#DeMonetisation करोड़ों लोगों का रक्तहीन नरसंहार, कहां कहां नहीं बन रहे हैं कब्रिस्तान ?

नोटबंदी की कार्पेट बमबारी, कालाधन की सच्चाई, बैंक जमा के रहस्य, खुदरा बाजार के पतन और जनता की त्रासदी पर गहन विश्लेषण—एक भयावह आर्थिक दस्तावेज़;

Update: 2019-03-22 13:00 GMT

पलाश विश्वास
पलाश विश्वास एक लेखक, वरिष्ठ पत्रकार, रंगकर्मी, आंदोलनकारी व स्तंभकार हैं. उन्होंने कई रचनाएं लिखी हैं.

#DeMonetisation करोड़ों लोगों का रक्तहीन नरसंहार, कहां कहां नहीं बन रहे हैं कब्रिस्तान ?

  • #DeMonetisation Carpet Bombing जमा धन में कितना निकला कालाधन?
  • कहां कहां नहीं बन रहे हैं कब्रिस्तान ?
  • चार महीने तक यह समस्या सुलझी नहीं तो खुदरा कारोबार खत्म है
  • टैक्स चुराने वालों के अपराध की सजा टैक्स चुकाने वाले ईमानदार लोगों को भूखों मारकर देने का फासिज्म का यह राजकाज है।

नोटबंदी गुजरात नरसंहार, बाबरी विध्वंस और सिखों के नरसंहार या भोपाल गैस त्रासदी से ज्यादा संक्रामक भयानक राष्ट्रीय त्रासदी है।

पलाश विश्वास

इंडियन एक्सप्रेस की खबर हैः

Demonetisation appears to be carpet bombing, not surgical strike: SC

जमा धन में कितना निकला कालाधन ?

कहां कहां नहीं बन रहे हैं कब्रिस्तान ?

कार्पेट बांबिंग से युद्धोन्मादी माहौल में भारतीय जनता के सफाये का इंतजाम है यह। क्योंकि अब यह साफ है कि पहले से लीक हो जाने की वजह से कालाधन पकड़ में नहीं आ रहा है और आर्थिक अपराधियों के खिलाफ इस अभियान में अपने खून पसीने की कमाई को ही सफेद साबित करने में लगी है जनता।

ताजा खबर है कि अब नोट जमा करने के लिए या एटीएम से पैसा निकालने के लिए भी उंगलियों पर निशान लगाये जा रहे हैं, तो बेरोजगार युवाओं, गरीबों और घरेलू नौकरों के खाते में काला धन जमा हो रहा है और इसके लिए आधार कार्ड किराये पर है।

अभी बैंक जमा के पिछले छह महीने के आंकड़ों से भी पता चल रहा है कि इस कयामत के बारे में खास लोगों को खास जानकारी थी और उन्होंने भारी पैमाने पर देश विदेश में लेन-देन करके कालाधन सफेद बना लिया है।

सोना और बेनामी संपत्ति 30 दिसंबर के बाद जमी करने की चेतावनी देकर फिर चुनिंदा लोगों को बचाने की तैयारी है और फिर इसी तरह कार्पोरेट बांबिंग से आम जनता को लहूलुहान किया जाना है।

नोटबंदी के ऐलान के बाद चार दिनों में जमा पुराने नोट डेढ़ लाख करोड़ की रकम पार कर गया है।

कालाधन निकालने के लिए इस युद्धक अभियान को सुप्रीम कोर्ट ने सर्जिकल स्ट्राइक न मानकर कार्पेट बांबिंग कहा है।

यानि जो हम लिख रहे थे कि यह आम जनता के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक है, उसी को कार्पेट बांबिंग (carpet bombing) कह रहा है देश का सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court) यानी अपराधी को मार गिराने के लिए पूरी आबादी का सफाया।

बहरहाल सरकार के लिए जरूर राहत है कि नोटबंदी के खिलाफ जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले पर रोक लगाने से इनकार कर दिया है।

जाहिर है कि सुप्रीम कोर्ट से भी आम जनता को इस कार्पेट बांबिंग से राहत नहीं मिलने वाली है।

इस कार्पेट बांबिंग के तहत जमा धन में कितना निकला काला धन ?

पहले उम्मीद थी कि नोटबंदी के बाद एटीएम खुलते ही सिमसिम खुल जा की तरह आम जनता के लिए खजाना खुल जायेगा। फिर लंबी कतारें ऐसी लगी हैं कि बैंकों और एटीएम के दरवाजे तक पहुंचना मुश्किल हो रहा है। बैंकों और एटीएम के खुले बंद दरावाजे पर नो कैश का नोटिस टंग गया है।

वित्तमंत्री ने कहा कि नये नोट निकालने के लिए सारे एटीएम के साफ्टवेयर बदलने होंगे। दो तीन हफ्ते लग जायेंगे। फिर अगले ही दिन प्रधानमंत्री ने पचास दिनों की मोहलत मांग ली। अब कहा जा रहा है कि चार महीने कम से कम लगेंगे और तब तक नकदी का विकल्प प्लास्टिक मनी है।

आपातकालीन सेवाओं के लिए पुराने नोट की वैधता की अवधि (Validity period of old notes) फिलहाल 24 नवंबर तक बढ़ायी गयी है जो आगे और बढ़ायी जा सकती है।

यही कार्पेट बांबिंग है।

इसे तो कोई राहत नहीं मिली है तो दूसरी ओर, ममता बनर्जी ने विपक्ष की गोलबंदी करके संसद में हंगामा करने की पूरी तैयारी कर ली है। इस गोलबंदी में वामदल भी उनके साथ हैं। मायावती, अरविंद केजरीवाल, लालू, नीतीशकुमार जैसे लोग भी हंगामा बरपा सकते हैं। इसके बावजूद फासिज्म के राजकाज का कोई राजनीतिक प्रतिरोध होते दीख नहीं रहा है और न कोई विकल्प बन रहा है।

राजनीतिक प्रतिरोध नहीं है और न राजनीतिक विकल्प है।

राजनीतिक राहत की फिलहाल दूर दूर तक संभावना नहीं है। आम जनता के इस भयानक संकट में राजनीतिक दल अपना अपना चुनावी समीकरण साध रहे हैं तो यूपी , पंजाब, उत्तराखंड, मणिपुर जैसे राज्यों में चुनाव जीतने के लिए यह चांदमारी है, इसे भी अब साबित करने की जरूरत नहीं है।

आम जनता के बारे में न कोई राजनीतिक विचारधारा है और न कोई राजनीतिक पहल है। इस चांदमारी में मारे जाने वाले लोगों के खून से किसके हाथ रंगे नहीं हैं, फिलहाल कहना मुश्किल है। कब्रिस्तान तो हर कहीं बनेंगे।

ढाई लाख से ज्यादा रकम जमा करने पर आयकर तो लगेगा ही, उसके साथ दस गुणा पेनाल्टी लग सकती है। अब समझने वाली बात है कि आयकर, पेनाल्टी और कानूनी झंझट की बाधाधौड़ पार करके कितने कालाधन वाले कतारबद्ध होकर बैंकों में जाकर जमा करने का जोखिम उठायेंगे जो आम माफी जैसे माहौल में बिना पेनाल्टी के लिए काला धन जमा करने को तैयार नहीं थे।

आखिर क्या है यह कालाधन?

सीधे तौर पर कायदा कानून को धता बताकर बिना देय टैक्स चुकाये अर्जित और जमा धन को काला धन कहा जा सकता है। जो ज्यादातर छुपा हुआ है और खुले बाजार में प्रचलित नहीं है। इसका इस्तेमाल नकदी में खरीददारी और अचल संपत्ति में निवेश से लेकर विदेशी विनिवेश तक में है। जबकि आम जनता के पास जो पैसा है, उसी से खुदरा बाजार चलता है। पांच सौ और एक हजार के नोट रद्द हो जाने पर आम जनता के पास खर्च चलाने के लिए नकदी नहीं है तो इसका सीधा मतलब यह है कि खुदरा बाजार बंद है।

2011 में सुप्रीम कोर्ट में सीबीआई के दाखिल हलफनामा में विदेशी बैंकों में तब तक भारतीयों के खातों में पांच सौ बिलियन रुपया जमा है जो पचास हजार करोड़ डॉलर के बराबर है।

रक्षा क्षेत्र में विनिवेश (Disinvestment in the defence sector) और रक्षा सौदों में दलाली के साथ युद्धोन्मादी परिस्थितियों में हथियारों और परमाणु ऊर्जा की खरीददारी की अंधी दौड़, देश के सारे संसाधन बेच देने के अश्वमेधी अभियान में 2011 के बाद पिछले पांच सालों में यह रकम किस तेजी से बढ़ी होगी, इसका अंदाजा भी लगाया नहीं जा सकता।

नोटबंदी से उस कालाधन का कितना हिस्सा देश के बैंको में जमा हुआ है, सरकार संसद के शीतकालीन अधिवेशन में यह ब्यौरा पेश करें तो त्याग और बलिदान और देशभक्ति के पीछे जो खुल्ला खेल फर्रुखाबादी चल रहा है, उसका खुलासा हो रहा।

गौरतलब है कि नोटबंदी के विरोध में लामबंद राजनेता ऐसी कोई मांग नहीं कर रहे हैं।

देश में मौजूद कुल नकदी जब विदेशों में जमा कालाधन के मुकाबले आधा भी नहीं है तो अर्थशास्त्री विवेक देबराय के मुताबिक इस युद्धक अभियान का मकसद कालाधन निकालना कतई नहीं हो सकता। आज बांगला दैनिक आनंदबाजार के संपादकीय लेख में उन्होंने कालाधन का अर्थशास्त्र डिकोड कर दिया है।

विवेक देबराय के मुताबिक जनता की दक्कतें दूर करने की पूरी तैयारी करके ही ऐसा कदम उठाना था।

संघ परिवार और शिवसेना भी आम जनता की तकलीफों का रोना रो रहे हैं। सुब्रह्मण्यम स्वामी और पतंजलि बाबा तक इससे होने वाली अराजकता के खिलाफ मुंह खोलने लगे हैं। जाहिर है कि दांव उल्टा निकला है तो अब डैमेज कंट्रोल के लिए आत्म आलोचना का संघी विवेक भी अंगड़ाई लेने लगा है। आध्यात्म भी जगने वाला है। कुंडलिनी तो जग ही गयी है।

बहरहाल, चार महीने तक यह समस्या सुलझी नहीं तो खुदरा कारोबार खत्म है, आर्थिक लेन देन सिरे से बंद है और इसे जुड़े तमाम लोगो का काम धंधा, रोजगार बंद है हमेशा के लिए। खेती और नौकरियां पहले ही खत्म हैं।

दिहाड़ी कमाकर बुनियादी जरुरतें पूरी करने वाली ज्यादातर आम लोगों और लुगाइयों के लिए यह युद्ध परिस्थिति में दुश्मनों की कार्पेटं बांबिग में मारे जाने या जख्मी विकलांग हो जाने से बड़ा हादसा है जो बंगाल की भुखमरी से ज्यादा व्यापक है और इस हादसे की चपेट में एक एक नागरिक है।

टैक्स चुराने वालों के अपराध की सजा टैक्स चुकाने वाले ईमानदार लोगों को भूखों मारकर देने का फासिज्म का यह राजकाज है।

यह गुजरात नरसंहार, बाबरी विध्वंस औरसिखों के नरसंहार या भोपाल गैस त्रासदी से ज्यादा संक्रामक भयानक राष्ट्रीय त्रासदी है।

पेटीएम से मार्केटिंग चालू हो गयी और सरकारी योजना के तहत सोसाइटी को जानबूझकर जबर्दस्ती कैशलैस कर दिया गया जैसा कि इस दीर्घकालीन युद्धक अभियान या कार्पेट बांबिंग का असल मकसद है तो बाजार पर ईटेलिंग और नेटवर्किंग के जरिये बड़ी पूंजी का एकाधिकार कायम होना है और छोटे और मंझौले तमाम कारोबारी बाजार से हमेशा के लिए बेदखल है जिनका कोई वैकल्पिक काम धंधा नहीं है और न कोई वैकल्पिक रोजगार सृजन है।

खेती बहुजन जनता की आजीविका है और खेती चौपट होने के बाद खुदरा बाजार खत्म करने के इस कार्पेट बांबिंग का मतलब यह है कि खेती और कारोबार दोनों सेक्टर में आम जनता की हिस्सेदारी खत्म और इसके साथ सात नौकरियां भी खत्म है।

यह करोड़ों लोगों का रक्तहीन नरसंहार है।

बहरहाल इन आंकड़ों पर तनिक गौर कीजिये एक साल में लोग जितना पैसा बैंकों में जमा नहीं करते उससे 172 प्रतिशत ज्यादा पैसा तो चार दिन में बैंकों के पास आ गया है। मार्च 2015 में बैंकर्स के पास 1177.24 करोड़ रुपया जमा पूंजी थी। जो कि मार्च 2016 में 89.63 करोड़ रुपए बढ़कर 1266 करोड़ रुपया पहुंच गई थी। लेकिन बीते चार दिनों में ही बैंकों में 155 करोड़ रुपया ओर जमा हो गया है। इस हिसाब से बैंकों की जमापूंजी 1266 करोड़ रुपए से बढ़कर 1406 करोड़ रुपए पर पहुंच गई है।

इस जमा धन में कितना निकला कालाधन ?

इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक पिछले दो सालों के दौरान सितंबर महीने में रेकॉर्ड डिपॉजिट देखने को मिला। सितंबर महीने में बैंकों में कुल 5.98 लाख करोड़ रुपये जमा हुए। इस वजह से बैंकों का डिपॉजिट ऑल टाइम हाई (1, 02, 08, 290 करोड़ रुपये) पर पहुंच गया। सितंबर महीने की बैंक डिपॉजिट में कुल 13.46 फीसदी का उछाल देखने को मिला। इससे पहले जुलाई 2015 में रेकॉर्ड डिपॉजिट देखने को मिला था। तब बैंकों में कुल 1.99 लाख करोड़ रुपये डिपॉजिट किए गए थे। जुलाई की बैंक डिपॉजिट में 12.68 फीसदी का उछाल आया था। अब विपक्षी दलों, खासकर कांग्रेस ने इस मुद्दे को पकड़ लिया है और इसका इस्तेमाल सरकार के खिलाफ कर रही है।

नोटबंदी से पहले यह रकम किन लोगों के खाते में जमा है, इसका ब्यौरा अभी नहीं मिला है। नोटबंदी से पहले हुए इस रिकार्ड जमा से किन लोगों ने काला धन सफेद किया है, इसका खुलासा नहीं हुआ है।

सरकार ने नकदी संकट का कोई उपाय अभी तक नहीं सोचा तो अब जब मौतों और आत्महत्याओं की खबरें तेजी से रोज सुर्खियां बनने लगी है तो नोटबंदी के बाद बैंकों और एटीएम के बाहर लगी लंबी कतारों के बीच सरकार ने कैश क्रंच से निपटने के लिए नए नियम जारी किए हैं। आर्थिक मामलों के सचिव शक्तिकांत दास ने कहा आज से नोट बदलवाने पर उंगली पर स्याही का निशान लगाया जाएगा।

अब युद्धक विमानों से आम जनता पर नोट बरसाने की तैयारी है तो कतारों में खड़े लोगों पर पुलिस लाठीचार्ज तेज हैं और कुछ दिनों में यही हाल है तो सलवा जुड़ुम भी शुरु हो जायेगा।

खेती के मरघट में नजारा कुछ और है।

किसानों की खेती गेहूं की बुआई के लिए तैयार है मगर सघन सहकारी गोदामों पर हजार व पांच सौ के पुराने नोटों को नहीं लिए जाने के कारण किसानों को खाद्य व बीज नहीं मिल पा रहा है। खरीफ सीजन की उपज की बिक्री और रबी फसलों की बुवाई प्रभावित हो रही है। नगदी संकट में सुधार जल्दी नहीं हुआ तो किसानों की मुश्किलें बढ़ सकती हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में नोटों की कम आपूर्ति कृषि गतिविधियों को प्रभावित कर सकती है।

BBC के मुताबिक भारत में नाटकीय रूप से 500 और 1000 के नोटों को रद्द किए जाने के कदम को कौशिक बासु ने भारतीय अर्थव्यवस्था को झटका देने वाला बताया है।

विश्व बैंक के पूर्व चीफ़ इकोनॉमिस्ट कौशिक बासु ने कहा कि भारत में 500 और 1000 के रुपयों को रद्द करना अर्थव्यवस्था के लिए ठीक नहीं है। प्रोफ़ेसर बासु ने कहा कि इससे फायदे की जगह व्यापक नुक़सान होगा।

विश्व बैंक के पूर्व चीफ़ इकनॉमिस्ट कौशिक बासु का कहना है,

"भारत में गुड्स एंड सर्विस टैक्स (जीएसटी) अर्थव्यवस्था के लिए ठीक था लेकिन विमुद्रीकरण (नोटों का रद्द किया जाना) ठीक नहीं है। भारत की अर्थव्यवस्था काफ़ी जटिल है और इससे फायदे के मुक़ाबले व्यापक नुक़सान उठाना पड़ेगा।"

प्रोफ़ेसर बासु पूर्ववर्ती यूपीए सरकार में मुख्य आर्थिक सलाहकार थे और अभी न्यूयॉर्क कोर्नेल यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर हैं।

(15 नवंबर 2016 को प्रकाशित)


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