ये आँखें हैं ..कि सुनती ही नहीं मेरी कोई बात ....
ये आँखें हैं ..कि सुनती ही नहीं मेरी कोई बात ....

...क़सम से ....
यूँ तो सोच लिया था ...
मैंने ...
मैं ...आज तुम्हें ...
नहीं सोचूँगी ...
इन बीते दिनों में ...
तुम्हारे हर ज़िक्र से ..
घबरा कर आँख चुराई मैंने ...
हाँ ख़ूब बचाया ख़ुद को ...
नहीं गुज़री ...
तेरी याद की दहलीज़ तलक से ....
तुम्हारा रूआब ...
तुम्हारी सख़्तियाँ ...
वो तमाम बातें बचपन वाली ....
उन यादों के पल्लू ...
यूँ ही हवाओं में लहराते छोड़ दिये मैंने ...
किसी क़िस्से की भी उँगलियाँ नहीं थामी ...
बल्कि इन गये दिनों में ..
तमाम रंगीन महफ़िलों की ..
इरादतन ...
शिरकतों ...
और मसरूफ़ियतों से मुझे भी पूरा यक़ीन था ...
कि मैं तेरी याद की जद से ....दूर ...
बहुत दूर ...निकल आई हूँ ...
वहाँ ..जहाँ ..
शिद्दत चाहे भी तो ...
तेरी कोई शक्ल नहीं बनती ....
हाँ .....
रात तक मुतमईन थी मैं ....
कि .हर रोज़ की तरह ....
यह तारीख़ भी ...
मैं यूँ ही गुज़ार दूँगी ...
फिर .जिदंगी के किसी ख़ूबसूरत झूठ से ...
बहला लूंगी ख़ुद को .....
मगर ओफ्फो ....सुबहों से ...
ये आँखें हैं ..कि सुनती ही नहीं मेरी कोई बात ....
फिर उसी आई.सी.यू. के बाहर वाली बेंच पर बिठाये मुझे ...
हिचकियों से सुबकती है ....
मायूस दिल फिर से ...
सहमा-सहमा सा है ...
डर ....डर रहा है तुम्हारी खरखराती साँसों पर ..
जिदंगी मौत का ये झगड़ा ...
जाने किस और सुलटे ...
ख़ुराक हाथ में लिये डाक्टरों का झुंड तुम पर ....
बेकार की कोशिशों में लगा है ....
क्योंकि साफ़ नज़र आ रही है ......
तुम्हारी बेदिली ...
वहीं जाने की ...
ज़िदें ...उलैहतें...
और फिर वहीं मोहलतें देने को मना करती मुकरती हुई तारीख़.........
डॉ. कविता अरोरा


