गत 25 फरवरी, 2014 को मुसलमानों की एक सभा को संबोधित करते हुए भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने मुसलमानों और उनकी पार्टी के बीच आपसी विश्वास की कमी को पाटने के प्रयास में कहा कि वे भाजपा द्वारा पूर्व में की गई गलतियों के लिये माफी माँगने को तैयार हैं और मुस्लिम समुदाय से यह अनुरोध किया कि वह भाजपा को कम से कम एक मौका दे।
बाद में, सिंह के राजनैतिक सचिव सुधांशु त्रिवेदी ने स्पष्टीकरण देते हुए कहा कि ‘‘भाजपा अध्यक्ष ने जो कहा उसका अर्थ यह है कि अगर मुसलमानों को लगता है कि जाने-अनजाने हमारी ओर से कोई भूल हुई है तो हम उसे सुधारने का उपक्रम करने को तैयार हैं।‘‘
दिल्ली, राजस्थान, मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ में पिछले साल नवंबर में हुए विधानसभा चुनावों के दौरान नरेन्द्र मोदी की रैलियों में बुर्के और गोल टोपियां बांटी गईं। इसका उद्देश्य यह बताना था कि रैली में मुस्लिम भी मौजूद हैं और वे भाजपा को वोट देंगे। क्या मुसलमान इस तरह की कपटपूर्ण चालों से प्रभावित होंगे?
यह स्पष्ट है कि भाजपा नेताओं को मुसलमानों की याद तभी आती है जब चुनाव नजदीक होते हैं। वे मुसलमानों की किसी जरूरत को पूरा करने की बात कभी नहीं करते। यहां तक कि वे मुसलमानों की जरूरतों को समझने का प्रयास भी नहीं करते। वे केवल भाजपा के असली इरादों के बारे में मुसलमानों को भ्रमित करना चाहते हैं। उनका उद्धेश्य यह रहता है कि संभव हो तो उन्हें मुसलमानों के कुछ वोट मिल जाएं या कम से कम इतना तो हो जाए कि मुसलमान एकजुट होकर भाजपा के खिलाफ मतदान न करें।
हिन्दुत्व की विचारधारा में मुसलमानों और ईसाईयों को हमेशा से विदेशी और बाहरी माना जाता रहा है
यह कहा जाता है कि मुसलमानों की एक से अधिक पत्नियां होती हैं और उनकी प्रजनन दर (यह शब्द सामान्यतः जानवरों के संदर्भ में प्रयोग किया जाता है) इतनी अधिक है कि उनकी आबादी जल्दी ही हिन्दुओं से ज्यादा हो जाएगी। मुसलमानों के विरूद्ध इस तरह के बेतुके व बेसिरपैर के आरोप लगाते जाने से देश में समय-समय पर मुसलमानों के विरूद्ध साम्प्रदायिक हिंसा भड़कती रही है और इससे वे अपने मोहल्लों में सिमट गये हैं।
स्वतंत्रता के बाद से लेकर आज तक, 40000 से ज्यादा निर्दोष लोग साम्प्रदायिक हिंसा का शिकार बन चुके हैं। मुसलमानों पर आतंकवादी होने का दोष मढ़ने के लिये गुजरात में सुरक्षा एजेन्सियों ने निर्दोष मुस्लिम युवकों को झूठी मुठभेड़ों में मारने और उसके बाद उन्हें आतंकवादी घोषित कर देने का तरीका निकाला। सोहराबुद्दीन और इशरत जहां इसके कुछ उदारहण हैं।
मुसलमानों के खिलाफ जो नारे गढ़े गये हैं उनकी भाषा इतनी अश्लील व अशालीन है कि उन्हें यहां दोहराया भी नहीं जा सकता। इसके बाद भी राजनाथ सिंह खुलकर यह स्वीकार करने को भी तैयार नहीं हैं कि भाजपा ने हिन्दुत्व की विचारधारा का वरण कर कोई ‘‘भूल‘‘ की है।
राजनैतिक स्तर पर भाजपा, सरकार के हर उस कदम का विरोध करती आ रही है जिसका उद्देश्य हाशिए पर पड़े समूहों, विशेषकर अल्पसंख्यकों, की भलाई हो और जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि उन्हें भी आगे बढ़ने के समान अवसर मिलें। मोदी का दावा है कि उनकी धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है ‘‘इंडिया फर्स्ट‘‘ (भारत पहले)। भारत में केवल समाज के कुछ वर्ग इस स्थिति में हैं कि वे अवसरों का दोहन कर सकें। इसलिये इंडिया फर्स्ट की नीति से केवल श्रेष्ठि वर्ग (अर्थात बहुसंख्यक समुदाय की उच्च जातियां और पुरूष) लाभान्वित होंगे।
भारत में सबसे ज्यादा विशेषाधिकार कारपोरेट सेक्टर को हासिल हैं जो देश के संसाधनों पर बेजा कब्जा कर रहा है। 2जी स्पेक्ट्रम, कोयला व खनन घोटालों से यह जाहिर है कि किस तरह बड़े उद्योगपति, गलत तरीकों से अरबपति बन रहे हैं जबकि दलित, आदिवासी, महिलाएं और अल्पसंख्यक जैसे हाशिये पर पड़े वर्गों को अवसरों में उनका न्यायोचित हिस्सा नहीं मिल रहा है और ना ही देश के संसाधनों में। संविधान के नीति निदेशक तत्वों का पालन हमारे देश में नहीं हो रहा है।
भाजपा नेता हमेशा से ऐसे उपायों का विरोध करते आ रहे हैं जिनसे अल्पसंख्यकों को उनकी सांस्कृतिक विरासत को अक्षुण्ण रखने का अधिकार और मौका मिले। उदाहरणार्थ, वे अलग पारिवारिक (या पर्सनल) कानूनों के खिलाफ हैं। उनका दावा है कि इससे अल्पसंख्यकों में अलगाव का भाव पैदा होता है। वे उर्दू भाषा को प्रोत्साहन दिए जाने के भी खिलाफ हैं।
भाजपा का राजनैतिक एजेन्डा है सांस्कृतिक विविधता को समाप्त करना और उच्च जातियों की संस्कृति को देश पर लादकर, राज्य को उसका संरक्षक नियुक्त करना। वे इसे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद कहते हैं। सरस्वती वंदना, भगवत गीता, योग आदि की शिक्षा को भाजपा-शासित राज्यों में स्कूली विद्यार्थियों के लिये अनिवार्य बनाना, इसी एजेन्डे को लागू करने का हिस्सा है। इसी के तहत, बहुत कड़े गौवध निषेध कानून बनाए गये हैं और अंतर्धार्मिक विवाहों के खिलाफ अभियान चलाया जा रहा है, विशेषकर हिन्दू महिलाओं द्वारा मुस्लिम पुरूषों के साथ विवाह के।
भाजपा सांस्कृतिक विविधता के विरूद्ध है और अल्पसंख्यकों को उनकी संस्कृति की रक्षा करने का अधिकार नहीं देना चाहती। उसे अल्पसंख्यकों की सुरक्षा की कोई फिक्र नहीं है। उसने कभी नौकरियों, शिक्षा, सरकारी ठेकों, बैंकों से मिलने वाले कर्जों इत्यादि में अल्पसंख्यकों के खिलाफ भेदभाव के विरूद्ध आवाज नहीं उठाई। यही भेदभाव मुसलमानों के पिछड़ेपन के लिये उत्तरदायी है। सच्चर कमेटी की रपट व अन्य अध्ययनों ने इस भेदभाव को रेखांकित किया है।
भाजपा कई बार यह माँग कर चुकी है कि चर्च और इस्लाम का ‘‘भारतीयकरण‘‘ होना चाहिए।
भारत के मुसलमानों में उतनी ही विविधता है जितनी किसी अन्य धर्म के अनुयायियों में। अन्य भारतीयों की तरह, मुसलमान भी तमिल, मलयालम, कन्नड़, मराठी, कोंकणी, गुजराती, हिन्दी की विभिन्न बोलियां, मारवाड़ी, कश्मीरी, उर्दू आदि बोलते हैं। जिस क्षेत्र में वे रहते हैं, उनका खानपान और पहनावा उस क्षेत्र में रहने वाले अन्य धर्मावंलबियों जैसा ही है। वे उन्हीं प्रथाओं व परंपराओं का पालन करते हैं और सभी धर्मों के त्यौहारों में हिस्सेदारी करते हैं। स्थान की कमी के कारण हम यहां इसका विस्तृत विवरण नहीं दे रहे हैं। भारत की साझा संस्कृति, प्रथाओं और परंपराओं पर मोटे-मोटे ग्रन्थ लिखे जा चुके हैं।
प्रसिद्ध कवि इकबाल ने भगवान राम को ‘‘इमाम-ए-हिन्द‘‘ कहा था, सूफी संत मजहर जानेजानां राम और कृष्ण को अल्लाह का पैगंबर बताते थे और संत निजामुद्दीन औलिया के दिन की शुरूआत राम और कृष्ण के भजनों से होती थी। एक बार जब निजामुद्दीन औलिया ने एक हिन्दू महिला को सूर्य नमस्कार करते देखा तो उन्होंने अपने अनुयायी अमीर खुसरो से कहा कि वह महिला भी अल्लाह की इबादत कर रही है।
बाबा फरीद, गंज-ए-शक्कर ने अपने सभी भक्ति गीत पंजाबी में लिखे और उनमें से कई गुरूग्रन्थ साहिब का हिस्सा हैं।
चर्च ने भी भारत के लोगों की संस्कृति और उनके कर्मकाण्डों को अपनाया है। इससे ज्यादा आखिर आप क्या अपेक्षा कर सकते हैं? भारत के मुसलमानों और ईसाईयों का इस हद तक भारतीयकरण हो गया है कि वे जातिप्रथा को भी मानने लगे हैं, जो उन्हें नहीं करना चाहिए!
तत्कालीन संरसंघचालक के. एस. सुदर्शन ने आरएसएस द्वारा प्रायोजित मुस्लिम राष्ट्रीय मंच की बैठक को संबोधित करते हुए 24 दिसम्बर 2002 को इस बात पर आश्चर्य प्रकट किया कि ‘‘भारत के मुसलमानों ने अल्पसंख्यक का दर्जा क्यों स्वीकार किया, जबकि वे जन्म से इस धरती पर रह रहे हैं और उनकी संस्कृति, नस्ल व पुरखे वही हैं जो कि हिन्दुओं के हैं?‘‘ नस्ल व पुरखों की अवधारणा ना तो संविधान स्वीकार करता है और ना ही इसका कबीर के हिन्दू धर्म, इस्लाम व ईसाई धर्म में कोई अस्तित्व है।
मुस्लिम राष्ट्रीय मंच के मार्गदर्षक इन्द्रेश कुमार का कहना है कि मुसलमानों और ईसाईयों को हिन्दू राष्ट्रवाद को स्वीकार कर लेना चाहिए। दूसरे शब्दों में, उन्हें हिन्दुओं का प्रभुत्व स्वीकार कर लेना चाहिए। इन्द्रेश कुमार चाहते हैं कि मुसलमान, हिन्दू राष्ट्रवाद को भारत की आत्मा के रूप में स्वीकार कर लें और उनका यह वायदा है कि अगर वे ऐसा करेंगे, तो सारे अवरोध अपने आप समाप्त हो जाएंगे, सारी विभाजन रेखाएं अदृश्य हो जाएंगी।
यह साफ है कि इस्लाम और ईसाई धर्म को अपना भारतीयकरण करने की आवश्यकता नहीं है। दरअसल आरएसएस और हिन्दुत्व की विचारधारा का भारतीयकरण होना चाहिए और उन्हें नस्ल पर आधारित हिन्दू श्रेष्ठतावाद को त्यागना चाहिए। उन्हें चाहिए कि वे संविधान की समानता की अवधारणा को स्वीकार करें, जिसमें जाति, लिंग, नस्ल, धर्म, भाषा या जन्मस्थान के आधार पर नागरिकों में किसी भी प्रकार का भेदभाव करना निषिद्ध है।
भाजपा के बारे में ये सभी तथ्य सर्वज्ञात हैं परन्तु इसके बाद भी मुसलमानों का एक हिस्सा (लगभग 10 प्रतिशत) भाजपा को वोट देगा। इसके कारणों की हम अगले लेख में विवेचना करेंगे।
-इरफान इंजीनियर