फॉसिल फ्यूल लॉबिस्ट्स से पटी COP30, क्लाइमेट न्याय की आवाज़ दबने का खतरा बढ़ा

  • COP30 में 1600 से ज़्यादा फॉसिल फ्यूल लॉबिस्ट्स की एंट्री
  • जलवायु-प्रभावित देशों से ज़्यादा प्रदूषणकारी कंपनियों की मौजूदगी
  • “जो आग लगा रहे हैं, वही आग बुझाने आए” – नागरिक समाज की तीखी प्रतिक्रिया
  • क्लाइमेट न्याय, युद्ध और जीवाश्म ईंधन का काला रिश्ता

COP30 के लिए असली चुनौती: हितों के टकराव से मुक्त वार्ताएँ

बेलेम की नमी भरी हवा में इन दिनों अजीब-सी हलचल है. बाहर अमेज़न की हरियाली सांस ले रही है, अंदर कन्वेंशन सेंटर में दुनिया की किस्मत तय होने वाली है.

पर एक सच्चाई सबके गले में अटक गई है. इस बार COP30 (कॉप30) में जलवायु परिवर्तन से लड़ने आए लोग कम और फॉसिल फ्यूल लॉबिस्ट्स/ जीवाश्म ईंधन लॉबिस्ट (Fossil Fuel Lobbyists) ज़्यादा दिख रहे हैं.

ताज़ा विश्लेषण ने साफ कर दिया कि सम्मेलन में आए हर पच्चीसवें व्यक्ति का रिश्ता किसी न किसी फॉसिल फ्यूल कंपनी से है.

कुल मिलाकर 1600 से ज़्यादा फॉसिल फ्यूल लॉबिस्ट्स को COP30 में एंट्री मिली है. यह अब तक का सबसे बड़ा आंकड़ा है. केवल मेज़बान ब्राज़ील की आधिकारिक डेलीगेशन संख्या इनसे बड़ी है. बाकी सभी देश पीछे.

इस भारी भीड़ ने वही पुराना सवाल फिर उठा दिया है. आखिर दुनिया की सबसे बड़ी प्रदूषणकारी कंपनियों को उस मंच पर इतना स्पेस क्यों मिलता है, जो धरती को बचाने के लिए बनाया गया है.

Vulnerable देश पीछे, प्रदूषक कंपनियां आगे

सबसे चुभने वाली बात यह है कि फॉसिल फ्यूल लॉबिस्ट्स की संख्या दुनिया के सबसे जलवायु-प्रभावित दस देशों की कुल डेलीगेशंस से दो तिहाई ज़्यादा है. फिलीपींस जैसे देश, जो अभी भी टाइफून की तबाही (Typhoon devastation) झेल रहे हैं, उनके मुकाबले लॉबिस्ट्स की संख्या पचास गुना तक पहुंच गई है.

कई ग्लोबल नॉर्थ देशों ने तो अपने आधिकारिक प्रतिनिधिमंडलों में ही फॉसिल फ्यूल कंपनियों के प्रतिनिधियों को शामिल किया है. फ्रांस ने टोटल एनर्जी के पांच प्रतिनिधियों को भेजा, जिनमें CEO भी शामिल थे. जापान, नॉर्वे और अन्य देशों में भी यही पैटर्न दिखा.

इतनी बड़ी उपस्थिति ने नागरिक समाज संगठनों की चिंताओं को और गहरा कर दिया है. वर्षों से चली आ रही मांग है कि क्लाइमेट नेगोशिएशन्स (Climate Negotiations) से फॉसिल फ्यूल कंपनियों को बाहर रखा जाए, ताकि असली जलवायु समाधान उभर सकें.

"जो आग लगा रहे हैं, वही आग बुझाने आए हैं"

KBPO (Kick Big Polluters Out) गठबंधन ने रिपोर्ट जारी करते हुए कहा है कि यह पूरी प्रक्रिया का मज़ाक है. फिलीपींस की प्रतिनिधि जैक्स बोंबोन ने कहा कि तीन दशकों की जलवायु वार्ताओं के बावजूद प्रदूषण फैलाने वालों को ताकत मिलती रही है. “आप उसी समस्या को हल करने की कोशिश कर रहे हैं जिसके मूल में ये कंपनियां खुद बैठी हैं.”

ग्लोबल साउथ के विशेषज्ञों ने भी कहा कि यह असमानता न सिर्फ अनैतिक है, बल्कि खतरनाक भी है. जलवायु आपदाएं (Climate disasters) बढ़ रही हैं, लाखों लोग विस्थापित हो रहे हैं, पर बातचीत की मेज पर बैठने का अधिकार उन्हीं के पास है जिनके कारण संकट पैदा हुआ.

इज़राइल-फिलिस्तीन संघर्ष और जीवाश्म ईंधन के बीच काला रिश्ता (The dark connection between the Israel-Palestine conflict and fossil fuels)

कई संगठनों ने फॉसिल फ्यूल उद्योग के युद्ध मशीनरी को सपोर्ट करने के तथ्यों को सामने रखा. कुछ प्रतिनिधियों ने कहा कि जलवायु न्याय की लड़ाई का संबंध मानवाधिकार और शांति से भी गहरा है. उनका आरोप है कि कंपनियों की यही शक्ति उन्हें कॉन्फ्रेंस हॉल्स में भी घुसा देती है.

क्लाइमेट न्याय की आवाज खुद रास्ता ढूंढेगी

इस साल पहली बार गैर-सरकारी प्रतिभागियों से फंडिंग डिस्क्लोजर की मांग की गई है. पर यह नियम सरकारी डेलीगेशंस की ओवरफ़्लो बैज पर लागू नहीं होता. यही छूट 164 लॉबिस्ट्स को सरकारी पास के जरिये अंदर तक पहुंच दे गई.

Transparent International ने इसे “भरोसे की नींव हिला देने वाली खामी” कहा है.

क्या COP30 सच में ‘Implementation COP’ बन पाएगी

ब्राज़ील की अध्यक्षता COP30 को ‘सच का COP’ बता रही है. पर सच यह है कि जब तक वार्ताओं में प्रदूषण फैलाने वाली कंपनियों की मौजूदगी रहेगी, तब तक सही मायने में क्लाइमेट समाधान सामने आना मुश्किल है.

कई संगठनों ने मांग दोहराई है कि:

• प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों को प्रक्रिया से बाहर रखा जाए

• हितों के टकराव की स्पष्ट नीति बने

• निर्णयों पर वास्तविक जवाबदेही तय की जाए

धरती इस वक्त सबसे गर्म सालों में से एक झेल रही है. समुद्र उफान पर हैं. तूफानों की रफ्तार बढ़ रही है. जनता को उम्मीद है कि COP30 में उनकी आवाज सुनी जाएगी. पर फिलहाल तो कॉरिडोर में घूमते लॉबिस्ट्स देखकर ऐसा लगता है कि जिनको जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए, वही निर्णय प्रक्रिया का हिस्सा बन बैठे हैं.

ये क्लाइमेट कहानी यही कहती है. जब टेबल पर जगह कम पड़ने लगे, तो सबसे पहले हकदार लोगों की तरफ देखो. क्योंकि यह लड़ाई धरती बचाने की है. और इसमें जनता की आवाज़ सबसे ऊपर होनी चाहिए.

डॉ. सीमा जावेद

पर्यावरणविद & कम्युनिकेशन विशेषज्ञ

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