बड़ी बासी सी लगती है जब नज़्म मेरी ज़िंदा सवाल ढोती है… घर वापसी मजदूर की है ना कि राजा राम की
बड़ी बासी सी लगती है जब नज़्म मेरी ज़िंदा सवाल ढोती है… घर वापसी मजदूर की है ना कि राजा राम की
मैं किसी को कोसना नहीं चाहती..
देश- विदेश की मौजूदा अवस्था..
क्या क्यूँ किस तरह चल रही है व्यवस्था..
सत्ता वत्ता..आस्था वास्था..
सब पर बहस बेकार है..
हमने वोट दे दिया बस अब सब कामों पर सरकार है...
हमें उनके किये को ही बढ़-बढ़ कर हांकना है..
अगले आदेश तलक चुप रहकर फ़क़त मुँह ही ताकना है..
और मैं वफ़ादारों की क़तार में सबसे आगे दिखना चाहती हूँ...
एसी वाले कमरे में बैठ सर्वहारा पर लिखना चाहती हूँ...
फटी एड़ियाँ घिसटते लोगों की भूख से मेरा क्या वास्ता ?
फ़ेकबुक के पकवानों वाली गली से गुज़रता है अपना रास्ता...
रोज़ नये ज़ायक़ों की ख़ुशबुएँ साँसों में भरती हूँ...
कूड़े के ढेर से रोटियाँ बीनती भूखी पोस्टों से डरती हूँ..
मुझे ख़ाक लेना देना डंगरों से
पत्ते चरने पर मजबूर है मज़दूर...
फ़क़त लाइव पर फ़ोकस है इन दिनों बस होना है मशहूर...
बड़ी बासी सी लगती है जब नज़्म मेरी ज़िंदा सवाल ढोती है...
मुरदों की बस्ती है सभी को कोफ़्त होती है...
जलती सड़कों पर नंगे पाँव चल रहे हैं वो..तो..अपने वास्ते..
ढूँढ रहे ढूँढे..पटरी..नदी..या जंगलो के रास्ते..
फूल की वर्षा इन पर..
ये सूरतें है राख सी मैली..
कार के क़ाफ़िले चले क्यूँ..?
है कौन सी रैली..
टीवी पर चलती ख़बर भला है मेरे.. किस काम की...
घर वापसी मजदूर की है.. ना कि राजा राम की...
आह्वान था सो जोश से मैंने पूरा कर डाला..
उस रात मुँडेर पर था इक दिया बाला..
इससे आगे सोचे कौन क्या हमारी है मत फिरी..
बस यहीं तक है कर्तव्य अपने और कर्तव्यों की इति श्री...
क्या हुआ ग्यारह बरस का बचपन ग़र रिक्शा चलाता है...
माँ बाप को ढोती
डॉ. कविता अरोरा (Dr. Kavita Arora) कवयित्री हैं, महिला अधिकारों के लिए लड़ने वाली समाजसेविका हैं और लोकगायिका हैं। समाजशास्त्र से परास्नातक और पीएचडी डॉ. कविता अरोरा शिक्षा प्राप्ति के समय से ही छात्र राजनीति से जुड़ी रही हैं।इस घटना से मेरा क्या नाता है..
क्या हुआ नंगे सर पर जो धूप मचलती है..
श्रवण कुमार की बूढ़ी कथा भी तो साथ चलती है...
अब जाना युग त्रेता में श्रवण की क्या अवस्था थी...
शायद दशरथ के साम्राज्य में,
तीर्थ की यहीं व्यवस्था थी...
शब्द भेदी बाण की भूल पर भ्रमित है जग सारा..
सच तो दशरथ को पता था...
श्रवण को तीर क्यूँ मारा..?
बुझे हुए चूल्हों पर बालने चले हैं इक और बुझी आशा..
हाय बिवाइयों से रिस रही है घर की परिभाषा...
डॉ. कविता अरोरा


