‘एक देश, एक चुनाव’ से राष्ट्रपति पद्धति तक: संघ की सोच, अंबेडकर की चेतावनी और लोकतंत्र का संकट

एक देश, एक चुनाव’ से राष्ट्रपति पद्धति तक संघ की सोच, अंबेडकर की संवैधानिक नैतिकता और भारत में लोकतंत्र पर मंडराते ख़तरे का एक पुस्तक समीक्षा के जरिए विश्लेषण कर रहे हैं शाहनवाज़ आलम...;

Update: 2025-12-28 16:46 GMT

राष्ट्रपति पद्धति का सपना और संवैधानिक नैतिकता का पतन: अंबेडकर बनाम संघ की राजनीति

राष्ट्रपति पद्धति का सपना और संवैधानिक नैतिकता का पतन: अंबेडकर बनाम संघ की राजनीति

  • ‘एक देश, एक चुनाव’ के पीछे राष्ट्रपति शासन की पुरानी वकालत
  • स्थिर सरकार का मिथक और 90 के दशक में भाजपा की राजनीतिक रणनीति
  • गठबंधन सरकारें और वैचारिक समझौतों का दौर
  • संवैधानिक नैतिकता क्या है: डॉ अंबेडकर की मूल अवधारणा
  • संसद आधारित व्यवस्था बनाम राष्ट्रपति पद्धति को लेकर डॉ अंबेडकर का तर्क
  • क्या स्थिरता उत्तरदायित्व से ज़्यादा महत्वपूर्ण है?
  • अंबेडकर पर ‘1935 एक्ट की नकल’ का आरोप और उसका अंबेडकर द्वारा जवाब
  • भारतीय समाज और लोकतंत्र: अंबेडकर की कठोर चेतावनी
  • गांव, वर्ण व्यवस्था और मनुवादी राजनीति का छिपा एजेंडा
  • भक्ति, वीर पूजा और तानाशाही का रास्ता

क्या आज अंबेडकर की चेतावनी सच साबित हो रही है?

एक देश, एक चुनाव’ से राष्ट्रपति पद्धति तक संघ की सोच, अंबेडकर की संवैधानिक नैतिकता और भारत में लोकतंत्र पर मंडराते ख़तरे का एक पुस्तक समीक्षा के जरिए विश्लेषण कर रहे हैं शाहनवाज़ आलम...

‘एक देश एक चुनाव’ के लिए माहौल बनाने से काफ़ी पहले से संघ अमरीकी शासन पद्धति यानी राष्ट्रपति पद्धति की वक़ालत करता रहा है. जिन वर्गों या व्यक्तियों को लोकतंत्र से दिक़्क़त थी, उन्होंने इसे कभी अपने गुप्त उद्देश्यों से बाहर नहीं रखा कि मौक़ा मिले तो लोकतंत्र के झंझट को ख़त्म कर देना है.

90 के उत्तरार्ध में भाजपा ने स्थिर सरकार देने का मायाजाल रचकर अपनी संविधान विरोधी विचारधारा से ध्यान हटाने में सफलता पा ली. पहले 13 दिन, फिर 13 महीने फिर 5 साल, संघ के कार्यकर्ता अटल बिहारी वाजपेयी पीएम रहे. स्थिर सरकार देने की आड़ में सोशलिस्ट धारा के जॉर्ज फर्नांडीज़, शरद यादव, नीतीश और चंद्रबाबू नायडू पाला बदल चुके थे. चंद्रबाबू नायडू ने तो कमाल ही कर दिया था. वो पहले देवगौड़ा सरकार में यूडीएफ के संयोजक रहे. फिर वाजपेयी सरकार के लिए राजग के भी संयोजक बन गए.

संवैधानिक नैतिकता के पतन की शुरूआत

अंबेडकर ने जिसे अपने आख़िरी भाषणों में ‘संवैधानिक नैतिकता’ कहा था उसके मुकम्मल तौर पर दलीय स्तर पर पतन की शुरुआत यहीं से हुई थी.

4 नवंबर, 1948 को भारतीय संविधान का मसौदा प्रस्तुत करते समय दिए गए ऐतिहासिक भाषण में सरकार की स्थिरता बनाम सरकार के उत्तरदायित्व पर स्पष्ट व्याख्या दी थी. संविधान के मसौदे के आलोचकों ने सवाल उठाया था कि अमरीका और स्विट्जरलैंड की शासन पद्धति में स्थिरता अधिक है. अंबेडकर ने जवाब में कहा कि अमरीकी शासक मंडल ग़ैर संसदीय शासक मंडल है.

ब्रिटेन की शासन पद्धति में स्थिरता की अपेक्षा उत्तरदायित्व अधिक है. क्योंकि वो संसद के बहुमत पर निर्भर है. अगर बहुमत नहीं है तो सरकार को इस्तीफ़ा देना पड़ता है. जबकि अमरीकी सरकार को वहाँ की संसद बर्खास्त नहीं कर सकती. अंबेडकर ने स्पष्ट किया कि संसद पर निर्भर न होने के कारण अमरीकी शासक मंडल में स्थिरता तो है लेकिन उतना उत्तरदायित्व नहीं है जितना ब्रिटेन की संसद आधारित व्यवस्था में है. इसमें हम सरकार की समीक्षा कभी भी अविश्वास प्रस्ताव, मुद्दों पर बहस कराकर या काम रोको प्रस्ताव लाकर कर सकते हैं. जबकि अमरीका की अध्यक्षीय व्यवस्था में यह संभव नहीं है.

अम्बेडकर ने कहा कि मसौदा समिति ने संसदीय शासन पद्धति की सिफ़ारिश करते समय स्थिरता के अपेक्षा उत्तरदायित्व को अधिक महत्व दिया. भारत जैसे देश के लिए यह अधिक आवश्यक है. (पेज 18).

अंबेडकर पर क्या आरोप और आरोपों के पीछे की मानसिकता

जाति के कारण अंबेडकर की विद्वता को न स्वीकार कर पाने वालों का अंबेडकर पर यह आरोप रहा है कि संविधान का आधा हिस्सा 1935 के ‘गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया ऐक्ट’ की नकल है और बाक़ी का आधा दूसरे देशों के संविधान से लिया गया है. आरएसएस और भाजपा के नेता आज भी यही आरोप लगाते हैं और उस समय भी यही आरोप लगाते थे. अंबेडकर ने संविधान सभा में इन आरोपों का जवाब देते हुए कहा था कि जिस समय दुनिया का पहला संविधान लिपिबद्ध हुआ उसे 100 वर्ष से अधिक हो चुका है. यह बहुत पहले निश्चित हो चुका है कि एक संविधान का क्षेत्र क्या होना चाहिए. इसीलिए सभी संविधान एक जैसे मालूम देंगे. उनका इशारा उन सार्वभौमिक मूल्यों की तरफ़ था जो आधुनिक युग की पहचान थे.

जहां तक 1935 के ऐक्ट की बात है इस विषय में उन्होंने कहा था कि मुझे क्षमा मांगने की ज़रूरत नहीं है. किसी से कुछ ग्रहण करने में लज्जित होने का कोई कारण नहीं. संविधान संबंधी प्रधान विचारों को लेकर किसी के भी सर्वाधिकार सुरक्षित नहीं हैं. (पेज 27-28)

यहीं अंबेडकर ने संवैधानिक नैतिकता की ज़रूरत पर बल देते हुए कहा कि संविधान संबंधी नैतिकता कोई स्वाभाविक भावना नहीं है. इसका अभ्यास करना होता है. भारतीय मिट्टी भीतर से अलोकतांत्रिक है. उसी पर ऊपर से लोकतंत्र की चाशनी चढ़ायी गई है. (पेज 29).

इसीलिये इस बात का ख़तरा रहेगा कि इस नैतिकता के अभाव में संविधान के स्वरूप में बिना कोई बदलाव लाए भी केवल शासन व्यवस्था को बदलकर संविधान को विकृत कर दिया जाए और उसे परस्पर विरोधी तथा उसके अपने उद्देश्य की सिद्धि में बाधक बना दिया जाए. (पेज 28).

ऐसा लगता है कि आज भाजपा सरकार अंबेडकर के इसी चेतावनी को सही साबित करने की कोशिश कर रही है. बिना संविधान को बदले संविधान को ख़तरे में डालकर.

(न्यायविद ए जी नूरानी का इस चेतावनी पर Frontline में प्रकाशित लेख ‘Ambedkar’s Warning’ July 5, 2017, देखा जाना चाहिए)

अम्बेडकर के विरोधियों ने उन पर यह आरोप भी लगाया कि संविधान में शासन पद्धति का आधार प्राचीन हिंदू व्यवस्था होनी चाहिए थी जिसके केंद्र में गांव होते. दरअसल गांव को केंद्र बनाने की आड़ में मनुवादी मानसिकता वाले लोग धोखे से वर्ण व्यवस्था को बनाए रखना चाहते थे. (इस विषय पर क्रिस्टोफर जैफ़रलॉट की अम्बेडकर पर आई चर्चित जीवनी देखनी चाहिए)

इस पैंतरे को अंबेडकर ने यह कहते हुए ख़ारिज कर दिया कि गांव अपने प्रति ही मोह की बीमारी के अतिरिक्त, अज्ञान, तंगदिली और सांप्रदायिकता के अतिरिक्त और क्या हैं? उन्होंने कहा कि मुझे ख़ुशी है कि इस मसौदा संविधान ने ‘ग्राम’ को तिलांजलि देकर, उसके बजाए व्यक्ति को ही एक इकाई के रूप में स्वीकार किया है. (पेज 30)

25 नवंबर 1949 को संविधान सभा में दिए अपने भाषण में अंबेडकर ने भारत में तानाशाही के ख़तरे की संभावना से आगाह करते हुए कहा कि बहुत संभव है कि यह नवजात लोकतंत्र अपना स्वरूप बनाए रखे पर वास्तव में अपने स्थान में तानाशाही की स्थापना कर दे.(पेज 50)

भारत में भक्ति या जिसे भक्ति मार्ग या वीर पूजा कहा जाता है, उसका भारत की राजनीति में इतना महत्वपूर्ण स्थान है जितना किसी अन्य देश की राजनीति में नहीं है. धर्म में भक्ति स्व-मोक्ष का मार्ग हो सकता है. पर राजनीति में भक्ति या वीर पूजा पतन तथा अंततः तानाशाही का एक निश्चित मार्ग है. (पेज 51)

सम्यक प्रकाशन से प्रकाशित मात्र 50 रुपये की यह किताब आरएसएस-भाजपा की तानाशाही को समझने और उससे लड़ने में कारगर साबित होगी.

शाहनवाज़ आलम

(समीक्षक कांग्रेस के राष्ट्रीय सचिव हैं)

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