पर भीड़ ने हमला किया और बाद में उसे जिंदा जला दिया। जम्मू क्षेत्र के आठ जिलों में कर्फ्यू लगाया गया। किश्तवार में मुसलमानों और हिन्दुओं की आबादी का नाजुक संतुलन है। हिन्दू, आबादी का 45 प्रतिशत हैं और मुसलमान 55। गृह राज्य मन्त्री सज्जाद किचलू, जो किश्तवार के रहने वाले हैं, का दावा है कि दंगों की तैयारी पिछले कम से कम एक महीने से जारी थी और हथियारबन्द समूह अल्पसंख्यकों पर हमला करने की योजना बना रहे थे। केन्द्रीय गृहमन्त्री पी. चिंदबरम ने संसद में दिये गये अपने एक वक्तव्य में सांप्रदायिकता की आग भड़काने के लिये बजरंग दल को दोषी ठहराया।
किश्तवार में हुयी सांप्रदायिक हिंसा के पीछे अलगाववादी राजनीति नहीं बल्कि वोट बैंक की राजनीति थी। यही कारण है कि एक छोटा सा झगड़ा बहुत जल्दी दंगे में बदल गया। भाजपा ने इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना का राजनीतिकरण करने के लिये अरूण जेटली को किश्तवार भेजा। जम्मू कश्मीर में ऐसी सैंकड़ों घटनाएं हुयीं हैं जिनमें लोग मारे गये और संपत्ति को नुकसान पहुँचाया गया परन्तु कोई भाजपा नेता वहां नहीं गया। भाजपा ने किश्तवार के दंगा पीड़ितों के लिये मुआवजे की राशि बढ़ाने की माँग भी की। ऐसी माँग उसने पहले कभी नहीं की थी। किश्तवार दोनों समुदायों के बीच सौहार्दपूर्ण रिश्तों के लिये जाना जाता था।
उत्तर प्रदेश
रमजान के महीने में मेरठ में सड़कों पर नमाज पढ़े जाने पर भगवा ब्रिगेड ने आपत्ति उठाई। इससे दोनों समुदायों में तनाव बढ़ा परन्तु पुलिस की तैनाती कर इस तनाव को हिंसा में नहीं बदलने दिया गया।
मेरठ जिले के नंगलामल गाँव में एक मस्जिद के नजदीक स्थित मन्दिर के बाहर लाउडस्पीकर के उपयोग को लेकर भड़की हिंसा में 26 जुलाई को एक व्यक्ति मारा गया और एक दर्जन घायल हो गये। दोनों समुदायों के बुजुर्गों ने हस्तक्षेप किया और मामले को शांतिपूर्ण ढंग से निपटा दिया। इसके बाद, एक इफ्तार पार्टी के दौरान शराब के नशे में चूर कुछ लोगों द्वारा बदतमीजी किये जाने पर हिंसा भड़क उठी। हिंसा के दौरान गोलियाँ चलाई गयीं और पुलिस को लाठी चार्ज करना पड़ा। सुनील नामक एक युवक गोली से मारा गया और शाहिद को अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। गाँव के मुस्लिम रहवासियों का आरोप है कि पुलिस ने उनके घरों में घुसकर फर्नीचर और अन्य घरेलू सामान को नुकसान पहुँचाया और लोगों को पीटा (संडे एक्सप्रेस 28.07.2013)।
उत्तरप्रदेश में सांप्रदायिक हिंसा की अधिकांश घटनाएं सितंबर 7 और 8 को हुयीं। अगस्त की 27 तारीख से लेकर 16 सितंबर के बीच सांप्रदायिक हिंसा की 128 घटनाएं हुयीं। लगभग 50,000 लोग घर से बेघर हो गये और मुजफ्फरनगर में अमानवीय परिस्थितियों में राहत शिविरों में रह रहे हैं। सरकार ने उनके प्रति जुबानी सहानुभूति तो दिखलाई परन्तु राहत शिविरों के हालात बेहतर करने के लिये कोई कदम नहीं उठाए। कड़ाके की सर्दी और कंबलों की कमी के कारण राहत शिविरों में 40 बच्चे मौत के शिकार हो गये (इंडियन एक्सप्रेस दिनांक 3.12.2013)। मुजफ्फरनगर दंगों में 6 अक्टूबर तक 46 मुसलमान और 16 हिन्दू मारे जा चुके थे जबकि 57 मुसलमान और 11 हिन्दू घायल हुये थे। ये आधिकारिक आंकड़े हैं। अक्टूबर की 13 तारीख तक 352 एफ.आई.आर. दर्ज की गयीं थीं जिनमें 5 जिलों- मुजफ्फरनगर, शामली, मेरठ, बागपत व सहारानपुर- में हुयी साम्प्रदायिक हिंसा की घटनाओं के सिलसिले में 1068 व्यक्तियों के खिलाफ मामले दर्ज किये गये थे। कुल मिलाकर 243 लोगों को गिरफ्तार किया गया जिनमें से अधिकांश हिन्दू थे। अब भी करीब 17 हजार लोग राहत शिविरों में रह रहे हैं। मेरठ जिले के भाजपा विधायक संगीत सोम को राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम के तहत गिरफ्तार किया गया परन्तु उन्हें सलाहकार परिषद के आदेश पर जल्दी ही रिहा कर दिया गया। इसका कारण यह था कि उनके खिलाफ मामला मजबूत नहीं था। ऐसा मिलीभगत के चलते हुआ या लापरवाही से, यह कहना मुश्किल है। भाजपा ने अपने विधायकों और अन्य आरोपियों के जमानत पर रिहा होने के बाद उनका सार्वजनिक सम्मान किया।
मुजफ्फरनगर दंगों में पुलिस की भूमिका घोर लापरवाही की रही। पुलिस ने अपने कर्तव्यों का पालन नहीं किया। राजनैतिक हस्तक्षेप के कारण हालात और बिगड़े। पुलिस महानिदेशक ने यह स्वीकार किया कि पुलिस ने अपेक्षित भूमिका नहीं निभाई (टाईम्स ऑफ इंडिया दिनांक 25/09/2013)। पुलिस उस समय हस्तक्षेप कर सकती थी जब ‘लव जेहाद‘ के नाम पर मुस्लिम समुदाय को बदनाम किया जा रहा था परन्तु पुलिस ने कुछ नहीं किया। सचिन और गौरव की हत्या के मामले में पुलिस ने कई मुसलमानों को गिरफ्तार किया परन्तु स्टिंग आपरेशनों से यह पता चला है कि आजम खान के दबाव में उन्हें छोड़ दिया गया। इसके बाद, निषेधाज्ञा लागू होने के बावजूद मुसलमानों की एक सभा आयोजित की गयी जिसमें बसपा व सपा के सांसद मौजूद थे। जिले के एसपी ने स्वयं इस गैरकानूनी सभा के नुमांइदों से ज्ञापन स्वीकार किया। तत्पश्चात् भाजपा ने जाटों की महापंचायत आयोजित करने का फैसला किया। इसमें भाग लेने के लिये हजारों हथियारबन्द जाट पहुँचे और उन्होंने रास्ते में कई मुसलमानों का अपहरण कर लिया। हथियारों से लैस ये लोग कई पुलिस चौकियों व नाकों से गुजरे परन्तु उन्हें किसी ने नहीं रोका। सभा के आयोजन पर लगे प्रतिबन्ध का पालन करवाने की कोई कोशिश नहीं की गयी जबकि यह स्पष्ट था कि सभा में भाग लेने जा रहे हथियारबन्द लोग गुस्से से भरे हुये थे। महापंचायत में भड़काऊ भाषण दिये गये और इसके बाद दंगे शुरू हो गये। सभा से लौट रहे लोगों ने मुस्लिम गाँवों पर हमला किया। कुछ अपवादों को छोड़कर, पुलिस उन स्थानों पर नहीं पहुँची जहाँ से हिंसा की खबरें आ रही थीं।
मुसलमानों ने ट्रेक्टर से अपने गाँव लौट रहे जाटों को रोका और उन्हें गन्ने के एक खेत में ले जाकर मौत के घाट उतार दिया। जिन गाँवों में मुसलमान बहुसंख्या में थे वहाँ हिन्दुओं पर हमले हुये। खराद गाँव के सरपंच ने 150 मुसलमानों को अपने घर में शरण देकर उनकी जान बचाई।
कुछ दंगा पीड़ितों के समक्ष यह प्रस्ताव रखा गया कि अगर वे यह शपथपत्र दे दें कि वे अपने गाँव नहीं लौटेंगे तो उन्हें 5 लाख रूपये का मुआवजा दिया जायेगा। सरकार ने इस आशय की अधिसूचना भी जारी की। यह एक अभूतपूर्व कदम था। भारत के संविधान का अनुच्छेद 19 नागरिकों को देश में कहीं भी बसने का अधिकार देता है और कार्यपालिका को कतई यह हक नहीं है कि वह नागरिकों से उनके गाँव में रहने का हक ‘खरीद‘ ले। सरकार ने दंगाईयों के अधूरे काम को पूरा करते हुये पीड़ितों को उनके गाँवों से बाहर कर दिया। उनसे इस आशय के शपथपत्र हासिल कर लिये गये कि वे अपने गाँव वापिस लौटना नहीं चाहते। अगर किसी को भाजपा और समाजवादी पार्टी के बीच मिलीभगत का प्रमाण चाहिए तो वह यह है।
समाजवादी पार्टी और भाजपा, दोनों को इन दंगों में अपना फायदा नजर आ रहा था। परन्तु हिंसा इतना बड़ा स्वरूप ग्रहण कर लेगी, इसका समाजवादी पार्टी को अंदाजा नहीं था और अब इस पार्टी को इन दंगों से नुकसान ही होगा। मुसलमान अब समाजवादी पार्टी से दूर हो रहे हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश और विशेषकर दंगा प्रभावित जिले, अजीत सिंह की अध्यक्षता वाले राष्ट्रीय लोकदल के गढ़ हैं। चरण सिंह ने इस इलाके के मुसलमानों और जाटों में अपनी गहरी पैठ बना ली थी। साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण से अजीत सिंह की पार्टी को नुकसान होगा क्योंकि जाट मत भाजपा की ओर चले जायेंगे। समाजवादी पार्टी को यह उम्मीद थी कि मुसलमानों को कुछ मुआवजा देकर वह उनके बीच अपनी पकड़ मजबूत कर लेगी। इस तरह इन दंगों से भाजपा और सपा दोनों को यह आशा थी कि वे अजीत सिंह की पार्टी की कीमत पर अपना आधार बढ़ा लेंगी। लाशों पर इस तरह के राजनैतिक खेल खेले जाना दुर्भाग्यपूर्ण किन्तु कटु सत्य है। जब समाजवादी पार्टी की सरकार 84 कोसी परिक्रमा को रोक सकती थी तब वह जाट महापंचायत को भी रोक सकती थी। ऐसा न करके उसने आपराधिक लापरवाही की है। मुजफ्फरनगर दंगों के लिये भाजपा के साथ-साथ सपा भी जिम्मेदार है।
मध्य प्रदेश
इंदौर के चंदननगर थाना क्षेत्र में 20 अगस्त को भड़की साम्प्रदायिक हिंसा के दौरान हुयी पत्थरबाजी में 30 पुलिसकर्मियों सहित 45 लोग घायल हो गये। झगड़े की शुरूआत एक क्रिकेट मैच के नतीजे और एक मन्दिर के पास किसी जानवर का शव पाये जाने के साथ हुयी। संघ परिवार से जुड़े लोगों ने भड़काऊ नारेबाजी की। दुकानों को नुकसान पहुँचाया गया और करीब 100 वाहनों को आग के हवाले कर दिया गया। दो पुलिसकर्मी गम्भीर रूप से घायल हुये।
हरदा जिल के छीपाबड़ में 19 सितंबर को हुयी साम्प्रदायिक हिंसा में कई घरों को भारी नुकसान पहुँचाया गया और 22 लोग घायल हुये। हिंसा का सबसे दुर्भाग्यपूर्ण पक्ष यह था कि इससे पीडि़तों, विशेषकर महिलाओं और बच्चों को गहरा सदमा लगा और वे अब तक उससे उबर नहीं सके हैं। बजरंग दल के गुंडों ने मुसलमानों के घरों को आग के हवाले कर दिया और यहां तक कि घरों में अनाज का एक दाना भी नहीं बचा। घरों में आग लगाने के लिये नजदीक के एक पेट्रोल पंप से पेट्रोल लाया गया। लगभग 60-70 बच्चों ने स्कूल जाना बन्द कर दिया। हिंसक भीड़ एक स्कूल में पहुँची और यह माँग की कि मुसलमान बच्चों को उसके हवाले कर दिया जाये। परन्तु स्कूल के शिक्षकों ने मुस्लिम बच्चों को पहले ही एक कमरे में बन्द कर दिया था और उन्होंने भीड़ से कहा कि बच्चे अपने घर चले गये हैं। एल. एस. हरदेनिया के नेतृत्व में दंगों की जाँच करने गये एक दल ने सुरेन्द्र राजपुरोहित उर्फ टाईगर की गिरफ्तारी की माँग की जिसकी कथित रूप से हिंसा भड़काने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। जाँचदल ने यह माँग भी की कि हिंसा में एक स्थानीय भाजपा विधायक एवं पूर्व मन्त्री के पुत्र की भूमिका की जाँच की जाये और सभी दोषियों के खिलाफ मुकदमे दर्ज किये जाये।
बिहार
राज्य के बेतिया में 9 अगस्त को नागपंचमी के जुलूस के दौरान हिंसा हुयी। पत्थर फेंके गये और जिला मजिस्ट्रेट और एसपी के वाहनों को जला दिया गया। जिले में कर्फ्यू लगाना पड़ा। नागपंचमी के धार्मिक जुलूस में शामिल लोग बिहार के मुख्यमन्त्री, प्रधानमन्त्री और सोनिया गांधी के खिलाफ नारे लगा रहे थे। यह जदयू के एनडीए से अलग हो जाने का नतीजा था। महावीर अखाड़े के लठैत जुलूस में आगे चल रहे थे और उनके हाथों में तख्तियाँ थीं जिनपर राजनैतिक नारे लिखे हुये थे।
नवादा में दो समुदायों की हिंसक भीड़ के बीच लगभग 48 घंटे तक खूनी संघर्ष चला, जिसमें 2 लोग मारे गये। हिंसा की शुरूआत 10 अगस्त को हुयी जब कुछ मुस्लिम युवकों ने नवादा शहर के बाहरी हिस्से में स्थित ‘बाबा का ढाबा‘ में बुर्का पहने हुये कुछ मुस्लिम लड़कियों की उपस्थिति पर आपत्ति की। इस ढाबे का मालिक एक हिन्दू था। युवकों ने ढाबे पर हमला किया और वहाँ तोड़फोड़ की। इसके बाद दोनों समुदायों के बीच जमकर पत्थरबाजी हुयी जिसमें कई लोग घायल हो गये। मुसलमानों की कई दुकानें जला दी गयीं। जब पुलिस स्थिति को नियन्त्रित करने का प्रयास कर रही थी तब बहुसंख्यक वर्ग के एक युवक ने एक पुलिसकर्मी की बंदूक छीनने की कोशिश की। इसके बाद पुलिस ने गोलीचालन किया जिसमें वह युवक मारा किया। जुलाई में बिहार के मुख्यमन्त्री नीतीश कुमार ने भाजपा से नाता तोड़ा था। तबसे लेकर 9 अगस्त तक बिहार में 6 दंगे हुये।
कर्नाटक
चिकमंगलूर में 28 दिसम्बर को भड़की साम्प्रदायिक हिंसा में 31 लोग घायल हुये जिनमें दो पुलिसकर्मी शामिल हैं। दिनाँक 1 जनवरी 2014 के ‘इंकलाब‘ अखबार के अनुसार, पुलिसकर्मियों ने अल्पसंख्यकों के साथ अत्यन्त क्रूरतापूर्ण व्यवहार किया। महात्मा गांधी रोड पर स्थित एक पूजास्थल के पास एक जानवर का कटा हुआ सिर पाया गया। इसका विरोध करने लोग सड़कों पर उतर आये। पुलिस ने उन पर लाठीचार्ज किया। टीपूनगर के 61 वर्षीय साहब जान को पुलिस ने सड़क पर घसीट-घसीटकर पीटा। यह तब हुआ जब साहब जान मृत जानवर के अवशेषों को हटाकर उस स्थान को पानी से धो रहा था।
असम
कछार जिले के रंगपुर में 25 अगस्त को तीन मंदिरों के पास मांस के टुकड़े पाये गये। इसके बाद हुयी हिंसा में सात पुलिसकर्मी घायल हो गये और शांति स्थापित करने के लिये सेना की तैनाती करनी पड़ी। मुख्यमन्त्री तरूण गोगोई ने दंगों के लिये विहिप और भाजपा को जिम्मेदार बताया। कई दुकानें और वाहन जला दिये गये।
(मूल अंग्रेजी से अमरीश हरदेनिया द्वारा अनुदित)
दंगों की भयावहता में वृद्धि, चुनाव नज़दीक हैं न!


