नेहरू ने कहा था, सबसे जरूरी है लोगों का दिल जीतना, कानून उसके बाद बनाये जा सकते हैं... आईए, समझें धारा 370 को
धार्मिक राष्ट्रवाद, धारा 370 और कश्मीर समस्या का ऐतिहासिक व राजनीतिक विश्लेषण। राम पुनियानी का विचारोत्तेजक लेख, आज के संदर्भ में प्रासंगिक।;
धारा 370, धार्मिक राष्ट्रवाद और कश्मीर: कानून से नहीं, दिल जीतने से बनेगा भारत
कश्मीर, धारा 370 और अतिराष्ट्रवाद: इतिहास जिसे बार-बार भुला दिया गया
धार्मिक राष्ट्रवाद के उफान में अक्सर यह भुला दिया जाता है कि किसी भी राष्ट्र की असली मजबूती कानूनों से नहीं, लोगों की आकांक्षाओं से बनती है। धारा 370 को लेकर उठती बहसें, कश्मीर को एक जटिल ऐतिहासिक और राजनीतिक प्रश्न के बजाय केवल सत्ता की राजनीति में बदल देती हैं। प्रोफेसर राम पुनियानी का यह लेख उसी भूल पर उंगली रखता है—जहाँ अतिराष्ट्रवाद क्षेत्रीय पहचान, स्वायत्ता और लोकतांत्रिक संवाद को दबा देता है। कश्मीर के विशेष दर्जे के इतिहास से लेकर आज की राजनीति तक, यह लेख याद दिलाता है कि दिलों का विलय, किसी भी संवैधानिक बदलाव से पहले जरूरी है...
धार्मिक राष्ट्रवाद (Religious nationalism) के नशे में गाफिल रहने वालों को आमजनों की क्षेत्रीय व नस्लीय आकाँक्षाएँ दिखलाई नहीं देतीं। विभिन्न रंगों के अति राष्ट्रवादी भी इसी दृष्दिोष से पीड़ित रहते हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार (BJP-led NDA government) के दिल्ली में सत्ता पर काबिज होने के बाद से संविधान की धारा 370 को हटाने का मुद्दा एक बार फिर राजनीति के मंच के केन्द्र में आ गया है। इस मुद्दे को प्रधानमंत्री कार्यालय के एक राज्यमंत्री ने उठाया और कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला और पीडीपी की महबूबा मुफ्ती ने इसका कड़ा विरोध किया।
भारतीय संघ के गठन के साथ ही, हिमाचल प्रदेश, उत्तर-पूर्वी राज्यों और जम्मू-कश्मीर के संघ में विलय का प्रश्न चुनौती बनकर उभरा। इन सभी चुनौतियों का अलग-अलग ढंग से मुकाबला किया गया परन्तु आज भी ये किसी न किसी रूप में राष्ट्रीय चिंता का कारण बनी हुई हैं। जम्मू-कश्मीर इस संदर्भ में सबसे अधिक चर्चा में है। कश्मीर, सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण भौगोलिक क्षेत्र है और इसलिए वैश्विक शक्तियों ने भी कश्मीर समस्या (Kashmir problem) को उलझाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। भारत और पाकिस्तान के बीच सम्बंधों में प्रगाढ़ता की राह में कश्मीर सबसे बड़ा रोड़ा है। भारतीय साम्प्रदायिक ताकतें भी कश्मीर मुद्दे को हवा देती रहती हैं।
इस पृष्ठभूमि के चलते, जब भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी ने धारा 370 पर राष्ट्रीय बहस (National debate on Article 370) का आव्हान किया तब देश में मानो भूचाल सा आ गया। उनका यह कहना कि ‘इससे किसे लाभ हुआ‘, दरअसल, दूसरे शब्दों में इस धारा को हटाने की माँग थी। मोदी की बात को आगे बढ़ाते हुए भाजपा नेता सुषमा स्वराज व अरूण जेटली ने जोर देकर कहा कि धारा 370 की समाप्ति, हिन्दुत्व-आरएसएस एजेन्डा का अविभाज्य हिस्सा बनी हुई है। जेटली ने भारतीय जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुकर्जी की इस माँग को दोहराया कि कश्मीर का भारत में तुरन्त व पूर्ण विलय होना चाहिए। जेटली ने ऐतिहासिक तथ्यों को तोड़ते-मरोड़ते हुए यह कहा कि ‘‘स्वराज, 1953 के पूर्व की स्थिति की बहाली और यहाँ तक कि आजादी की माँग के मूल में नेहरू द्वारा कश्मीर को विशेष दर्जा दिए जाने का निर्णय है।‘‘ इस विषय पर टेलीविजन चैनलों पर लंबी-लंबी बहसें हुईं, जिनसे केवल चर्चा में भाग लेने वालों की धारा 370 और कश्मीर के विशेष दर्जे के बारे में घोर अज्ञानता जाहिर हुई। मुद्दे के एक बार फिर उठने से टेलीवीजन बहस मुबाहिसों का नया दौर शुरू हो गया है।
यह सही है कि कश्मीर में इस समय कई ऐसी ताकतें हैं जो स्वतंत्रता से लेकर स्वायत्ता तक की माँग कर रही हैं। परन्तु मोटे तौर पर, राज्य में धारा 370 के प्रश्न पर एकमत है। यद्यपि यह कहना मुश्किल है कि किस माँग का समर्थन कितने लोग कर रहे हैं तथापि कश्मीर की अधिकाँश जनता, धारा 370 के साथ-साथ और अधिक स्वायत्ता की पक्षधर है।
इस मुद्दे का इतिहास जटिल है। जैसा कि सर्वज्ञात है, कश्मीर सीधे अंग्रेजों के अधीन नहीं था। वह एक रियासत थी जिसके शासक डोगरा राजवंश के हरिसिंह थे। उन्होंने केबिनेट मिशन योजना के अंतर्गत गठित संविधान सभा का सदस्य बनने से इंकार कर दिया था। जम्मू- कश्मीर की आबादी का 80 फीसदी मुसलमान थे। भारत के स्वतंत्र होने के बाद, कश्मीर के महाराजा के सामने दो विकल्प थे-पहला, कि वे अपने राज्य को एक स्वतंत्र देश घोषित कर दें और दूसरा कि वे भारत या पाकिस्तान में अपने राज्य का विलय कर दें। महाराजा की इच्छा स्वतंत्र रहने की थी। जम्मू के हिन्दू नेताओं ने हरिसिंह की इस अलगाववादी योजना का समर्थन किया। ‘जम्मू-कश्मीर राज्य हिन्दू सभा‘ के नेताओं, जिनमें से अधिकांश बाद में भारतीय जनसंघ के सदस्य बन गए, ने जोरदार ढंग से यह आवाज उठाई कि ‘जम्मू- कश्मीर, जो कि हिन्दू राज्य होने का दावा करता है, को धर्मनिरपेक्ष भारत में विलीन नहीं होना चाहिए‘ (कश्मीर, बलराज पुरी, ओरिएन्ट लांगमेन, 1993, पृष्ठ 5)। परन्तु कश्मीर पर पाकिस्तानी सेना की मदद से कबाईलियों के हमले ने पूरे परिदृश्य को बदल दिया।
हरिसिंह अपने बलबूते पर कश्मीर की रक्षा करने में असमर्थ थे और इसलिए उन्होंने भारत सरकार से मदद माँगी। भारत सरकार ने कहा कि वह पाकिस्तानी हमले से निपटने के लिए अपनी सेना तभी भेजेगी जब कश्मीर का भारत में विलीनीकरण हो जाएगा। इसके बाद कश्मीर और भारत के बीच परिग्रहण की संधि पर हस्ताक्षर हुए, जिसमें धारा 370 का प्रावधान था। यह विलय नहीं था। संधि की शर्तों के अनुसार, भारत के जिम्मे रक्षा, मुद्रा, विदेशी मामले और संचार था जबकि अन्य सभी विषयों में निर्णय लेने का पूरा अधिकार कश्मीर की सरकार को था। कश्मीर का अपना संविधान, झंडा, सदर-ए-रियासत व प्रधानमंत्री होना था। राष्ट्र के नाम अपने संदेश में इस संधि का औचित्य सिद्ध करते हुए पंडित नेहरू ने 2 नवम्बर 1947 को कहा ‘‘...कश्मीर सरकार और नेशनल कांफ्रेस, दोनों ने हमसे जोर देकर इस संधि को स्वीकार करने और हवा के रास्ते कश्मीर में सेना भेजने का अनुरोध किया। उन्होंने यह कहा कि विलय के प्रश्न पर, कश्मीर के लोग, वहां शांति स्थापित होने के बाद विचार करेंगे...‘‘ (नेहरू, कलेक्टिड वर्क्स, खण्ड 16 पृष्ठ 421)। इसके बाद भारत ने संयुक्त राष्ट्रसंघ से अनुरोध किया कि वह हमले में कब्जा की गई भूमि भारत को वापिस दिलवाए और अपनी देखरेख में कश्मीर में जनमत संग्रह करवाए। इसके बाद विभिन्न कारणों से जनमत संग्रह करवाने का कार्य टलता रहा।
इस सदी की शुरूआत के साथ ही कश्मीर में हालात बेहतर होने शुरू हुए। परन्तु लोगों का गुस्सा अब भी शांत नहीं हुआ था। यह गुस्सा पत्थरबाजी करने वाले दलों के रूप में उभरा। भारत सरकार ने इस असंतोष को दूर करने के लिए वार्ताकारों का एक दल नियुक्त किया। दिलीप पडगांवकर, राधा कुमार और एम. एम. अंसारी के इस समूह ने अपनी रपट (मई 2012) में 1953 के पूर्व की स्थिति की बहाली की माँग को खारिज करते हुए यह सिफारिश की कि कश्मीर को वह स्वायत्ता दी जानी चाहिए, जो उसे पहले प्राप्त थी। दल ने यह सुझाव भी दिया कि संसद कश्मीर के सम्बंध में कोई कानून तब तक न बनाए जब तक कि उसका सम्बंध राज्य की आंतरिक या बाह्य सुरक्षा से न हो। टीम ने धारा 370 को ‘अस्थायी‘ के स्थान पर ‘विशेष‘ प्रावधान का दर्जा देने की सिफारिश भी की। दल की यह सिफारिश भी बिलकुल उचित थी कि शनै:-शनै: राज्य के प्रशासनिक तंत्र में इस तरह परिवर्तन लाया जाए कि उसमें स्थानीय लोगों का प्रतिनिधित्व बढ़े। उसने वित्तीय शक्तियों से लैस क्षेत्रीय परिषदों की स्थापना की बात भी कही और यह भी कहा कि हुरियत और पाकिस्तान के साथ वार्ताएं फिर से शुरू की जाएं ताकि वास्तविक नियंत्रण रेखा के दोनों ओर तनाव घट सके। भाजपा ने इस रपट को इस आधार पर खारिज कर दिया कि इससे कश्मीर का भारत में विलय कमजोर होगा। अलगाववादियों ने कहा कि रपट में की गई सिफारिशें अपर्याप्त हैं और इनसे समस्या का राजनैतिक हल नहीं निकलेगा।
धारा 370 पर बेशक बहस हो। परन्तु हम सबको यह समझना होगा कि कश्मीरी आखिर चाहते क्या हैं? अतिराष्ट्रवादियों की उन्मादी बातें केवल घावों के भरने की प्रक्रिया को धीमा करेंगी और राज्य में प्रजातंत्र की जड़ों को कमजोर। जैसा कि नेहरू ने कहा था, सबसे जरूरी है लोगों का दिल जीतना। कानून उसके बाद बनाए जा सकते हैं। लोगों की आकांक्षाओं को समझकर ही उन्हें अपना बनाया जा सकता है। दंभपूर्ण बातों और आक्रामक तेवरों से लाभ कम होगा हानि ज्यादा।
राम पुनियानी
(मूल अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)
नोट - डॉ. राम पुनियानी का यह आलेख आईए, अनुच्छेद 370 को समझें हस्तक्षेप पर मूलतः 08 दिसंबर 2013 को प्रकाशित हुआ था। वर्तमान संदर्भ में धारा 370 को समझने के लिए यह लेख प्रासंगिक है। हस्तक्षेप के पाठकों के लिए पुनर्प्रकाशन। लेख मित्रों के साथ साझा भी करें।